SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पोताना क्षयोपशम प्रमाणे आत्मानुं स्वरूप बनाव्युं छे, त्यारे जैन शास्त्रकारोए अतीन्द्रिय ज्ञानद्वारा बरावर मनन करी लोकोपकार माटे आत्मानुं यथार्थदर्शन कराव्यु छे, तेनी अन्दरथी हुं लेशमात्र आप श्रोताजनो समक्ष रजु करीश. द्रव्यार्थिक नयनी अपेक्षाए, अज, अविनाशी, अचल, अकल, अमल, अगम्य, अनामी, अरूपी, अकर्मा, अबन्धक, अयोगी, अभोगी, अरोगी, अभेदी, अच्छेदी, अवेदी, अखेदी, अकषायी, असखायी, अलेशी, अशरीरी, अनाहारी, अव्याबाध इत्यादि अनेक बिरुदधारक सच्चिदान्दम्य आत्मा छे, परन्तु पर्यायार्थिक नयनी अपेक्षाए जन्म, जरा, मरणादि व्यपदेशने सेवन करतो छतो उपर कहेला विशेषणोथी विपरीत लक्षणवाळो भासे छे, आ विपरीतता तेने अनादिकाळथी लागेला कर्मोने लइने थयेली छे, अर्थात् कर्मोए तेने [आत्माने ] पोताना मूळ वरूपथी भ्रष्ट कर्यों छे. ते कर्मना मूळ आठ भेद छे, उत्तर भेद सामान्य रीते एकसो ने अठावन छे. ते कर्मनी वर्गणाओ विगेरे पर ध्यान दइशुं तो एक एक आत्माना प्रदेश उपर अनन्त कर्मना दळीआ लागेला छे. ते कर्मवर्गण ओनी अन्दर निरन्तर प्रति समय राग द्वेषादिनी न्यूनाधिकत ना प्रमाणमां
SR No.006110
Book TitleAtmonnati Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherShah Harakchand Bhurabhai
Publication Year
Total Pages36
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy