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अर्हम्
7066 $17.997
* आत्मोन्नति-दिग्दर्शन
कर्ता
शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीविजयधर्म सूरीश्वरजी
वीरसंवत् २४३६ ।
Published and Printed by Shah Harakhel Bhurabhai at The D. A. Press, Benares
........................... वीसनगरवाला शेठ. मणीलाल गोकुलभाई तरफथी
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श्रीयशोविजय जैनग्रन्थमाला ( १०० पानानुं मासिक )
आ मासिक अमारी तरफथी कोई प्रकारनो स्वार्थ राख्या विना सं० १९६६ कार्त्तिक सुदी १ थी बहार पाडवामां आवे - छे. जेनी अंदर, न्याय, व्याकरण, काव्य, कोश, नाटक चम्पू, इत्यादि पूर्वाचार्यों कृत लुप्तप्रायः ग्रन्थो प्रसिद्ध करवामां आवेछे. आ मासिक संबंधी एतद्देशीय तेमज पाश्चात्य विद्वानोनी अनेक सहानुभूति आवेली छे. नमूना दाखल कोइने अंक मोकलवामां आवतो नथी. तेमज वार्षिक लवाजम रु-८-०-० प्रथमथीज लेवामां आवे छे. संस्कृत साहित्यना शोखीनोने बुद्धिचक्षु वधारवानो आ अपूर्व रस्तो छे.
जैनतत्त्वदिग्दर्शन- व्याख्यानना रूपमां आ हिन्दीभाषांनो ग्रन्थ शास्त्रविशारदजैनाचार्य श्रीविजयधर्मसूरिमहाराजे लखेल छे. जैनधर्मनुं संक्षेपमां स्वरूप जाणवाने अतीव उपयोगी छे.
किं.
०-४-०
लखो
शाह. हर्षचन्द्र भूराभाई धर्माभ्युदय प्रेस, अंग्रेजी कोठी बनारस सिटी ।
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अर्हम् आत्मोन्नति-दिग्दर्शन.
--438 प्रणम्य शिरसा बारं वृद्धिचन्द्रं गुरुं तथा ।
आत्मोन्नत्यभिधां व्याख्यां कुर्वे गुर्जरभाषया॥ सुशील मुनिगण, विद्या प्रवर्ग तथा सद्गृहस्थो ! __ आजे आपनी सन्मुर हुँ क्षयोपशमानुसार स्वपरना कल्याणने अर्थे आत्मोन्नति र व्याख्यान करवाने उत्कण्ठित छं. यद्यपि व्याख्याननी प्राचीन पद्धति जुदा रूपमां छे. तो पण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावने अनुसरी आ रूढि पण लाभ दायक छ तेम जाणी श्रोताजगोनी जिज्ञासा यथाशक्ति पूर्ण करवा प्रयत्न करीश. शरुमां मारे जणावq जोईए के आत्मोन्नति अर्थात् आत्मा संबन्ध । उन्नति, आत्मानुं मूल स्वरूप अथवा तो आत्माने स्वाधीन करवो ते आत्मोन्नति कही शकाय.
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[ २ ] प्रथम तो जे आत्मानी उन्नति माटे प्रयत्न करवानो छे ते आत्मा एवो कोई पदार्थज छे के नहि ते बाबतमा आस्तिक नास्तिक वच्चे मोटो विवाद छे.. ____ तमाम आस्तिक दर्शन आत्मा 'दार्थनी सत्ता अर्थात् अस्तित्व बतावे छे, त्यारे नास्तिको जडवादने मान्य करी आत्मवादने तिरस्कारे छे. जेवाके वार्वाक, सौत्रान्तिक, वैभाषिक विगेरे पञ्च महाभूतथी तथा पञ्चस्कन्ध विगेरेथी अतिरिक्त ( भिन्न ) आत्म पदार्थने मिलकुल मानता नथी. तेओमां चार्वाकोनुं मन्तव्य सामान्य रीते आ प्रमाणे छ:-"पञ्चभूतमांथी एक अभिनव (नवीन) शक्ति पेदा थायछे, जे चलनादि क्रिया को छे. जे वारे आ पञ्चभूत मांहेला एकादनी सत्ता निर्बला थायछे. त्यारे लोको मृत एटले मरी गयो एवो व्यवह र करेछे. जेम गोल, लोट, ताडी विगेरे पदार्थोना संयोगथी “मदशक्ति" पेदा थाय छे, जेम जलमांथी 'परपोटा' पेदा शाय छे, ने तेमांज लय पामे छे तेज प्रमाणे पञ्च महाभूतमांशी एक 'अमुक शक्ति' उत्पन्न थायछे, अने तेमांज पाछी लय पामे छे, तेज शक्तिने धूर्तलोको आत्मा मानी लोकोने परलोकनो भ्रम पेदा करावेछे, नरकादिनी खोटी भीति (बीक) बनावी सांसारिक सुखनो
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त्याग करावे छे, सने शियालनी माफक बापडा जीवो धूर्तांनी भ्रम जालमा फराइ उभयथा भ्रष्ट थाय छे.” इत्यादि कथन नास्तिको अथवा जडवादिओनुं छे. जडवादीओना मन्तव्य पर आपणे शान्त रीते विचारी शुं तो 'वदतो व्याघातः” ए न्याय निहालीशुं. कारणक “प्रत्यक्षमेकं चार्वाकाः" चार्वाको केवल एक प्रत्यक्ष प्रमाण नेज खीकारे छे. हवे जुओ, केवल प्रत्यक्ष प्रमाणनेज माननाना चार्वाकोने आपणे पूछाशुं के तमारा कहेवा प्रमाणे तो खर्ग, पुण्य, पाप इत्यादि, अनुमान प्रमाणथी सिद्ध थता कोइ पण पदार्थों छेज नहि, तो ते पदार्थोनो अभाव जे तमे मानो छो ते शुं प्रामाणिक छे के अप्रामाणिक ? जो ते तमारा अभावने अप्रामाणिक मानशो तो पछी ते पदार्थोनो अभाव प्रामाणिक नथी अर्थात् ते तमारू कथन अप्रामाणिक छ अर्बु सिद्ध थशे, एटले के खर्ग, पुण्य, पापादि वस्तुओनो सद्भाव सिद्ध थशे, अने हवे कदाच ते अभावने प्रामाणिक मानवा जशो तो पण दोष तमारा उपर लागेलोज छे कारण के स्वर्ग, पुण्य, पापादि परोक्ष पदार्थोनो जे अभाव तमारे सिद्ध करवो छे ते अभाव तमारा मानेला केवल प्रत्यक्ष प्रमाणथी सिद्ध थशे नहि. कारण के परोक्ष वस्तुओनो जे अभाव कहेवो ते अनुमान कर्या सिवाय कही शकायज नहि एवो न्याय छे.
