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२५० कराया है, पर इसके विशेष परिचय के लिये- कट्लोगस् कॅटलॉगॉरम्', वो. १ पृ० ४७७ से ४८१ पर जो योगविषयक ग्रन्थों की नामावलि है वह देखने योग्य है।
यहां एक बात खास ध्यान देने के योग्य है, वह यह कि यद्यपि वैदिक साहित्य में अनेक जगह हठयोग की प्रथा को अग्राह्य कहा है, तथापि उसमें हठयोग की प्रधानतावाले अनेक ग्रन्थों का और मार्गों का निर्माण हुआ है। इसके विपरीत जैन और बौद्ध साहित्य में हठयोगने स्थान नहीं पाया है, इतना ही नहीं, बल्कि उसमें हठयोग का स्पष्ट निषेध भी किया है। योगशास्त्र--- __ ऊपर के वर्णन से मालूम हो जाता है कि-योगप्रक्रिया का वर्णन करनेवाले छोटे बड़े अनेक ग्रन्थ हैं । इन सब उपलब्ध ग्रन्थों में महर्षि पतञ्जलिकृत
१ थिआडोरे अाउमटकृत लिझिग में प्रकाशित १८६१ की आवृत्ति । २ उदाहरणार्थः - सतीषु युक्तिवेतासु हठानियमयन्ति ये। चेतस्ते दीपमुत्सृज्य विनिघ्नन्ति तमोऽअनैः ।।३७॥ विमूढाः कर्तुमुद्यता ये हठाच्चेतसो जयम् । ते निबध्नन्ति नागेन्द्रमुन्म विसतन्तुभिः ।।३।। चित्तं चित्तस्य वाऽदूरं संस्थितं स्वशरीरकम् । साधयन्ति समुत्सृज्य युक्तिं ये तान्हतान् विदुः ॥३६॥
योगवासिष्ठ-उपशम प्र. सर्ग ६२. ३ इसके उदाहरण में बौद्ध धर्म में बुद्ध भगवान् ने तो शुरू में कष्टप्रधान तपस्या का प्रारंभ करके अंत में मध्यमप्रतिपदा मार्ग का स्वीकार किया हैदेखो बुद्धलीलाहारसंग्रह। . जैनशास्त्र में श्रीभद्रबाहुस्वामिने आवश्यकनियुक्ति में 'ऊसासं ण णिसंभई' १५२० इत्यादि उक्ति से हठयोगका ही निराकरण किया है। श्रीहेमचन्द्राचार्य ने भी अपने योगशास्त्र में तनाप्नोति मन स्वास्थ्यं प्राणायामः कथितं । प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्यात् चित्तविप्लवः ।।' इत्यादि उक्ति से उसी बात को दोहराया है। श्रीयशोविजयजी ने भी पातञ्जलयोगसूत्र की अपनी वृत्ति में (१-३४) प्राणायाम को योग का अनिश्चित साधन कह कर हठयोग का ही मिरसन किया है।
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