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नहिं के मूर्छाशी के शरीरना सुखने माटे. इत्यादि गुणगण विभूषित जैन संवेगी मुनिओ कलिकालमं दृष्टिगोचर थाय छे. तेथी विपरीत वर्त्तनवाळा मुन्याभास शास्त्रकारोए बतावेला छे. महाशयो ! चारित्र रत्ननी व्याख्याना प्रसङ्गमां तत्संबन्धी कंइक अधिक बोल्योछु. तथापि ते अप्रसंगोपात नहिं गणाय पूर्वोक्त ज्ञान अने दर्शननी साथे चारित्र मेळवीए त्यारे त्रिपुटीनो जोग थायछे. आ सम्यक्ज्ञान, सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् चा रेत्र रूपी रत्नत्रयने भिन्न भिन्न मतानुया - यीओ पण प्रकान्तरथी मानेछे. ते वात में मोक्षमार्ग नामना निबन्धमां दर्शावेकी छे. माटे जिज्ञासुओए ते निबन्ध जोई लेवो. त्रण रत्नो सिवाय आत्मोन्नति कदापि थनार नथी. केटलाक भद्रिक जीवो विश्वासु बनी, तप, जप, ज्ञान, ध्यान, क्रियाकांड न करतां ईश्वरनी प्रार्थना मात्रथीज मोक्ष मानेछे, परन्तु ते ठीक नवी. ईश्वरे पोते केवा कष्ट सहन कर्या छे तेनो विचार बीजा दर्शनवाळा ओए सूक्ष्मदृष्टिथी करवो उचित छे. अहीं शंका उत्पन्न थशे के अनादि ईश्वर छे तेने वळी कष्ट क्यांथी ? तेना उत्तरमां जणाववानुं जे अनादि ईश्वर माननारे पण तेना अवतार मानेला छे. अवतार मान्यो त्यारे गर्भोत्पत्ति विगेरे कष्टनां कारणो अनायास सिद्ध थशे. कदाच तेना