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[ १८ ] क्त्व रस्न सिवाय तमाम क्रियाकांड व्यर्थ छे. मनना विकस्पो जेम क्रिया विना व्यर्थ छे तेमज तत्त्वश्रद्धान रूप सम्यग्द. र्शन विना ,धर्मध्यान , दान , शील , तप , * वादि व्यर्थ छे , अर्थात् मोक्षना हेतु थता नथी. विना श्रयः । कोइ कार्य ठीक थइ शकतुं नथी, तो मोक्ष मेळववा रूप महान् कार्यनी तो वातज शी ? जिनोक्त तत्त्वमा रुचि तेनुं नामज श्रद्धान , तेज सम्यक्दर्शन अथवा सम्यक्त्व कहेवाय छे. जेम रत्नोनो आधार समुद्र छे , प्राणी मात्रनो आधार पृथ्वी तेम समस्त गुणोनो आधार सम्यक् दर्शन छे. जे जीवना दय मंदिरमां श्रद्धान रूप दीपक प्रगट्यो छे. तेना हृदयमां व दी मिथ्यात्व रूप अंधकार रहेनार नथी.
सम्यक्त्व रत्ननी प्राप्ति गुरुना उपदेशथी अथवा तो कोइने स्वाभाविक थाय छे. अनादि संसारचक्रमां भमतां जीव अकाम निर्जराना योगे नदीपाषाण न्यायवडे क नेि ( नदीमां रहेल पाषाणने कोइ घडतुं नथी परंतु खयमेव ।ळाकार बनेछे तेम) अनुपयोगभावथकी अशुभ कर्मनो योजो घटावी शुभ कर्मने वधारतो वधारतो आर्यक्षेत्र, उत्तम कुल, पंचेंद्रियपटुता , सद्बुद्धि , शास्त्रश्रवण, तत्त्व- अन्वेषण विगेरे गुणोने प्राप्त करे छे. केटलाक जीवोने गुरुनो जो। मळेछे, गुरु