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[ ४ ]
वली प्रत्यक्ष प्रमाणने पण प्रमाणभूत मानवा मां शुं प्रमाणछे ? एम ज्यारे कोई प्रश्न करशे तेवारे तमारे कांइ पण बोलवुज पडशे, तो तेनेज अनुमान प्रमाण कहेवाय छे. ज्यारे आ प्रमाणे तमाराज मन्तव्यमांथी अनुमान प्रमाण अनायास सिद्ध थशे त्यारे आस्तिकोए मानेला आत्माना अस्तित्वनो निषेध करवा बेनशीब बनशो हवे पञ्चभूतथी आत्मानी उत्प-: त्ति माननार ने पूछीशुं के एक साथ पांच महाभूतोथी आत्मानी पेदाश मानो छो के एक एकथी अलग अलग ? जो कहेशो के पांचेथी; तो विलक्षण गुणवाळा अने विलक्षण स्वभाववाळा एवा पांच महाभूतोथी ( पृथ्वी, जल, अभि, वायु, अने आकाशथी ) आत्मानी उत्पत्ति सिद्ध थशे नहि, कारण के कारणने अनुकूल कार्य थाय छे एवा सामान्य नियम छे. कदाच साहसी बनी बोलशो के पांचेना समुदायथा विलक्षण स्वभाववाळो अने गुणवाळो आत्मा पेदा थशे, तो अमे पूछीशु के पांच अगर दश जातनी वेलुमांशी तेल शा माटे पेदा नहि थाय ? भाई ! कारणथी विलक्षण कार्य थतुं नथी. कदाच कहीश के कारणथी विलक्षण कार्य दृष्टिगोचर थाय छे अने तेना दृष्टान्त तरीके पाणीथी मोतीनी उत्पत्ति थायछे एम कहीश, परन्तु आ तारूं दृष्टान्त ठीक नथी. कारणके झवेरीनी
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[ ५ ] पेढी उपर जइ अनुभव लईश तो मालूम पडशे के मोतीना पैसा अर्थात् तेनी उत्कृष्टता अपकृष्टता पाणी उपरज आधार राखे छे. तेथी पण जेवू पाणी रूप कारण तेवू कार्य सिद्ध थयु. कारणना गुणों कार्यमां आवेछे, तेथी एम पण अनुमान थइ शके छे के ज्ञान विज्ञानादि गुणोवाळो आत्मा कदी पण पांच जडभूतोथी गनेलो नथी. हवे कदाच पांच भूतोमांना एक एकथी आल्मानी उत्पत्ति मानीश तो सुतरां खण्डित छो, कारणके पांच भूतोना समुदायथी आत्मा सिद्ध थयो नहि तो अमुक एक एक महाभूतथी केवी रीते सिद्ध थशे ? कदाच वधारे जुस्मामां आवीने साबित करवानी चेष्टा करीश. तो पांच आत्मा सिद्ध थशे. तेवारे कोनाथी कार्य लईश? इत्यादि विवेक दाटथी विचारीशु तो सुख दुःखने जाणनार स्मृति विगेरे गुणसंपन्न आत्मापदार्थ अनुभव सिद्ध छे तथा . कुशाग्रबुद्धि तत्त्ववेत्ताओए अनुमान प्रमाणथी सिद्ध करेलो छे. ज्यारे आत्मा पदार्थ साबित थाय छे त्यारे पुण्य पापनो संबन्ध पण स्वतः सिद्ध छे, ज्यारे पुण्य पाप छे तो परलोकने माटे तो कहेवूज ? हवे ज्यारे परलोक सिद्ध छे तो जरूर आत्मिक नरवरोए आत्मानी ओळखाण करवी उचित छे. दरेक दर्शनकारो आत्मासिद्धि माटे मोटो प्रयत्न कयों छे,
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पोताना क्षयोपशम प्रमाणे आत्मानुं स्वरूप बनाव्युं छे, त्यारे जैन शास्त्रकारोए अतीन्द्रिय ज्ञानद्वारा बरावर मनन करी लोकोपकार माटे आत्मानुं यथार्थदर्शन कराव्यु छे, तेनी अन्दरथी हुं लेशमात्र आप श्रोताजनो समक्ष रजु करीश.
