Book Title: Yogavidya Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 7
________________ ही योग है । अतएव ज्ञान योग का कारण है। परन्तु योग के पूर्ववर्ती जो शान होता है वह अस्पष्ट होता है। और योग के बाद होनेवाला अनुभवात्मक शान स्पष्ट तथा परिपक्क होता है। इसीसे यह समझ लेना चाहिए कि स्पष्ट तथा परिपक्क शान की एकमात्र कुंजी योग ही है। आधिभौतिक या आध्यात्मिक कोई भी योग हो, पर वह जिस देश या जिस जाति में जितने प्रमाण में पुष्ट पाया जाता है उस देश या उस जाति का विकास उतना ही अधिक प्रमाण में होता है । सच्चा ज्ञानी वही है जो योगी२ है । जिसमें योग या एकाग्रता नहीं होती वह योगवासिष्ठ को परिभाषा में शानबन्धु है। योग के सिवाय किसी भी मनुष्य की उत्क्रान्ति हो ही नहीं सकती, क्योंकि मानसिक चंचलता के कारण उसकी सब शक्तियां एक ओर न बह कर भिन्न भिन्न विषयों में टकराती हैं, और क्षीण होकर यों ही नष्ट हो जाती हैं । इसलिए क्या किसान, क्या कारीगर, क्या लेखक, क्या शोधक, क्या त्यागी सभी को अपनी नाना शक्तियों को केन्द्रस्य करने के लिए योग ही परम साधन है। व्यावहारिक और पारमार्थिक योग योग का कलेवर एकाग्रता है, और उसकी प्रात्मा अहत्व ममत्वका त्याग है। जिसमें सिर्फ एकाग्रताका ही संबन्ध हो वह व्यावहारिक योग, और जिसमें एकाग्रता के साथ साथ अहत्व ममत्वके त्यागका भी संबन्ध हो वह पारमार्थिक योग है। यदि योग का उक्त आत्मा किसी भी प्रवृत्ति में-चाहे वह दुनिया की दृष्टि में बाघ ही क्यों न समझी जाती हो-वर्तमान हो तो उसे पारमार्थिक योग ही १ इसी अभिप्राय से गीता योगी को ज्ञानी से अधिक कहती है। गीता अ०६. श्लोक ४६तपस्विभ्योऽधिको योगी शानिम्योऽपि मतोऽधिकः । कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद योगी भवार्जुन ! २ गीता अ० ५. श्लोक ५ यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते । एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।। ३ योगवासिष्ठ निर्वाण प्रकरण उत्तरार्ध सर्ग २१व्याचष्टे यः पठति च शास्त्र भोगाय शिल्पिवत् । यतते न त्वनुष्ठाने ज्ञानबन्धुः स उच्यते ॥ आत्मशानमनासाद्य ज्ञानान्तरलवेन ये। सन्तुष्टाः कष्टचेष्टं ते ते स्मृता शामबन्धवः ॥ इत्यादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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