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________________ [ २६ ] पापकर्मेति दशधा कायवामानसैस्त्यजेत् ॥७॥ ब्रह्मादिपदवाच्यानि तान्याहुदिकादयः । अतः सर्वैकवाक्यत्वाद्धर्मशास्त्रमदोऽर्थकम् ॥८॥ ____ आ श्लोकोना अन्तिम वाक्यथी सुस्पष्ट विदित थायछे जे अहिंसादि धर्मनो आदर तमामने मम्मत छे. खेदनी वात ए छे के देश अने कालना योगे विचार करीशुं तो अहिंसा परमो धर्मः, यतो धर्मस्ततो जयः। ___ इत्यादि वाक्यनुं चरितार्थपणुं जैनथी बीजा समाजमा भाग्येज जोवामां आवशे. चारित्र धर्मनो वं कार शब्दान्तरथी तमाम आस्तिकोए करेलो छे, परन्तु वर्तमान काळमां खेच्छाचारिपणानां कारणो जेवां के मोह, ममता, राग, द्वेष, पगरखां, छडी, चाखडी, रेलगाडी, एकागाडी, गादी, तकीया विगेरे वस्तुओनो उपयोग द्रव्यना त्यागी जनमां जोवामां आवेछे. प्रमादाधीन थया छतां अहकारना जोगे सा बुताना योग विना साधुतानी स्थापना करेछे. कुयुक्तिना व्यापारवडे करीने आत्माने मलिन बनावेछे. आवा दुर्घट सम अमां जैन मुनिओ नीचे लखेला वाक्यने ध्यानमा राखी यथाशक्ति आचरण करेछे. “गृहस्थानां यद् भूषणं तत्साधूनां दूषणं " अर्थात्
SR No.006110
Book TitleAtmonnati Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherShah Harakchand Bhurabhai
Publication Year
Total Pages36
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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