द्रव्यार्थिक नयनी अपेक्षाए, अज, अविनाशी, अचल, अकल, अमल, अगम्य, अनामी, अरूपी, अकर्मा, अबन्धक, अयोगी, अभोगी, अरोगी, अभेदी, अच्छेदी, अवेदी, अखेदी, अकषायी, असखायी, अलेशी, अशरीरी, अनाहारी, अव्याबाध इत्यादि अनेक बिरुदधारक सच्चिदान्दम्य आत्मा छे, परन्तु पर्यायार्थिक नयनी अपेक्षाए जन्म, जरा, मरणादि व्यपदेशने सेवन करतो छतो उपर कहेला विशेषणोथी विपरीत लक्षणवाळो भासे छे, आ विपरीतता तेने अनादिकाळथी लागेला कर्मोने लइने थयेली छे, अर्थात् कर्मोए तेने [आत्माने ] पोताना मूळ वरूपथी भ्रष्ट कर्यों छे. ते कर्मना मूळ आठ भेद छे, उत्तर भेद सामान्य रीते एकसो ने अठावन छे. ते कर्मनी वर्गणाओ विगेरे पर ध्यान दइशुं तो एक एक आत्माना प्रदेश उपर अनन्त कर्मना दळीआ लागेला छे. ते कर्मवर्गण ओनी अन्दर निरन्तर प्रति समय राग द्वेषादिनी न्यूनाधिकत ना प्रमाणमां
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[ १७ ]
परस्पर बाधा रहित छतां ठीक लागे नहि, माटे श्रद्धासहित ज्ञानने सम्यक्ज्ञान बतावेल छे, ते सम्यक्ज्ञानना महिमानुं वर्णन शास्त्रमां अनेक स्थळे करेलुं छे. तेमांथी वानकी रूप एक श्लोक अहीं प्रदर्शित करूं,
भवविटपिसमूलोन्मूलने मत्तदन्ती जडितिमिरनाशे पद्मिनीप्राणनाथः । नयनमपरमेतद् विश्वतत्त्वप्रकाशे करणहरिणबन्धे वागुरा ज्ञानमेव ॥
अर्थः - संसार रूप वृक्षने मूळ सहित उखेडी नाखवामां मदोन्मत्त हाथी समान, मूर्खता रूप अंधकारनो नाश करवामां सूर्य समान व समस्तजगत्ना तत्त्वोनो प्रकाश करवामां त्रीजुं नेत्र तथा इंद्रिय रूप हरिणोने वश करवामां वागुरा (पाश) समान ज्ञानज छे.
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सम्यक्ज्ञान रूप प्रथम रत्न कह्या बाद बीजुं रत्न सम्यक् दर्शन छे. जेना विना जीवनुं कदी कल्याण थनार नथी. तेनाज जोरथी अनीज कृपाथी अनंत जीवो शिवमन्दिरमां बीराज्या छे, बाराजे छे अने बीराजशे आंक विनानुं बिंदु जेम व्यर्थ छे, अर्थात् संख्या बनावी शकतुं नथी. तेम सम्न्य
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[ १८ ] क्त्व रस्न सिवाय तमाम क्रियाकांड व्यर्थ छे. मनना विकस्पो जेम क्रिया विना व्यर्थ छे तेमज तत्त्वश्रद्धान रूप सम्यग्द. र्शन विना ,धर्मध्यान , दान , शील , तप , * वादि व्यर्थ छे , अर्थात् मोक्षना हेतु थता नथी. विना श्रयः । कोइ कार्य ठीक थइ शकतुं नथी, तो मोक्ष मेळववा रूप महान् कार्यनी तो वातज शी ? जिनोक्त तत्त्वमा रुचि तेनुं नामज श्रद्धान , तेज सम्यक्दर्शन अथवा सम्यक्त्व कहेवाय छे. जेम रत्नोनो आधार समुद्र छे , प्राणी मात्रनो आधार पृथ्वी तेम समस्त गुणोनो आधार सम्यक् दर्शन छे. जे जीवना दय मंदिरमां श्रद्धान रूप दीपक प्रगट्यो छे. तेना हृदयमां व दी मिथ्यात्व रूप अंधकार रहेनार नथी.
