Book Title: Bruhadaloyana
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܗܘܘܘܘܘܘܘ ܘܘܘܘܘܘܘܘܘܐܗܘ ܘ ܘ ܘ ܘ ܘ ܘ ܘ ooooox श्रावक श्री लालाजी रणजीत सिंघजी कृत बृहदालोयणा. ए पुस्तक श्रावक भाइओने अवश्यवांचवा भणवा योग्य जाणीने श्रावक भीमसिंह मामकें श्रीमोहमयी मध्यें निर्णयसागर प्रेसमां छपाव्यं. संवत् १९४७ सने १८९१. २०७०७९७७०७७ ९७ ९७७ ९७ ९७ ९७ ९७७ ९७७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीवीतरागाय नमः॥ ॥अथ पुण्यप्रानाविक श्रावक श्रीलालाजीरण जितसिंघजीकृत श्रीरहदालोयणा प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥ सिम श्रीपरमातमा । अरिगंजन अरिहंत ॥३ ष्टदेव वंदूं सदा । जयनंजन जगवंत ॥ १॥ अरिहंत सिम समरूं सदा । आचारज उवजाय ॥ साधु सक लके चरनकू । वंदं शीश नमाय ॥२॥ शासन नायक समरीयें। नगवंत वीर जिनंद ॥ अलिय विधन दुरेंद रे। आपे परमानंद ॥ ३ ॥ अंगुठे अमृत वसे। ल ब्धि तणो नंमार । श्रीगुरु गौतम समरीयें। वंबित फल दातार ॥ ४॥ श्रीगुरु देव प्रसादसें । होत म नोरथ सि ॥ ज्युं धन वरसत वेलि तरु । फूल फल नकी १६ ॥५॥ पंचपरमेष्टी देवको। नजनपुर पही चान ॥ कर्मभरि नाजे सबी। होवे परम कल्याण ॥६॥ श्रीजिनयुगपद कमलमें । मुज मन जमर व साय ॥ कब कगे वो दिनकरू । श्रीमुख दरिसनपाय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) ॥ ७ ॥ प्रणमी पदपंकज ननी । यरिगंजन अरिहंत ॥ कथन करौं अब जीवको । किंचित मुज विरतंत ॥८॥ यारंन विषय कषाय वश । नमीयो काल अनंत ॥ लख चोराशी जो निसें । अब तारो भगवंत ॥ ए ॥ दे व गुरु धर्म सूत्रमें | नवतत्त्वादिक जोय ॥ यधिका dar जे ह्या । मिठा डक्कड मोय ॥ १० ॥ मोह य ज्ञान मिथ्यात्वको । जरीयो रोग प्रथाग ॥ वैद्यराज गुरु शरनथी । औषध ज्ञान वैराग ॥ ११ ॥ जे में जी व विराधिया । सेव्यां पाप चढार ॥ प्रभु तुमारी सा खसें । वार वार धिक्कार ॥ १२ ॥ बुरा बुरा सबको कहें । बुरा न दीसे कोय ॥ जो घट शोधे आपनो । तो मोसुं बुरा न कोय ॥ १३ ॥ कहेंवामें यावे नहीं । अवगुण नया अनंत ॥ लिखवामें क्युं कर लिखुं । जानो श्रीभगवंत ॥ १४ ॥ करुणानिधि कृपा करी । कठिण कर्म मोय छेद || मोह ज्ञान मिथ्यात्वको । करजो गंठी नेद ॥ १५ ॥ पतित उद्धारन नाथजी । अपनो बिरुद विचार ॥ नूल चूक सब माहरी । खमी ये वारंवार ॥ १६ ॥ माफ करो सब माहरा । या ज तलकना दोष ॥ दीन दयाल देवो मुजे । श्रद्धा शी संतोष ॥ १७ ॥ श्रातम निंदा शुद्ध जनी । गुनवं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) त वंदन नाव ॥ रागद्वेष पतला कर । सबसें खिमत खिमाव ॥१८॥ टुं पिबला पापसें । नवा न बंधु को य ॥ श्रीगुरु देव प्रसादसें । सफल मनोरथ होय ॥ १ ॥ परिग्रह ममता तजी करी । पंच महाव्रत धार ॥ अं त समय बालोयणा । करूं संथारो सार ॥ २० ॥ तीन मनोरथ ए कह्या । जो ध्यावे नित्य मन्न ॥ श क्ति सार वरते सही | पावे शिवसुख धन्न ॥ २१॥ अरिहंत देव निर्यण गुरु । संवर निर्जर धर्म ॥ केव विनाषित शासतर । एहि जैन मत मर्म ॥ २२ ॥ खरंच विषय कषाय तज । शुद्ध समकित व्रत धार ॥ जिन खाज्ञा परमान कर । निश्चय खेवो पार ॥ २३ ॥ द निकमो रहनो नही । करनो यातम काम ॥ नानो गुननो शीखनो । रमनो ज्ञान याराम ॥ २४ ॥ रिहंत सिद्ध सब साधुजी । जिन खाज्ञा धर्मसार ॥ मंगलीक उत्तम सदा । निश्वय शरणां चार ॥ २५ ॥ घडी घडी पल पल सदा । प्रभु स्मरणको चाव ॥ न रजव सफलो जो करे । दान शील तप जाव ॥ २६ ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ सिद्धां जैसो जीव है । जीव सोइ सिद्ध होय ॥ कर्म मेलका अंतरा । बूजे विरला कोय ॥ १ ॥ कर्म Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (B) पुजल रूप है । जीव रूप है ज्ञान || दो मिल कर ब दुरूप है । विबड्यां पद निरवाण ॥ २ ॥ जीव कर म जिन्न जिन्न करो । मनुष्य जनमंकूं पाय ॥ ज्ञानात म वैराग्यसें । धीरज ध्यान जगाय ॥ ३ ॥ इव्यथकी जीव एक है । क्षेत्र असंख्य प्रमान ॥ कालयकी सर्व दार | जावें दर्शन ज्ञान ॥ ४ ॥ गर्जित पुजल पिंम में | अलख मूरति देव || फिरे सहज नवचक्रमें । यह अनादिकी देव ॥ ५ ॥ फूल तर घी दूधमें । ति लमें तैल बिपाय || यूं चेतन जड करमसंग । बंध्यो ममत दुःख पाय ॥ ६ ॥ जो जो पुजलकी दिशा । ते निज माने हंस ॥ यादी नरम विजावतें । बढे क रमको बंस ॥ ७ ॥ रतन बंध्यो गठडी विषे । सूर्य बि प्यो घनमांहि ॥ सिंह पिंजरामें दियो । जोर चले क बु नांहि ॥ ८ ॥ ज्युं बंदर मदिरा पीयां । वितू रुंकित गात ॥ नूत लग्यो कौतुक करे । त्युं कर्मोंको उत्पात ॥ ए ॥ कर्म संग जीव मूढ है | पावे नाना रूप ॥ कर्मरूप मलके टले । चेतन सिद्ध सरूप ॥ १० ॥ शु 5 चेतन उज्ज्वल दरव । रह्यो कर्म मल बाय ॥ त प संयमसें धोवतां । ज्ञान ज्योति बढ़ जाय ॥ ११ ॥ ज्ञान की जाने सकल । दर्शन श्रद्धा रूप ॥ चारित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) श्री आवत रुके। तपस्या पन सरूप ॥ १२॥क मरूप मलके शुधे । चेतन चांदी रूप ॥ निर्मल ज्यो ति प्रगट नयां। केवल ज्ञान अनूप ॥ १३ ॥ मूसी पावक सोहगी। फूंकांतनो उपाय ॥ राम चरण चारु मल्यां । मैल कनकको जाय ॥ १४ ॥ कर्मरूप बाद ज मिटे । प्रगटे चेतन चंद ॥ ज्ञानरूप गुन चांदनी। निर्मल ज्योति अमंद ॥ १५ ॥ राग शेष दो बीजसें । कर्म बंधकी व्याध ॥ ज्ञानातम वैराग्यसें । पावै मुक्ति समाध ॥ १६ ॥ अवसर बीत्यो जात है। अपने ब स कलु होत ॥ पुण्य बतां पुण्य होत है। दीपक दीप क ज्योत ॥ १७ ॥ कल्पद चिंतामणि । इन नवमें सुखकार ॥ ज्ञान वृद्धि इनसें अधिक । नवजुख नंज नहार ॥ १७ ॥राइ मात्र घट वध नही। देख्यां के वल ज्ञान ॥ यह निश्चय कर जानके । त्यजीयें परथ म ध्यान ॥१॥ दूजा कुबबि न चिंतियें। कर्मबंध ब तु दोष ॥त्रीजा चोथा ध्यायके । करियें मन संतोष ॥ २० ॥ गई वस्तु सौचे नही । बागम वंडा नाहि ॥ वर्तमान वर्ने सदा । सो ज्ञानी जगमांहि ॥ २१॥ अहो समदृष्टि जीवडा । करे कुटुंब प्रतिपाल ॥ अं तर्गत न्यारो रहे । ज्युं धाइ खिलावे बाल ॥ २२ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख दुःख दोनुं वसत है। ज्ञानीके घटमांहि ॥ गि रिसर दीखे मुकरमें । नार बोजवो नांहि ॥२३॥ जो जो पुजल फरसना । निश्चे फरसे सोय ॥ ममता स मता नावसे । करमबंध खय होय ॥॥ बांध्या सो ही जोगवे । कर्मशुनाशुन नाव ॥ फल निर्जरा होत है। यह समाधि चित्त चाव ॥ २५ ॥ बांध्या बिननु गते नही। बिन चुंगत्यां न बुडाय ॥ यापही करता जोगता। आपही दूर कराय ॥ २६ ॥ पथ कुपथ घ ट वध करी । रोग हानि ६ थाय ॥ { पुण्य पाप किरिया करी। सुख सुख जगमें पाय ॥ २७ ॥ सुख दीयां सुख होत है । उख दीया सुख होय ॥ आप हणे नही अवरकू। तो अपने हणे न कोय ॥२७॥ झान गरीबी गुरु बचन । नरम वचन निर्दोष ॥ इन कुं कबीन बांमीयें। श्रमा शील संतोष ॥ २ए ॥ स त मत बोडो हो नरा । लक्ष्मी चौगुनी होय ॥ सुख मुख रेखा कर्मकी। टाली टले न कोय ॥ ३०॥ गो धन गजधन रत्नधन । कंचन खान सुखान॥जब था वे संतोष धन । सब धन धूल समान ॥ ३१ ॥ शील रतन महोटो रतन । सब रतनांकी खान ॥ तीन लो ककी संपदा । रही शीलमें धान ॥ ३२ ॥ शालें सर्प Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न आनडे । शीलें शीतल आग ॥ शीलें अरि करि के सरी। जय जावे सब जाग ॥ ३३ ॥ शील रतनके पा रखं । मीठा बोले बैन ॥ सब जगसे उंचा रहे। जो नीचा राखे नैन ॥ ३४ ॥ तन कर मन कर वचन कर । देत न कादु कुःख ॥ कर्म रोग पातक जरे । देखत वाका मुख ॥ ३५ ॥ इति ॥ ॥दोहा॥ ॥ पान ख़रते इम कहे । सुन तरुवर वनराय ॥ अबके बिबुरे कब मिलें । दूर पडेंगे जाय ॥ १ ॥ तब तरुवर उत्तर दीयो । सुनो पत्र एक बात ॥ इस घर एहीरीत है। एक आवत एक जात ॥ २॥ वर स दिनाकी गांठको । हव गाय बजाय ॥ मूरख न र समजे नही। वरस गांठको जाय ॥३॥ ॥ सोरतो॥ ॥ पवन तणो विश्वास । किरण कारण तें दृढ की यो॥ इनकी एही रीत । आवे के आवे नही ॥४॥ ॥दोहा॥ - ॥ करज बिरानां काढके । खरच किया बहु नाम ॥ जब मुदत पूरी हूवे । देनां पडशे दाम ॥ ५ ॥ बि मुंबीयां छूटे नही। यह निश्चय कर मान ॥ हस ह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सके क्युं खरचियें । दाम बिराना जान ॥ ६ ॥ जीव हिंसा करतां थकां । लागे मिष्ट अज्ञान ।। ज्ञानी इम जाने सही। विष मिलियो पकवान ॥ ७ ॥काम जो ग प्यारा लगे । फल किंपाक समान ॥ मीती खाज खुजावतां । पी मुखकी खान ॥ ७ ॥ जप तप सं जम दोहिलो। औषध कडवी जान ॥ सुख कारन पी घनो । निश्चय पद निरवान ॥ ए॥ मानधणी जल बिंऽवो । सुख विषयनको चाव ॥ नव सागर मुख जल जस्यो। यह संसार स्वनाव ॥ १० ॥ चढ उत्तंग जहांसें पतन । शिखर नहीं वो कूप ॥ जिस सुख अंदर मुख वसे । सो सुखनी उख रूप ॥ ११ ॥ जब लग जिसके पुण्यका । पहोचे नही करार ॥ तब लग उसकों माफ है। अवगुन करे हजार ॥ १२ ॥ पुण्य खीन जब होत है । उदय होत है पाप ॥ दा जे बनकी लाकरी। प्रजले आपो आप ॥ १३ ॥ पा प बिपाया नां लिपे । बिपे तो महोटा नाग ॥ दाबी उबी नां रहे । रु पलेटी आग ॥ १४ ॥ बढ़ बीती थोडी रही । अब तो सुरत संचार ॥ परनव निश्चय चालनो। वृथा जन्म मत हार ॥ १५ ॥ चार कोश ग्रामांतरें । खरची बांधे लार ॥ पस्नव निश्चय जाव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) यो | करियें धर्म बिचार ॥ १६ ॥ रज विरज नंची गई | नरमाइके पान || पर ठोकर खात है । करडा इके तान ॥ १७ ॥ अवगुन वर धरियें नहीं । जो हु ये विरष बबूल | गुन लीजें काजू कहै । नहीं बायामें सूल ॥ १८ ॥ जैसी जापें वस्तु है । वैसीदें दिखला य ॥ वाका बुरा न मानीयें। वो लेने कहांसें जाय ॥ ॥ १५ ॥ गुरु कारीगर सारिखा । टांची वचन विचा र ॥ परसें प्रतिमा करे । पूजा नहे अपार ॥ २० ॥ संतनकी सेवा कियां । प्रभु रीजत है याप ॥ जाका बाल खिलाइयें । ताका रीजत बाप ॥ २१ ॥ नवसा गर संसारमें। दीपा श्री जिनराज ॥ उद्यम करी पहों चे तिरें | बैठी धर्म जहाज ॥ २२ ॥ निज धातमकूं दमन कर । पर यातमकूं चीन ॥ परमातमको नज न कर । सोई मत परवीन ॥ २३ ॥ समजु शंके पा पसें । ण समजु हरषंत ॥ वे सूखां वे चीकणां । इ विध कर्म बधं ॥ २४ ॥ समज सार संसार में । समजु टाले दोष ॥ समज समज करी जीवहीं। ग या अनंता मोह ॥ २५ ॥ उपशम विषय कषायनो | संबर तीनुं योग ॥ किरिया जतन विवेकसें । मिटें कुकर्म दुखरोग ॥ २६ ॥ रोग मिटे समता वधे । 1 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकित व्रत आराध ॥ निर्वैरी सब जीवको-। पावे मुक्ति समाध ॥ २७ ॥ इति ॥ नूल चुक मिजामि 5 कडं ॥ इति श्रावक लालाजी रणजित सिंहजीकृत दो हा संपूर्ण ॥ श्री पंचपरमेष्टिनगवनयोनमः ॥ ॥दोहा॥ ॥ सि६ श्रीपरमातमा॥अरिगंजन अरिहंत । इष्ठ देव वंदू सदा। जयनंजन नगवंत ॥१॥ अनंत चोवीशी जिन नमुं । सिम अनंता कोड ॥ वर्तमान जिनवर सवे । केवली दो कोडीनवकोड ॥ २ ॥ गणधरादिक सर्व साधुजी। समकितव्रत गुणधार ॥यथायोग्य वंदन करूं। जिन आझा अनुसार ॥३॥ प्रथम एक नव कार गुणनो ॥ ॥दोहा॥ ॥पंचपरमेष्टी देवनो। नजन पुर पहिचान ॥ कर्म अरि नाजे सनी। शिवसुख मंगल थान॥ ४ ॥ अरि हंत सिह समरूं सदा । आचारज उवजाय ॥ साधु सकलके चरनकुं। बंदू शीश नमाय ॥ ५ ॥ शासन नायक समरिये । वर्षमान जिनचंद ॥ अलिय विधन दूरे हरे । आपे परमानंद ॥६॥अंगुठे अमृत वसे । ल ब्धि तणा नंमार ॥ जे गुरु गौतम समरियें । मन वं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बितफल दातार ॥ ७ ॥ श्रीजिन युग पदकमलमें । मु ज मन अलिय वसाय ॥ कब कगेवो दिनकरु । श्री मुख दरिसन पाय ॥ ॥ प्रणमी पदपंकजननी। अ रिगंजन अरिहंत ॥ कथन करुं हवे जीवनु । किंचित मुज विरतंत ॥॥ अंजनाकी देशी ॥ ढुं अपराधि अ नादिको । जनम जनम गुना किया नरपूर के ॥ बूं टीयां प्राण बकायनां । सेवियां पाप अढारां करूरके ॥ श्रीमुख० ॥ १० ॥ १ ॥आज तांइननवमें पहे लां संख्याता असंख्याता अनंता नवमें, कुगुरु कुदेव अरु कुधर्मकी सदहणा परूपना फरसना सेवनादिक संबंधी पाप दोष लाग्या ते मिहामि उक्कडं ॥२॥ मैनें अ झानपणे मिथ्यात्वपणे अव्रतपणे कषायपणे अशुन योगें करी प्रमादें करी अपबंदा अविनीतपणां कस्खां ॥३॥ श्री श्रीअरिहंत जगवंत वीतराग केवल ज्ञानी महाराजजीकी श्री गणधरदेवजीकी आचारजमहारा जजीकी श्री धर्माचारजजी महाराजजीकी श्री नपा ध्यायजीकी,अने साधुजीकी आर्याजी महाराजकी श्रा वक श्राविकाजीकी समदृष्टि साधर्मि उत्तम पुरुषांकी शास्त्र सूत्रपातकी अर्थ परमार्थकी धर्मसंबंधि सकल पदार्थोकी अविनय अनक्ति आशातनादिक करी, क Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) राइ अनुमोदी मन वचन कायायें करी व्यथी क्षेत्र थी कालथी नावथी सम्यक् प्रकारे विनय नक्ति श्रा राधना पालना फरसना सेवनादिक यथायोग्य अनु क्रमें नही करी, नहि करावी, नहिं अनुमोदी ते मुजे धिक्कार धिक्कार, वारंवार मिहामि उक्कडं ॥ मैरी नूल चूक अवगुन अपराध सब माफ करो बदो मुजे में खमा, मन वचन कायायें करी॥ ॥दोहा॥ ॥में अपराधी गुरु देवको । तीन नवनको चोर॥ ग्गुं विराणा मालमें । हाहा कर्म कठोर ॥ १॥ कामी कपटी लालची। अपलंदा अविनीत ॥ अविवेकी को धी कठिण । महापापी रणजीत ॥ २ ॥ (अांही वा चनारे आप आपका नाम कहेना.) जे में जीव वि राधिया । सेव्यां पाप अढार ॥ नाथ तुमारी साख सें । वारं वार धिक्कार ॥ ३ ॥ मैनें बकायपने बही कायकी विराधना करी। पृथिवीकाय अपकाय तेल काय वायुकाय वनस्पतिकाय यि तेंख्यि चौरिंघिय पंचेंघिय सन्नी असन्नी गर्नज । चौदे प्रकारे समूर्डि म प्रमुख त्रस थावर जीवांकी विराधना करी करावी अनुमोदी मन वचन कायायें करी उठतां बेसतां सु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) वतां हालता चालतां शस्त्र वस्त्र मकानादिक उपकर में करी उठावतां धरतां लेतां देतां वर्ततां वर्तावतां अप्पडिलेहणा उप्पडिलेहणा संबंधि अप्रमार्जना कुःप्रमार्जना संबंधी अधिकी बी विपरीत पुंजना प डिलेहणा संबंध। और आहार विहारादिक नाना प्र कारका घणा घणा कर्तव्योमा संख्याता असंख्याता अने निगोद बाश्रयी अनंता जीवका जितना प्राण लूंट्या ते सर्व जीवांका में पापी अपराधी हुँ। निश्चे करी बदलाका देणहार हूं, सर्व जीव मुजप्रतें माफ करो मेरी नूल चूक अवगुन अपराध सब माफ करो देवसी राइसी परकी चौमासी अने सांवत्सरिक संबं धि वारं वार मिहामि मुक्कडं वारं वार में खमा बुं. तुमें सर्वे खमजो. खामे मि सत्वजीवा, सचे जीवा ख मंतु मे ॥ मित्ति में सब नूएसु, वेरं मऊं न केण ॥ ॥ १ ॥१॥ वो दिन धन्य होवेगा जिस दिन में बही कायका वैर बदलासें निवर्तुंगा । सर्व चोराशी लाख जीवायोनिकू अनयदान देनंगा सो दिन मैरा परम कल्याणका होवेगा ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ सुख दीया सुख होत है । फुःख दिया उख Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) होय ॥ याप हणे नहीं अवरकूं । श्रापकुं हणे न कोय ॥ १ ॥ इति ॥ ॥ दूजा पाप मृषावाद सो जूठ बोल्या ॥ को धवरों मानवरों मायावरों लोनवरों हास्यें करी जय वरों इत्यादि मृषा वचन बोल्या || २ || निंदा विकथा क कर्कश कठोर मरमकी भाषा बोली इत्यादिक अ नेक प्रकारें मृषावाद जूठ बोल्या बुलाया बोलतांनें नुमोद्या सोमन वचन कायायें करी ॥ मिठामि डुक्कर्ड ॥ दोहा ॥ ॥ थापन मोसा मैं किया । करी विशवास घात ॥ 1 परनारी धन चोरिया । प्रगट कह्यो नहीं जात ॥ १ ॥ ते मुजे धिक्कार धिक्कार । वारं वार मिठामि डक्कडं ॥ वो दिन धन्य होवेगा जिस दिन सर्वथा प्रकारें मृषा वादका त्याग करूंगा, सो दिन मैरा परम कल्याण रूप होवेगा ॥ २ ॥ त्रीजा पाप प्रदत्तादान है, सो अदीधी वस्तु चोरी करीने लीनी ते मोटकी चोरी लौकिक विरुद्ध, अल्प चोरी घर संबंधि नाना प्रकार का कर्त्तव्योमें उपयोग सहित तथा विना उपयोगें अदत्तादान चोरी करी कराइ करतानें अनुमोदी मन वचन कायायें करी तथा धर्म संबंधी ज्ञान, दर्शन, चा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) रित्र अरु तपकी श्रीनगवंत गुरु देवोंकी अण बाझा बिणायें कस्या ते मुजे धिक्कार धिक्कार वारंवार मिना मि उक्कडं । सो दिन मैरा धन्य होवेगा जिस दिन सर्व था प्रकारें अदत्तादानका त्याग करुंगा वो दिन मैरा पर म कल्याणका होवेगा ॥३॥ चोथा मैथुन सेवने विषे मन वचन अरु कायाका योग प्रवर्तीया,नव वाड स हित ब्रह्मचर्य नही पाल्या, नव वाडमें अशुभ पणे प्र वृत्ति दुश्,आप सेव्या अनेरा पास सेवाया,सेवतां प्र त्य नला जाण्या, सो मन वचन कायायें करी मुजे धिक्कार धिक्कार वारं वार मिनामि उक्कडं ॥ वो दिन मैरा धन्य होवेगा जिस दिन में नववाड सहित ब्रह्म चर्य शील रत्न धाराधुंगा. सर्वथा प्रकारे कामविकार सें निवागा. सो दिन मैरा परम कल्याणका होवेगा ॥४॥ पांचमा परिग्रह सो सचित्त परिग्रह तो दा स दासी उपद चनपद प्रमुख मणि पबर प्रमुख अ नेक प्रकारका है अरु अचित्त परिग्रह जो सोना रू पा वस्त्र आनरण प्रमुख अनेक वस्तु है तिनकी म मता मूळ आपणात करी, क्षेत्र घर आदिक नव प्र कारका बाह्य परिग्रह अरु चौद प्रकारका अन्यंतर प रिग्रहकों राख्यो रवायो राखताने अनुमोद्यो तथारा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिनोजन अनद आहारादि संबंधि पाप दोष सेव्या ते मुजे धिक्कार धिक्कार वारंवार मिहामि उक्कडं ॥वो दिन मैराधन्य होवेगा जिस दिन सर्वप्रकारें परिग्रहका त्या ग करी संसारका प्रपंचसेंती निवर्तुंगा सो दिन मैरा परम कल्याण रूप होवेगा ॥५॥ क्रोध पापस्था नक सो क्रोध करीनें अपनीयात्माकू और परमात्मा कू तपाइ॥६॥ तथा सातमा मान ते अहंकार नाव याण्या । तीन गारव आरमदादिक कस्या ॥॥ तथा पाठमा माया पापस्थानक ते धर्म संबंधि तथा सं सार संबंधि अनेक कर्त्तव्योमें कपटाई करी ॥ ७ ॥ तथा नवमुंलोन ते मूळ नाव आण्यो । बाशा तृमा वांगदिक करी॥ए ॥ तथा दशमो राग ते मनगम ति वस्तुगुं स्नेह कीधा ॥ १० ॥ तथा अगीयारमो शेष ते अणगमती वस्तु देखीने देष कस्यो ॥ ११ ॥ तथा बारमुं कलह ते अप्रशस्त वचन बोलीने क्वेशन पजाव्या ॥ १॥ तथा तेरभु अन्याख्यान ते अडतां बाल दीनां ॥ १३॥ तथा चौदमुं पैशून्य ते पराई चुगली कीनी ॥ १४ ॥ पन्नरमुं परपरिवाद ते पराया अवगुणवाद बोल्या बोलाव्या अनुमोद्या ॥ १५ ॥ शोलमुं रति अरति ते पांच इंश्योना वीश विषय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) ॥ २४० ॥ विकार तेमां मनगमती राग को अणगमतीचं द्वेष कस्यो तथा संयम तप व्यादिकने वि षे रति करी कराइ अनुमोदी तथा प्रारंभादिक अ संयम प्रमादमां रति नाव कया कराया अनुमोद्या ॥ १६ ॥ सन्तरमुं मायामोसो पापस्थानक सो कपट सहित जूठ बोल्या ॥ १७ ॥ दारमुं मिथ्यादर्शन श व्य सो श्री जिनेश्वर देवके मार्गमें शंका कंखादिक वि परीत प्ररूपणा करी कराइ अनुमोदी ॥ १८ ॥ इत्यादि क इहां टार पापस्थानोंकी यालोयणा सो विशेष वि स्तारें आपसे बने जिस मुजब कहनी ॥ एवं प्रढार पा पस्थानक सोइव्यथकी क्षेत्रथकी कालयकी नावथकी जानतां जानतां मन वचन अरु कायायें करी सेव्यां सेवराव्यां अनुमोद्यां यर्थे नर्थे धर्मार्थे कामवरों मोहवशें स्वरों परवरों दीयावा राश्वा एगोवा परि सागवा सूतेवा जागरमाऐवा इननवमें पहेलां सं ख्याता संख्याता अनंता जवांमें नवज्रमण करतां आजदिन तां संवत् १९३० के महाबुदि सप्तमी तां अथवा वर्त्तमान जो संवत महीना तिथि होवें सो की. इन बखत तां राग द्वेष विषय कषाय खा लस प्रमादादिक पौलिक प्रपंच पर गुण पर्यायकी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकल्प नूल करी, झानकी विराधना करी, दर्शनकी विराधना करी, चारित्रकी विराधना करी, चारित्राचा रित्रकी तपकी विराधना करी, शुक्ष अक्षा शीत संतोष दमादिक निज स्वरूपकी विराधना करी, उपशम वि वेक संवर सामायिक पोसह पडिक्कमणा ध्यान मौ नादि नियम व्रत पञ्चरकाण दान शील तप प्रमुखकी विराधना करी, परम कल्याणकारी इन बोलोंकी आ राधना पालनादिक मन वचन अरु कायासें करी न ही, करावी नही, अनुमोदी नही ॥ बही यावश्यक सम्यक प्रकारे विधि नपयोग सहित आराध्या नही, पाव्या नही, फरस्या नही, विधि उपयोगरहित निरा दरपणे कस्या, परंतु यादर सत्कार नाव नक्ति सहि त नहीं कस्या, झानका चौद, समकेतका पांच, बा रां व्रतका शात, कर्मादानका पंदर, संलेषणाका पांच, एवं नवाणु अतिचारमाहे तथा १२४ अतिचारमा हे तथा साधुजीका १२५ अतिचार मांहे तथा बाव न अनाचिरणका श्रधानादिकमें विराधनादिक जे को अतिकम व्यतिक्रम अतिचारादि सेव्या सेवाया अनुमो द्याजानतां अजानतां मन वचन कायायें करी ते मुजे धिक्कार धिक्कार वारंवार मिजामि मुक्कडं. मैने जीवळू . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) अजीव सहह्या प्ररूप्या, अजीवकू जीव सहह्या प्ररू प्या, धर्मकू अधर्म अरु अधर्मकुं धर्म सह्या प्ररूप्या तथा साधुजीकों असाधु और असाधुकों साधु सद ह्या प्ररूप्या, तथा उत्तम पुरुष साधु मुनिराज महास तियांजीकी सेवा नक्ति यथाविधि मानतादिक नही करी.नही करावी, नहीअनुमोदी तथा असाधुवांकी सेवा नक्ति आदिक मानता पद कस्या. मुक्तिका मार्ग में संसारका मार्ग यावत् पञ्चीश मिथ्यात्व माहेला मिथ्यात्व सेव्या सेवाया अनुमोद्या मनेंकररी, वचनें करी, कायायेंकररी, पञ्चीश कषायसंबंधी, पच्चीश क्रिया संबंधि, तेत्रीश बाशातना संबंधि, ध्यानका उगणीश दोष, वंदनाका बत्रीश दोष, सामायिकका बत्रीश दोष, पोसहकाअढारा दोष, संबंधिमनें वचने कायायेंकरीजे कां पाप दोष लाग्या लगाया अनुमोद्या ते मुजे धि कार धिक्कार वारंवार मिहामि कुक्कडं ॥ महामो हनीय कर्मबंधका त्रीश स्थानककों मन वचन अरु कायासे सेव्या सेवाया अनुमोद्या, शीतकी नव वा डपाठ प्रवचन माताकी विराधनादिक तथा श्रावक का एकवीश गुण अरु बारा व्रतकी विराधनादि मन वचन यो कायासेंकरी करावी अनुमोदी तथा तीन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) अशुन लेश्याका लक्षणांकी अरु बोलांकी सेवना क री, अरु तीन गुन लेश्याका लक्षणांकी अरु बोलांकी विराधना करी, चर्चा वार्ता नगेरामें श्रीजिनेश्वर देवका मार्ग लोप्या गोप्या, नही मान्या, अबताकी थापना करी प्रवर्तीयां; बताकी थापना करी नही,थ रु अबताकी निषेधना नही करी, बताकी थापना अ रु अबताकी निषेधना करनेका नियम नही कस्या,क खूषता करी तथा प्रकारे झानावरणीय बंधका बो त: ऐसेंही प्रकारका दर्शनावरगाय बंधका बोल यावत् आठ कर्मकी अगुन प्रकृतिबंधका पचावन का रणें करी ब्यासी प्रकति पापांकी बांधी बंधाइ अनु मोदि मनेंकरी वचनेकरी कायायेंकरी ते मुजे धिक्का र धिक्कार वारंवार मिहामि उक्कडं ॥ एक एक बो लसें लगा कर कोडाकोडी यावत् संख्याता असंख्या ता अनंता अनंता बोल तांई में जो जाणवा योग्य बोलकों सम्यक प्रकारे जान्या नहीं, सरध्या प्ररूप्या नही तथा विपरीतपणे श्रदानादिक करी करा अनु मोदि मन वचन कायायेंकरी ते मुजे धिक्कार धिक्का र वारंवार मिजामि उक्कडं ॥ एक एक बोलसें याव त् अनंता बोलमें गमवा योग्य बोलकों बांमया नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) उनको मन वचन कायायें करके सेव्या सेवाया अ नुमोद्या सो मुजे धिक्कार धिक्कार वारंवार मिहामि उक्कडं ॥ एक एक बोलसें लगा कर जाव अपंता अ पंता बोलमें आदरवा योग्य बोल आदस्या नहीं, आ राध्या पाल्या फरस्या नहीं, विराधना खंमनादिक के री करा अनुमोदि मन वचन कायायेंकरी ते मुजे धिक्कार धिक्कार वारंवार मिजामि उक्कडं ॥ श्रीजिन नगवंतजी महाराज आपकी आझामें जो जो प्रमा द कस्या, सम्यक् प्रकारे उद्यम नहीं कस्या, नहीं करा या, नहीं अनुमोद्या, मन वचन काया करकें अथवा अनाज्ञा विषे उद्यम कस्या कराया अनुमोद्या एक करके अनंतमे नाग मात्र दूसरा कोई स्वप्नमात्रमें नी श्रीनगवंत महाराज आपकी आझाद्यं अधिका बा विपरीत पणे प्रवत्यो हुँ ते मुजे धिक्कार धिक्कार वारंवार मिजामि उक्कडं ॥ ॥दोहा॥ ॥ अक्षा अक्ष परूपणा । करी फरसना सोय ॥ अनजाने पदपातमें। मिजा उक्कड मोय ॥ १॥ सूत्र अर्थ जानुं नहीं । अल्पबुद्धि अनजान ॥ जिननाषि त सब शास्त्रका । अर्थ पाठ परमान ॥२॥ देव गुरु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) 1 धर्म सूत्रं । नवतत्त्वादिक जोय ॥ अधिका डंडा जे कह्या । मिठा डक्कड मोय ॥ ३ ॥ दूं मगसेलीयो हो रह्यो । नहीं ज्ञान रस नीज ॥ गुरु सेवा न करीश कुं । किम मुज कारज सीऊ ॥ ४ ॥ जाने देखे जे सु ने । देवे सेवे मोय ॥ अपराधी उन सबनको । बदला देनुं सोय ॥ ५ ॥ गवन करूं बुगचारतन । दरव नाव सब कोय ॥ लोकनमें पगगट करूं । सूईपाई मोय ॥ ६ ॥ जैनधर्म शुद्ध पायकें । वस्तुं विषय कषाय ॥ एह यचना हो रह्या । जलमें लागी लाय ॥ ७ ॥ जि तनी वस्तु जगतमे । नीच नीचसें नीच ॥ सबसें में पापी बुरो । फसुं मोहके बीच ॥ ८ ॥ एक कनक य रु कामिनी। दो महोटी तरवार ॥ उठ्यो यो जिन नजनकूं । बिचमें लीयो मार ॥ ए ॥ ॥ सवैयो कवित्त ॥ ॥ में महापापी बांके संसार बार बारहीका वि हार करूं खागला कुछ धोय कीच फेर कीचबिच रहुं विषय सुख चारु मन्न प्रभुता वधारी है ॥ करत फ की ऐसी मिरीकी प्रास करूं । काहेकुं धिक्कार सि र पगड़ी उतारी है ॥ १० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) ॥ दोहा ॥ ॥ त्याग न कर संग्रह करूं । विषय वचन जिम थाहार ॥ तुलसीए मुज पतितकें। वारवार धिक्कार ॥ ११॥ राग शेष दो बीज है। कर्मबंध फल देत ॥ इनकी फांसी में बंध्यो। बूटुं नहीं अचेत ॥ १२॥ रतन बंध्यो गाडी विषे । नाण बिप्यो घनमोदि । सिंघ पिंजरामें दीयो । जोर चले कबु नांहिं ॥१३॥ बुरो बुरो सबको कहे। बुरोन दीसे कोय ॥ जो घट शोधुं आपनो । तो मोसुं बुरो न कोय ॥ १४ ॥ का मी कपटी लालची। कठण लोहको दाम ॥ तुम पा रस परसंगथी। सुवरन था\ स्वाम ॥ १५॥ ॥ श्लोक ॥ ॥ मैं जपहीन हुँ तपहीन हुँ।प्रनु हीन संवर स मगतं ॥ हे दयाल कपाल करुणानिधि । आयो तुम शरणागतं ॥ प्रजु आयो तुम शरणागतं ॥ १६ ॥ ॥दोहा॥ ॥ नहीं विद्या नही बचन बल । नहीं धीरज गु न ग्यान ॥ तुलसीदासगरीबकी। पत राखो जगवान ॥ १७॥ विषय कषाय अनादिको। नरियो रोग थ गाध ॥ वैद्यराज गुरु शरनथी । पालं चित्त समाध ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) ॥१७॥ कहेवामें आवे नहीं। अवगुण नरियो अनं त ॥लिखवामें क्युंकर लखुं । जाणोश्रीनगवंत ॥१॥ बात कर्म प्रबल करी । जमियो जीव अनादि ॥ आठ कर्म वेदन करी। पावे मुक्ति समाधि ॥ २०॥ पथ कुपथ कारन करी। रोग हानवृद्धि थाय ॥ श्म पुण्य पाप किरिया करी। सुख दुःख जगमें पाय ॥११॥ बांध्या विण नुक्ते नहीं । विण नुक्त्यां न टाय ॥ यापही करता नोगता। आपें दूर कराय ॥ १२ ॥ सुसायासें अविवेकहूं। आंख मीच अंधियार ॥ मक डी जाल बिबाय के। फसुं बाप धिक्कार ॥ २३ ॥ सब नरिक जिम अग्नि हुँ । तपियो विषय कषाय ॥ अवबंदा आविनीत मे। धर्मी ठग कुःखदाय ॥ २४ ॥ काहा नयो घर बमके । तज्यो न मायासंग ॥ना गत्यजी जिम कांचली। विष नही तजियो अंग॥२५॥ बालस विषय कषाय वश । पारंन परिग्रह काज ॥ योनि चोराशी लख जम्यो । अब तारो महाराज ॥ ॥ २६ ॥ आतम निंदा शुभ जणी। गुणवंत वंदन ना व ॥ राग क्षेष उपशम करी। सबसें खमत खमाव ॥२७॥ पुत्र कुपात्रज में दू । अवगुण जयो अनं त ॥यादित वृक्ष विचारकें । माफकरो नगवंत ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) शासन पति वर्षमानजी। तुम लग मैरी दोड ॥ जैसे समुह जहाज विण । सूजत और न ठगेर ॥ २ ॥ नवन्रमण संसार कु:ख । ताका वार न पार ॥ निर्लो नी सतगुरु बिना। कवण उतारे पार ॥ ३०॥ नव सागर संसारमे। दीपा श्री जिनराज ॥ उद्यम करी पोहोचे तीरें। बेठी धरम जहाज ॥ ३१ ॥ पतित उ पारन नाथजी। अपनो बिरुद विचार ॥ नूल चूक सब माहरी। खमीयें वारं वार ॥ ३२ ॥ माफ करो सब माहरा । आज तलकना दोष ॥ दीन दयाल दी यो मुजे। श्रदा शील संतोष ॥ ३३ ॥ देव अरिहंत गुरु निग्रंथ । संवर निर्जरा धर्म ॥ केवली नाषित शा सतर । येही जैन मत मर्म ॥ ३४ ॥ इस अपार सं सारमें। शरन नहीं अरु कोय ॥ यातें तुम पद नग तही। नक्त सहायी होय ॥ ३५ ॥ बूटुं पिबला पाप थी। नवा न बंधु कोय ॥ श्रीगुरु देव प्रसादसें । स फल मनोरथ मोय ॥ ३६॥ आरंन परिग्रह त्यजी करी। समकित व्रत बाराध ॥ अंत अवसर आलोय कें। अनशन चित्त समाध ॥ ३७ ॥ तीन मनोरथ ए कह्या । जे ध्यावे नित्य मन्न ॥ शक्ति सार वरते स ही। पामे शिव सुख धन्न ॥ ३० ॥ श्री पंचपरमेष्टी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26) जगवंत गुरु देव माहाराजजी आपकी आग्या है स म्यक् ज्ञान दर्शन सम्यक् चारित्र तप संयम संवर नि ऊँरा मुक्तिमार्ग यथाशक्तियें गुरु उपयोग सहित था राधनें पालने फरसने सेवनेकी श्राग्या है वारंवार शु न योग संबंधि सबाय ध्यानादिक अनिग्रह नियम व्रत पच्चरकाणादि करणे करावणेकी समिति गुप्ति प्रमु ख सर्व प्रकारे वाग्या है // // दोहा // // निश्चल चित्त शुभ मुख पढत / तीन योग थिर थाय // उर्लन दीसे कायरा / हलु कर्मी चित्त नाय // 1 // अदर पद हीणो अधिक / नूल चूक कही होय // अरिहंत सि आतम साखसे / मिहामि 5 क्कड मोय // 2 // नूल चूक मिजामि उक्कडं // इति श्रावक श्रीलालाजी रणजितसिंघजी कृत बृहदालो यणा संपूर्णा // Kamalakikasikasikasikaraoke // इति बृहदालोयणा समाप्त // श्र० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only