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त वंदन नाव ॥ रागद्वेष पतला कर । सबसें खिमत खिमाव ॥१८॥ टुं पिबला पापसें । नवा न बंधु को य ॥ श्रीगुरु देव प्रसादसें । सफल मनोरथ होय ॥ १ ॥ परिग्रह ममता तजी करी । पंच महाव्रत धार ॥ अं त समय बालोयणा । करूं संथारो सार ॥ २० ॥ तीन मनोरथ ए कह्या । जो ध्यावे नित्य मन्न ॥ श क्ति सार वरते सही | पावे शिवसुख धन्न ॥ २१॥ अरिहंत देव निर्यण गुरु । संवर निर्जर धर्म ॥ केव विनाषित शासतर । एहि जैन मत मर्म ॥ २२ ॥ खरंच विषय कषाय तज । शुद्ध समकित व्रत धार ॥ जिन खाज्ञा परमान कर । निश्चय खेवो पार ॥ २३ ॥ द निकमो रहनो नही । करनो यातम काम ॥ नानो गुननो शीखनो । रमनो ज्ञान याराम ॥ २४ ॥
रिहंत सिद्ध सब साधुजी । जिन खाज्ञा धर्मसार ॥ मंगलीक उत्तम सदा । निश्वय शरणां चार ॥ २५ ॥ घडी घडी पल पल सदा । प्रभु स्मरणको चाव ॥ न रजव सफलो जो करे । दान शील तप जाव ॥ २६ ॥ ॥ दोहा ॥
॥ सिद्धां जैसो जीव है । जीव सोइ सिद्ध होय ॥ कर्म मेलका अंतरा । बूजे विरला कोय ॥ १ ॥ कर्म
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