सम्यक्त्व रत्ननी प्राप्ति गुरुना उपदेशथी अथवा तो कोइने स्वाभाविक थाय छे. अनादि संसारचक्रमां भमतां जीव अकाम निर्जराना योगे नदीपाषाण न्यायवडे क नेि ( नदीमां रहेल पाषाणने कोइ घडतुं नथी परंतु खयमेव ।ळाकार बनेछे तेम) अनुपयोगभावथकी अशुभ कर्मनो योजो घटावी शुभ कर्मने वधारतो वधारतो आर्यक्षेत्र, उत्तम कुल, पंचेंद्रियपटुता , सद्बुद्धि , शास्त्रश्रवण, तत्त्व- अन्वेषण विगेरे गुणोने प्राप्त करे छे. केटलाक जीवोने गुरुनो जो। मळेछे, गुरु
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[ १९ ] उपदेशथी जीव , अजीव , पुण्य , पाप , आश्रव , संवर, निर्जरा , बंध , मोक्ष रूप तत्वाधिगम थाय छे. तत्त्व- ज्ञान थवाथी स्वपरनो ।ववेक थायछे एटले एम समजे छे जे मारो आत्मा ज्ञान , र र्शन , चारित्र , वीर्यादि गुणोथी भरपूर छे अने बीजा पदार्थो आत्माथी व्यतिरिक्त (भिन्न ) छे के जेनो व्यवहार जड पुद्र लादि शब्दोथी करवामां आवेछे. जेटला दृश्य पदार्थो छे ते वधा पौद्गलिक छे, तेमां केटलाएक दृश्य गुणवाळा छतां चर्मचक्षुवाळा जीवो जोइ शकता नथी. दाखला तरीके परमाणु विगेरे असल दृश्य स्वभावी छे. जो तेम न होय तो परमाणुपुंजी बनेल अवयवी, प्रत्यक्ष थाय नहिं. जडना संबंधथी अत्मा तद्रूपताने कोइक अंशे पामेल छे. दृष्टान्त तरीके सुवर्ण द्रव्य जेम स्वच्छ छतां मृत्तिका (माटी) ना संयोगथी तद्प मालूम पडेछे. सुवर्ण उपरनो मृत्तिका रूप मेल दूर थवाथी जेम तेना स्वरूपर्नु भान आबाल गोपालने ते करावे छे, तेम आ मा उपरनो कर्मरूपी महा. मलीन मेल दूर थवाथी आत्मा , परमात्मानी दशा मेळवे छे. वर्तमान दशामां आत्मा स्फटिक रत्ननी उपमाने लायक छे. जेम स्फटिक रत्ननी सामे जेवा रंगानुं पुष्प राखशो, तेवो रंग स्फटिकमां मालूम पडशे, तेमज आप गो आ छद्मस्थोनो आत्मा जेवी सोबत
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[ २० ] मां पड़शे , तेवा रंग ढंग वाळो मालूम पडली. आस्तिकोनी संगतथी आस्तिक गुणवाळो जणाशे , नास्तिकोनी सोबतथी नास्तिक बनशे , जडवादि पुरुषोना सहवासर्थ' जडवाद स्वीकारशे , तेमज स्त्री , धन, पुत्रादिना संसर्गमां दधीन मालूम पडशे, गुरु आदिना परिचयमां आववाथी तेको बुद्धिवाळो भासशे... आ वात अनुभवसिद्ध छे. तेनो यथास्थित विचार करवो, तेनु नाम स्वपरनो विवेक कहेवामां आवेछे , तथा तेवाज विवेकने श्रद्धा अथवा तत्त्वरुचि किंवा सम्यक्त्व एवा नामथी शास्त्रकारो पोकारेछे. ते उपदेशथी थवावालुं सम्यक्त्व अधिगम समकित समजवू. स्वाभाविक सम्यक्त्व जीवने केवी रीते मळेछे. तेनुं टुंक वृत्तान्त अहीआं प्रकाशवानां आवे तो अयोग्य नही गणाय. समस्त जीवो यथाप्रवत्तिकरण रूप एक परिणाम विशेषना अधिकारी छे. आ यथाप्रवृत्तिकरण समये जीव आयुकर्म सिवाय बाकीना मात कर्मोनी दीर्घ स्थितिनो क्षय करी लघुस्थिति करेछे. (जे म एक जीवपरत्वे मोहनीय कर्मनी उत्कृष्ट स्थिति सित्तेर काडाकोडी सागरोपमनी छे. ज्ञानावरणीय, दर्शनावणीय , वेदनीय , तथा अंतराय कर्मनी उत्कृष्ट त्रीश कोडाकोडी सागरोपमनी स्थिति छे, नामकर्म तथा गोत्रकर्मनी वशि कोडाकोडी सागरो
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पमनी उत्कृष्ट स्थितेि जाणवी ) एटले के ते साते कर्मोंनी स्थिति एक कोडाकोडा सागरोपमथी कांइक न्यून ते वखते रहेछे, आ ( यथा प्रवृत्तिकरणरूप ) परिणामवाळो जीव संख्यात अथवा असंख्यात काळ सुधी रहेछे. आ परिणामवाळा जीव राग द्वेष रूप निबिड गांठनी पास आवेला छे. एम तत्त्वदर्शी जनो निरूपण करे छे. हवे आ स्थळेथी भव्य जीवो आत्मोन्नतिना मार्गमां आगळ वर्धछे, त्यारे अभव्यो त्यांथी पाछा हठेछे. उदाहरण तरीके लाएक पुरुषो ग्रामान्तर जता हता. तेमांथी एक बीकण
चोर जोइ त पाछो नाठो, बीजो त्यांज उभो रहयो, त्रीजो आत्मशक्तिने आगळ करी चोरनो पराजय करी ईप्सित नगरमां पहोंच्यो. तेङ प्रमाणे आ रागद्वेषनी ग्रन्थि (गांठ) रूप दे - शनी पास आवेला जीवोमांथी केटलाएक रागद्वेषरूप महाचोरना डरथी पाछा हठेछे. केटलाक अमुक काळपर्यन्त त्यांज रहेछे, एटले के यथाप्रवृत्तिपरिणाममां रहेछे, ज्यारे केटलाएक रागद्वेपने जीती अपूर्वकरणपरिणाम के जे परिणाम कोई दिवस थयेल नथी ते करी आगळ वधी ज्यां शुद्धपरिणामरूप अनेक मंदिरोनी श्रेणी रहेली छे, तेवा सम्यक्त्व शहरमां पहोंची अमूल्य चारित्र रत्ननो संग्रह करेछे. अहीं कोई शंका करशे के अभव्यो यथाप्रवृत्तिकरणरूप परिणाममां
