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(५) श्री आवत रुके। तपस्या पन सरूप ॥ १२॥क मरूप मलके शुधे । चेतन चांदी रूप ॥ निर्मल ज्यो ति प्रगट नयां। केवल ज्ञान अनूप ॥ १३ ॥ मूसी पावक सोहगी। फूंकांतनो उपाय ॥ राम चरण चारु मल्यां । मैल कनकको जाय ॥ १४ ॥ कर्मरूप बाद ज मिटे । प्रगटे चेतन चंद ॥ ज्ञानरूप गुन चांदनी। निर्मल ज्योति अमंद ॥ १५ ॥ राग शेष दो बीजसें । कर्म बंधकी व्याध ॥ ज्ञानातम वैराग्यसें । पावै मुक्ति समाध ॥ १६ ॥ अवसर बीत्यो जात है। अपने ब स कलु होत ॥ पुण्य बतां पुण्य होत है। दीपक दीप क ज्योत ॥ १७ ॥ कल्पद चिंतामणि । इन नवमें सुखकार ॥ ज्ञान वृद्धि इनसें अधिक । नवजुख नंज नहार ॥ १७ ॥राइ मात्र घट वध नही। देख्यां के वल ज्ञान ॥ यह निश्चय कर जानके । त्यजीयें परथ म ध्यान ॥१॥ दूजा कुबबि न चिंतियें। कर्मबंध ब तु दोष ॥त्रीजा चोथा ध्यायके । करियें मन संतोष ॥ २० ॥ गई वस्तु सौचे नही । बागम वंडा नाहि ॥ वर्तमान वर्ने सदा । सो ज्ञानी जगमांहि ॥ २१॥ अहो समदृष्टि जीवडा । करे कुटुंब प्रतिपाल ॥ अं तर्गत न्यारो रहे । ज्युं धाइ खिलावे बाल ॥ २२ ॥
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