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[ २२ ] कोण हेतुथी आवे ? तेना उत्तरमां समजवून लोक ऋद्धि देखी देवत्वादिक सुखना अभिलाषथी तेओ इव्य चारित्र खीकारे छे. तेने पौद्गलिक सुखने माटे पालेछे. अने पाळीने देवलोकमां नवमा प्रैवेयक सुधी जइ शके छे. परन्तु आत्मीय कल्याणनो अभिलाष नहिं होवाथी अभव्य जीव अपूर्वकरणरूप विशुद्ध अध्यवसायनो भागी थतो नी, ज्यारे भव्य जीव आगळ वधी अपूर्वकरणरूप रद्ध परिणामनो भागी थायछे. वळी ज्यारे जीव अपूर्वक रणरूप परशु वडे रागद्वेषनी मजबूत गांठने तोडी आगळ वधी अनिवृत्तिकरण रूप विशुद्धतर आत्मानो शुभ अध्यवसाय प्राप्त करेछे. ते वारे केटलाएक आचार्योना मत प्रमाणे औपशमिक सम्यक्त्वनी प्राप्ति थाय छे, ज्यारे केटलाक अन्य पूज्यवरोना आशय प्रमाणे क्षयोपशम सम्यक्त्वनी प्राप्ति थाय छे त्यार बार बे घडीना प्रमाण वाळु अन्तरकरण करेछे. आ अंतरकरण पग आत्मपरिणाम विशेष छे. आ अन्तरकरण वडे करीने मोहनी' कर्मनो मुख्य भेद मिथ्यात्व के जेनी स्थिति सीतेर कोडाकोडि सागरोपमनी हती ते खपावीने एक कोडाकोडि सागरोपममा पल्योपमनो असंख्यातमो भाग जे बाकी रह्यो छे, तेमाथी पण ओछी करी मिथ्यात्वना पुद्गलोने शुद्ध करेछे. अने सम्यक्त्व रत्नने.
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[ २३ ] जीव संपादन करे छे. सम्यक्त्वनी प्राप्ति वखते जीव अवर्णनीय आनन्द पामे छे. जेम कोई सुभट दुर्जय शत्रुने जीती आनन्दित थाय छे, जेम कोई माणस भयङ्कर अटवीमां तृषातुर थयो होय तेने शीतल चन्दन वृक्षनी स्निग्ध छाया तळे बेसाडा अमृतनुं पान कराववामां आवे ते वखते तेने जेवो आनन्ः थाय तेथी विशेष आनन्द सम्यक्त्ववाला जीवने थाय छे. आवी रीते जीव सम्यक्त्व पामे छे. तेनुं नाम निसर्गसमरित कहेवाय छे. सम्यक्त्व उपर कह्या मुजब बे प्रकारनां छे, अधिगम समकित अने निसर्ग समकित. बन्ने प्रकारनां सम्यक् व मिथ्यात्वभाव दूर थवाथी थाय छे. जेम कोई पुरुष मार्ग मूकी उन्मार्ग पर गयो छे ते कांइ तो भमतो भमतो पोतानी पळे मार्ग उपर आवे छे, अथवा तो कोईने बीजो माणस मार्ग उपर लावे छे. वळी जेम कोद्रव नामनुं धान्य घणा का ळे खयमेव फोतरां विनानुं थाय छे, अने केटलाकने छाण विगेरेना प्रयोगथी फोतरा विनानुं करवामां आवे छे. फटलाएकने ताव औषध विना शान्त थाय छे, ज्यारे केटलाकने औषधथी शान्त करवो पडेछे. तेज प्रमाणे केटलाएकने स्वभावथी समकित थायछे ते निसर्ग समकित अने चाजाना उपदेशथी थाय ते अधिगम सम्य
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[ २४ 1
क्त्व छे. हवे हुं अवशिष्ट चारित्र रत्ननुं वरूप बोलीशसम्यक्त्वनी प्राप्ति समये केटलाक निकटभी जीवो देशविरति तथा केटलाएक सर्वविरतीरूप चारित्रनं अङ्गीकार करे - छे. तेनी अन्दर देशविरति चारित्र द्वादत्रित रूप छे. तेनुं वर्णन करवाथी लम्बाण थशे. तेथी जैन तत्त्वदिग्दर्शन जोवा भलामण करूंछु. सर्व विरतिरूप चात्र पांच महाव्रत रूप छे -- ( १ ) प्राणातिपातविरमणत्र ( २ ) मृषावादविरमणव्रत ( ३ ) अदत्तादानविरमणव्रत ( ४ ) मैथुन विरमणव्रत तथा ( ५ ) परिग्रहविरमणत्र . आ पांच नियमोमां समस्त नियमोनो समावेश थार छे. पूर्वोक्त आस्तिक मात्रने अनुकूळ छे, एटले के तमान आस्तिकोने ते सम्मत छे. यथा श्रीहरिभद्र सूरिनुं वचन छे के:पञ्चैतानि पवित्राणि सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसासत्यमस्तेयं त्यागो मैथुनवर्जनम् ।।
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अर्थः- आ पांच वस्तुओ सर्व धर्मवाद ओने पवित्र छे. ते कई कई ? ( १ ) अहिंसा ( जीवदया ), ( २ ) सत्य, ( ३ ) अदत्त वस्तुनो त्याग, ( ४ ) त्याग एटले मूर्छा रहितपणुं (५) अने ब्रह्मचर्यनुं पालन.
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[ २५ ] __ हवे सर्व लोको तेने माटे सम्मत छे तेने सारु केटलाक श्लोको कहुंछु न सांभळोपाहुर्भागवतास्तत्र व्रतोपव्रतपञ्चकम् । यमांश्च नियमान् पाशुपता धर्मान् दशाऽभ्यधुः॥ अहिंसा सत्यवचनमस्तैन्यं चाप्यकल्पना । ब्रह्मचर्य तथाऽक्रोधो ह्यार्जवं शौचमेव च ॥२॥ संतोषो गुरुशुश्रूषा इत्येते दश कीर्तिताः। निगद्यन्ते यमाः सांख्यैरपि व्यासानुसारिभिः॥ अहिंसा सत्यमस्तैन्यं ब्रह्मचर्य तुरीयकम् । पञ्चमो व्यवहारश्चेत्येते पश्च यमाः स्मृताः॥४॥ अक्रोधो गुरुशुश्रूषा शौचमाहारलाघवम् । अप्रमादश्च पञ्चैते नियमाः परिकीर्तिताः॥५॥ बौद्धः कुशलधर्माश्च दशेष्यन्ते यदुच्यते । हिंसास्तेयान्यथाकामं पैशुन्यं परुषानृतम् ॥६॥ संभिन्नालापव्यापादमभिध्या दृगूविपर्ययाय
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[ २६ ] पापकर्मेति दशधा कायवामानसैस्त्यजेत् ॥७॥ ब्रह्मादिपदवाच्यानि तान्याहुदिकादयः ।
अतः सर्वैकवाक्यत्वाद्धर्मशास्त्रमदोऽर्थकम् ॥८॥ ____ आ श्लोकोना अन्तिम वाक्यथी सुस्पष्ट विदित थायछे जे अहिंसादि धर्मनो आदर तमामने मम्मत छे. खेदनी वात ए छे के देश अने कालना योगे विचार करीशुं तो
अहिंसा परमो धर्मः, यतो धर्मस्ततो जयः। ___ इत्यादि वाक्यनुं चरितार्थपणुं जैनथी बीजा समाजमा भाग्येज जोवामां आवशे. चारित्र धर्मनो वं कार शब्दान्तरथी तमाम आस्तिकोए करेलो छे, परन्तु वर्तमान काळमां खेच्छाचारिपणानां कारणो जेवां के मोह, ममता, राग, द्वेष, पगरखां, छडी, चाखडी, रेलगाडी, एकागाडी, गादी, तकीया विगेरे वस्तुओनो उपयोग द्रव्यना त्यागी जनमां जोवामां आवेछे. प्रमादाधीन थया छतां अहकारना जोगे सा बुताना योग विना साधुतानी स्थापना करेछे. कुयुक्तिना व्यापारवडे करीने आत्माने मलिन बनावेछे. आवा दुर्घट सम अमां जैन मुनिओ नीचे लखेला वाक्यने ध्यानमा राखी यथाशक्ति आचरण करेछे. “गृहस्थानां यद् भूषणं तत्साधूनां दूषणं " अर्थात्
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[ २७ ] गृहस्थोने जे भूषण रूप छे ते साधुने दूषणरूप छे. तथा साधुने जे भूषण छे ते गृहस्थोने दूषण छे. जेमकेकार्य क्षुत्पभवं कदनमशनं शीतोष्णयोः पात्रता पारुष्यं च शिरोरुहेषु शयनं मह्यास्तले केवलम् । एतान्येव गृहे वहन्त्यवनति तान्युन्नतिं संयमे दोषाश्चापिगुणा भवन्ति हि नृणां योग्ये पदे योजिताः
भावार्थ-योग्यस्थानमां जोडाएला दोषो पण गुणरूप थाय छे. जेमके भूखथी उत्पन थएली कृशता साधुओने भूषणरूप छे, ज्यारे गृहस्थोने ते दूषण रूप छे. लोको कहेशे के द्रव्य छां कंजुसाईथी खातो नथी, परन्तु साधुओने दुबळा जो. लोको महा तपखी कहेशे. वळी खराब अन्न खावं ते साधुओना संबन्धमा त्याग वृत्ति बतावे छे ज्यारे गृहस्थ ना संबन्धा ते कृपणतानुं सूचक छे. टाढ तडको सहन करवो ते मुनीओना संबन्धमा सहनशीलता रूप गुण थइ पडवाथी भूषण छे. तेवारे गृहस्थनी पासे गरम कपडा, जोडा, छत्री विगेरे नहिं होय तो लोको तेने दरिद्री बतावशे. केशमां लुखाइ साधुओने भूषण छे ज्यारे गृहस्थने दूषण के. वळी केवळ भूतळमां शयन साधुने निःस्पृ
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[ २८ ] हता रूप भूषण छे, परन्तु गृहस्थने तो ते दूषण रूप छे. गृहस्थाने जे अवनति रूप छे ते साधुओने उन्नति रूप छे. माटे साधुओए गृहस्थना रस्ताथी दूर रहेवुं सर्वथा उचित छे. उपर कहेली बीनाने पाळनार जैन संवेगी साधु सिवाय बीजा भाग्येज जोवामां आवे छे. जैन संवेगी साधु तो गाडी एक्कामां कदापि बेसता नथी, एटलुंज नहिं परन्तु रेलनो पण स्पर्श करता नथी. पोता पासे जे कपडा अगर काष्ठमय अथवा तुम्बपात्र तथा वांचवाना पुस्तको होय ते स्वशरीर पर राखी पगरस्ते भूपीठ उपर आ गामथी बीजे गम जायछे. वर्षा ऋतुमा चारमास सुधी एक स्थळे रहेछे. आठमास सुधी पर्यटन करेछे. भिक्षा मांगी आहार लेछे. सूर्योदयथी सूर्यास्त सुधीमां कार्यप्रसंगे स्वस्थान छोडी बहार नीकळेछे. रात्रिए बहार जता नथी. पैसानो स्पर्श करता नथी. तथा स्त्री, पशु, नपुंसक रहित स्थानमां वसेछे. स्त्रीना सहज स्पर्शने प्रायचित्तनुं कारण मानेछे. परोपकार करवामां हमेशां तैयार रहेछे. अप्रिय वचन बोलता नथी. रागद्वेष थाय वा प्रसंगनो त्याग करेछे. शत्रु अने मित्र पर समभाव राखेछ उपदेश शांत रीते आपेछे. परनिन्दा थाय तेवा तचन बोलता नथी. जे जे चीज पोतानी पासे राखेछे ते फक्त अहिंसाधर्मना पालन माटे,
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[ २९ ]
नहिं के मूर्छाशी के शरीरना सुखने माटे. इत्यादि गुणगण विभूषित जैन संवेगी मुनिओ कलिकालमं दृष्टिगोचर थाय छे. तेथी विपरीत वर्त्तनवाळा मुन्याभास शास्त्रकारोए बतावेला छे. महाशयो ! चारित्र रत्ननी व्याख्याना प्रसङ्गमां तत्संबन्धी कंइक अधिक बोल्योछु. तथापि ते अप्रसंगोपात नहिं गणाय पूर्वोक्त ज्ञान अने दर्शननी साथे चारित्र मेळवीए त्यारे त्रिपुटीनो जोग थायछे. आ सम्यक्ज्ञान, सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् चा रेत्र रूपी रत्नत्रयने भिन्न भिन्न मतानुया - यीओ पण प्रकान्तरथी मानेछे. ते वात में मोक्षमार्ग नामना निबन्धमां दर्शावेकी छे. माटे जिज्ञासुओए ते निबन्ध जोई लेवो. त्रण रत्नो सिवाय आत्मोन्नति कदापि थनार नथी. केटलाक भद्रिक जीवो विश्वासु बनी, तप, जप, ज्ञान, ध्यान, क्रियाकांड न करतां ईश्वरनी प्रार्थना मात्रथीज मोक्ष मानेछे, परन्तु ते ठीक नवी. ईश्वरे पोते केवा कष्ट सहन कर्या छे तेनो विचार बीजा दर्शनवाळा ओए सूक्ष्मदृष्टिथी करवो उचित छे. अहीं शंका उत्पन्न थशे के अनादि ईश्वर छे तेने वळी कष्ट क्यांथी ? तेना उत्तरमां जणाववानुं जे अनादि ईश्वर माननारे पण तेना अवतार मानेला छे. अवतार मान्यो त्यारे गर्भोत्पत्ति विगेरे कष्टनां कारणो अनायास सिद्ध थशे. कदाच तेना
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[ ३० ] भक्तो कहेशे के ईश्वरने तेवु कष्ट थतुं नथी तो ते कथन कथनमात्रज छे ते संबन्धे अहीं विषया त्तर थवाना भयथी विशेष नहिं बोलतां रत्नत्रय विना आत्मोन्नति थती नथी तेनुं थोडं प्रतिभान करावी मारूं कहेवू संपूर्ण करीश. श्रद्धा तथा चारित्र विनानुं ज्ञान कार्यसिद्धि करी शकतुं नथी. अमुक औषध अमुक रोगनो नाश करे तेटलं जाणवामात्र थी रोगनो नाश थशे नहिं. परन्तु क्रिवारुचिपूर्वक ते वातने अमलमां मुकवी पडशे. तेमज केवळ चारित्रथी पण कार्य सिद्ध थशे नहि. ज्ञान विना, क्रियारूप चारित्र उलटुं फळ लावशे. औषध सुन्दर छे पण अनुपान, ज्ञान नहिं होय तो ते औषध उलटुं नवो व्याधि पेदा करशे. व ही एकली श्रद्धाथी पण कार्यसिद्धि थती नथी. उद्यम तथा विचारशीलतानी खास आवश्यकता छे. श्रद्धामात्रथी कार्या पद्धि थात तो बीज केवी रीते वावq ? पेदा थशे के नहिं ', ते संबन्धी ज्ञानादिनी दरकार रहेत नहिं. आटला उपरथी गमजाइ जशे के दरेक कार्यमां आ त्रिपुटीनी जरूरीआत छे. आने माटे तत्त्वार्थ सूत्रनी बृहवृत्तिमां घणो खुलासो हं. त्यांथी जिज्ञासुओने जोई लेवा भलामण करवामां आवेडे. महाशयो! रत्नत्रय तेज समाधि, तेज योग, तेज ध्यान, अने तेज परम आत्म
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[ ३१ ] शुद्धिनुं कारण. हठयोग तात्कालिक गुण कर्ता जणाशे, परन्तु ते वास्तविक आत्मशुद्धिने आपनार नथी. मर्कट तुल्य मनने बलात्कारे बांधवाथी फायदो मात्र बन्धन समय पर्यन्त छे. त्यांथी छूटुं पडयुं के तरतज चंचळवभाव वाळु थाय छे. तेथी हठयोगमां जेवू नाम तेवा गुण छे. ज्ञान दर्शन अने चारित्रवान् पुरुषो सिवाय सहज समाधि बीजाने मळती नथी. हवे अन्तिम थोडा शब्दोथी हितोपदेश दह मारुं व्याख्यान पुरुं करीश. कर्म विना जगत् विचित्र रचना वाळु बनी शके नहिं. तथा ते कर्मनी सत्ता आत्मा विना कदापि सिद्ध थाय नहि. आत्मा कर्मकिच्चडथी मुक्त थाय के त्यारे परमात्मा गणायछे, माटे परमात्मानी उच्च दशा मेळववा हमेशां शुभ विवारनी सुन्दर पद्धतिनो स्वीकार करशो. स्वप्नान्तरमां पण जडवादीना जडवादमां मुंझाशो नहिं. वीर प्रभुना यथार्थ वचनोपर विश्वास राखजो. वैराग्य वासित अन्तःकरण वाळा थईने राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ , ईर्ष्या , अज्ञान , विषय , विकारादिनो बनती त्वराए त्याग करजो. परोपकारने स्वोपकार मानजो. आ पाठशाला (श्रीयशोविजय जी जैन बनारस पाठशाला) मां विद्याभ्यास करी जगदुद्धार मारे कटीबद्ध थजो. छेवटे धर्मलाभ साथे व्याख्या
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[ ३२ ] नमां-यत्किंचित् प्रमादाचरण थयुं होय ने माटे 'मिथ्या दुष्कृतं भवतु' एवी शासन नायक प्रति प्रार्थना करी विरमुंछु.
॥ इति शम् ॥
Timfort,
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अमारे त्यां वेचाता संस्कृत ग्रन्थोनुं लिस्ट,
--08१. प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार.
किं०-८-० २. हैमालिंगानुशासन.
-५-० ३. सिद्धहेमशब्दानुशासन.
२-८-० ४. गुर्वावली.
०-८ ५. रत्नाकरावतारिका. ६. सिद्धहेमशब्दानुशासन मूल.
०-५-० ७. जैन स्तोत्रसंग्रह प्रथम भाग.
०-६-० ८. द्वितीय भाग. ९. मुद्रितकुमुदचन्द्रप्रकरण. १०. क्रियारत्नसमुच्चय. ११. श्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनानुक्रमाणिका. १२. कविकल्पद्रुम. १३. सम्मतिताख्यप्रकरणनो प्रथम भाग. १४. श्रीजगद्गुरुकाव्य. १५. श्रीशालिभद्रचरित्र १६. श्रीपर्वकथासंग्रह. १७. षड्दर्शनसमुच्चय.
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वहेलो ते पहेलो " उपदेशतरङ्गिणी
आ संस्कृत मनोहर ग्रन्थना कर्त्ता श्रीरत्नमन्दिरगणी छे. ग्रन्थकत्ताएं तेना पांच तरङ्गो राखेला छे. तेमां दान, शील, तप, भाव, सातक्षेत्र, जिनपूजा, तीर्थयात्रा, अने धर्मोपदेश इत्यादि केटलाक अधिकारो राखेला छे. जे अधिकारोनी अन्दर म्होटा म्होटा आचार्यो उपरान्त पेथडशा, देदाशा, समराशा, वस्तुपाल, तेजपाल, जगसिंहया, विगेरे. प्रभावक श्रावकोनां वृत्तान्तो आपवामां आवेलां के
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उपरोक्त ग्रन्थ अमारां तरफथी पाना आकारे छपायहे जे थोडा दिवसमां सम्पूर्ण छपाइ बहार पडशे. दरेक भंडार लायब्रेरी, ते
माटे अि
उपयोगी
होवाथी र
प्रिय थइ पडे
NXETE
अगाउ
अने पाछलथ। एक पगार ना
नो खजान
माटे अत्यन्
रु.
३.
वामां आवशे.