Book Title: Yogavidya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/229043/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगविद्या प्रत्येक मनुष्य व्यक्ति अपरिमित शक्तियोंके तेजका पुञ्ज है, जैसा कि सूर्य । अतएव राष्ट्र तो मानों अनेक सूर्योका मण्डल है। फिर भी जब कोई व्यक्ति या राष्ट्र असफलता या नैराश्यके भँवर में पड़ता है तब यह प्रश्न होना सहज है कि इसका कारण क्या है ? बहुत विचार कर देखने से मालूम पड़ता है कि असफलता व नैराश्यका कारण योगका (स्थिरताका ) अभाव है, क्योंकि योग न होनेसे बुद्धि संदेहशील बनी रहती है, और इससे प्रयत्नकी गति अनिश्चित हो जाने के कारण शक्तियां इधर उधर टकराकर आदमीको बरबाद कर देती हैं। इस कारण सब शक्तियोंको एक केन्द्रगामी बनाने तथा साध्यतक पहुँचाने के लिये अनिवार्य रूप से सभीको योगकी जरूरत है। यही कारण है कि प्रस्तुत' व्याख्यानमालामें योगका विषय रखा गया है। इस विषयकी शास्त्रीय मीमांसा करनेका उद्देश यह है कि हमें अपने पूर्वजोंकी तथा अपनी सभ्यताकी प्रकृति ठीक मालूम हो, और तद्वारा आर्यसंस्कृतिके एक अंश का थोड़ा, पर निश्चित रहस्य विदित हो । योगशब्दार्थ योगदर्शन यह सामासिक शब्द है ! इसमें योग और दर्शन ये दो शब्द मौलिक हैं। योग शब्द युज् धातु और घ प्रत्यय से सिद्ध हुश्रा है। युज धातु दो हैं । एक का अर्थ है जोड़ना और दूसरे का अर्थ है समाधि:-मनःस्थिरता। सामान्य रीति से योग का अर्थ संबंध करना तथा मानसिक स्थिरता करना इतना ही है, परंतु प्रसंग व प्रकरण के अनुसार उसके अनेक अर्थ हो जाने से वह बहुरूपी बन जाता है। इसी बहुरूपिता के कारण लोकमान्यको अपने गीतारहस्य में गीता का तात्पर्य दिखाने के लिए योगशब्दार्थनिर्णय की विस्तृत १ गुजरात पुरातत्त्व मंदिर की ओर से होनेवाली श्रार्यविद्या व्याख्यानमाला में यह व्याख्यान पढ़ा गया था। २ युजपी योगे गण ७ हेमचंद्र धातुपाठ । ३ युधिच समाधौ गण ४ , " Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ भूमिका रचनी पड़ी है। परंतु योगदर्शन में योग शब्द का अर्थ क्या है यह बतलाने के लिए उतनी गहराई में उतरने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि योगदर्शनविषयक सभी ग्रन्थों में जहाँ कहीं योग शब्द अाया है वहाँ उसका एक ही अर्थ है, और उस अर्थ का स्पष्टीकरण उस-उस ग्रन्थ में अन्धकार ने स्वयं ही कर दिया है । भगवान् पतंजलिने अपने योगसूत्र में चित्तवृत्ति निरोध को ही योग कहा है, और उस ग्रन्थ में सर्वत्र योग शब्द का वही एकमात्र अर्थ विवक्षित है । भीमान् हरिभद्र सूरिने अपने योग विषयक सभी अन्यों में मोक्ष प्रास कराने वाले धर्मव्यापार को ही योग कहा है। और उनके उक्त सभी ग्रन्थों में योग शब्द का वही एकमात्र अर्थ विवक्षित है। चित्तवृत्तिनिरोध और मोक्षप्रापक धर्मव्यापार इन दो वाक्यों के अर्थ में स्थूल दृष्टि से देखने पर बड़ी भिन्नता मालूम होती है, पर सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर उनके अर्थ की अभिन्नता स्पष्ट मालूम हो जाती है, क्योंकि 'चित्तवृत्तिनिरोध' इस शब्द से वही क्रिया या व्यापार विवक्षित है जो मोक्ष के लिए अनुकूल हो और जिससे चित्तकी संसाराभिमुख वृत्तियां रुक जाती हो। 'मोक्षप्रापक धर्मव्यापार' इस शब्द से भी वही क्रिया विवक्षित है। श्रतएव प्रस्तुत विषयमें योग शब्द का अर्थ स्वाभाविक समस्त आत्मशक्तियोंका पूर्ण विकास करानेवाली क्रिया अर्थात् आत्मोन्मुख चेष्टा इतना ही समझना चाहिए । योगविषयक वैदिक, जैन और बौद्ध ग्रन्थों में योग, ध्यान, समाधि ये शब्द बहुधा समानार्थक देखे जाते हैं। दर्शन शब्द का अर्थ नेत्रजन्यज्ञान५, निर्विकल्प ( निराकार ) बोध', भद्धा, १ देखो पृष्ठ ५५ से ६० २ पा. १ सू. २-योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। ३ अध्यात्म भावनाऽऽध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः । मोक्षेण योजनायोग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।। योगबिन्दु श्लोक ३१ । योगविंशिका गाथा १। ४ लोर्ड एवेबरीने जो शिक्षा की पूर्ण व्याख्या की है वह इसी प्रकार की Education is the harmonious development of all our faculties.' ५ दृश प्रेक्षणे-गण १ हेमचन्द्र धातुपाठ । ६ तत्वार्य श्लोकवार्तिक अध्याय २ सूत्र । ७ तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक अध्याय १ सूत्र २ । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ मत' आदि अनेक अर्थ दर्शन शब्द के देखे जाते हैं। पर प्रस्तुत विषय में दर्शन शब्द का अर्थ मत यह एक ही विवक्षित है। योग के आविष्कार का श्रेय___ जितने देश और जितनी जातियों के आध्यात्मिक महान् पुरुषों की जीवन कथा तथा उनका साहित्य उपलब्ध है उसको देखने वाला कोई भी यह नहीं कह सकता है कि आध्यात्मिक विकास अमुक देश और अमुक जाति की ही बपौती है, क्योंकि सभी देश और सभी जातियों में न्यूनाधिक रूप से आध्यात्मिक विकास वाले महात्माओं के पाये जाने के प्रमाण मिलते हैं। योगका संबन्ध आध्यात्मिक विकास से है । अतएव यह स्पष्ट है कि योगका अस्तित्व सभी देश और सभी जातियों में रहा है। तथापि कोई भी विचारशील मनुष्य इस बात को इनकार नहीं कर सकता है कि योग के श्राविष्कारका या योगको पराकाष्ठा तक पहुँचाने का श्रेय भारतवर्ष और आर्यजातिको ही है। इसके सबूतमें मुख्यतया तीन बातें पेश की जा सकती हैं१ योगी, ज्ञानी, तपस्वी आदि श्राध्यात्मिक महापुरुषों की बहुलता; २ साहित्य के श्रादर्श की एकरूपता; ३ लोकरुचि । १. पहिले से श्राज तक भारतवर्ष में आध्यात्मिक व्यक्तियों की संख्या इतनी बड़ी रही है कि उसके सामने अन्य सब देश और जातियों के प्राध्यात्मिक व्यक्तियों की कुल संख्या इतनी अल्प जान पड़ती है जितनी कि गंगा के सामने एक छोटी सी नदी। २. तत्त्वज्ञान, आचार, इतिहास, काव्य, नाटक आदि साहित्य का कोई भी भाग लीजिए उसका अन्तिम श्रादर्श बहुधा मोक्ष ही होगा। प्राकृतिक दृश्य और कर्मकाण्डके वर्णन ने वेद का बहुत बड़ा भाग रोका है सही, पर इसमें संदेह नहीं कि वह वर्णन वेद का शरीर मात्र है। उसकी श्रात्मा कुछ और ही है-वह है परमात्मचिंतन या आध्यात्मिक भावों का आविष्करण । उपनिषदोंका प्रासाद तो ब्रह्मचिन्तन की बुन्याद पर ही खड़ा है । प्रमाणविषयक, प्रमेयविषयक कोई भी तत्त्वज्ञान संबन्धी सूत्रग्रन्थ हो उसमें भी तत्त्वज्ञान के साध्यरूपसे मोक्षका ही वर्णन मिलेगा। आचारविषयक सूत्र स्मृति श्रादि सभी ग्रन्थों में प्राचार पालन का १ 'दर्शनानि षडेवात्र' षड्दर्शन समुच्चय--श्लोक २-इत्यादि । २ उदाहरणार्थ जरथोस्त, इसु, महम्मद आदि । ३ वैशेषिकदर्शन अ० १ सू० ४ 'धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थाना साधर्म्यवैधाभ्यां तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसन्। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ मुख्य उद्देश मोह ही माना गया है। रामायण, महाभारत आदि के मुख्य बड़े राज्य के स्वामी थे पर वह द्वारा मोद के अनुमान में ही वसिष्ठ से योग और मोक्ष की पात्रों की महिमा सिर्फ इसलिए नहीं कि वे एक इसलिए है कि अंत में वे संन्यास या तपस्या के लग जाते हैं । रामचन्द्रजी प्रथम ही अवस्था में शिक्षा पा लेते हैं । युधिष्ठिर भी युद्ध रस लेकर बाण - शय्यापर सोये हुए भीष्म पितामह से शान्ति का ही पाठ पढ़ते हैं। गीता तो रणांगण में भी मोद के एकतम साधन योग का ही उपदेश देती है । कालिदास जैसे शृंगारप्रिय कहलाने वाले कवि भी अपने मुख्य पात्रोंकी महत्ता मोक्ष की ओर झुकने में ही देखते हैं ४ | जैन श्रागम और बौद्ध पिटक तो निवृत्ति प्रधान होने से मुख्यतया न्यायदर्शन श्र० १ सू० १ प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजन दृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्क निर्णयवादजल्पवितण्डा हेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम् ॥ सांख्यदर्शन श्र० १ Audit अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्त पुरुषार्थः ॥ वेदान्तदर्शन ० ४ पा० ४ सू० २२ अनावृतिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात् ॥ जैन दर्शन - तच्चार्थ श्र० १ सू० १ ―― सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः || १ याज्ञवल्क्यस्मृति श्र० ३ यतिधर्मनिरूपणम्; मनुस्मृति श्र० १२ श्लोक ८३ २ देखो योगवासिष्ठ | ३ देखो महाभारत - शान्तिपर्व । ४ कुमारसंभव -सर्ग ३ तथा ५ तपस्या वर्णनम् । शाकुन्तल नाटक श्रंक ४ कवोक्ति- भूत्वा चिराय चतुरन्तमही सपत्नी, दौष्यन्तिमप्रतिरथं तनयं निवेश्य ! भर्त्रा तदर्पितकुटुम्बभरेण सार्धं, शान्ते करिष्यसि पदं पुनराश्रमेऽस्मिन् ॥ शैशवेऽभ्यस्त विद्यानाम् यौवने विषयैषिणाम् | वार्द्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् ॥ रघुवंश १.८ अथ स विषयव्यावृत्तात्मा यथाविधि सूनवे, नृपतिककुदं दत्त्वा यूने सितातपवारणम् मुनिवनतरुच्छायां देव्या तया सह शिश्रिये, गलितवयसामिवाकूणामिदं हि कुलव्रतम् || रघुवंश ३. ७० Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष के सिवाय अन्य विषयों का वर्णन करने में बहुत ही सकुचाते हैं। सन्द शास्त्र में भी शब्द शुद्धि को तत्त्वज्ञान का द्वार मान कर उसका अन्तिम ध्येय परम श्रेय ही माना है। विशेष क्या ? कामशास्त्र तक का भी आखिरी उद्देश्य मोक्ष है । इस प्रकार भारतवर्षीय साहित्यका कोई भी स्रोत देखिए, उसकी गति समुद्र जैसे अपरिमेय एक चतुर्थ पुरुषार्थ की ओर ही होगी। ३. आध्यात्मिक विषय की चर्चावाला और खासकर योगविषयक कोई भी अन्य किसी ने भी लिखा कि लोगों ने उसे अपनाया। कंगाल और दीन हीन अवस्था में भी भारतवर्षीय लोगों की उक्त अभिरचि यह सूचित करती है कि योग का संबन्ध उनके देश व उनकी जाति में पहले से ही चला आता है। इसी कारण से भारतवर्ष की सभ्यता अरण्य में उत्पन्न हुई कही जाती है । इस पैतृक स्वभाव के कारण जब कभी भारतीय लोग तीर्थयात्रा या सफर के लिए पहाड़ों, जंगलों और अन्य तीर्थस्थानों में जाते हैं तब वे डेरा-तंबू डालने से पहले ही योगियों को, उनके मठों को और उनके चिहतक को भी हूँढा करते है। योग की श्रद्धा का उद्रेक यहाँ तक देखा जाता है कि किसी नंगे बावेको गांजे की चिलम फूंकते या जटा बढ़ाते देखा कि उसके मुंह के धुंए में या उसकी जटा व भस्मलेप में योग का गन्ध पाने लगता है। भारतवर्ष के पहाड़ जंगल और तीर्थस्थान भी बिलकुल योगिशून्य मिलना दुःसंभव है। ऐसी स्थिति अन्य देश और अन्य जाति में दुर्लभ है। इससे यह अनुमान करना सहज है कि योग को श्राविष्कृत करने का तथा पराकाष्ठा तक पहुँचाने का श्रेय बहुधा भारतवर्ष को और आर्यजाति को ही है। इस बात की पुष्टि मेक्समूलर जैसे विदेशी और भिन्न संस्कारी विद्वान् के कथन से भी अच्छी तरह होती है। १ वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत् ।। शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ व्याकरणास्पदसिद्धिः पदसिद्धरर्थनिर्णयो भवति । अर्थात्तत्त्वज्ञानं तत्त्वज्ञानात्परं श्रेयः ।। श्रीहेमशब्दानुशासनम् अ० १ पा० १ सू० २ लघुन्यास । २ स्थाविरे धर्म मोक्षं च' कामसूत्र श्र. २ पृ० ११ बम्बई संस्करण । ३ देखो कविवर टेगोर कृत 'साधना' पृष्ठ ४"Thus in India it was in the forests that our civilisation had its birth .....etc.' ___४ 'This concentration of thought ( एकाग्रता ) or one Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ आर्यसंग्कृति की जड़ और आर्यजाति का लक्षण ऊपर के कथन से आर्यसंस्कृति का मूल आधार क्या है यह स्पष्ट मालूम हो जाता है। शाश्वत जीवन की उपादेयता ही आर्यसंस्कृति की भित्ति है। इसी पर आर्यसंस्कृति के चित्रों का चित्रण किया गया है। वर्णविभाग जैसा सामाजिक संगठन और आश्रमव्यवस्था जैसा वैयक्तिक जीवनविभाग उस चित्रण का अनुपम उदाहरण है। विद्या, रक्षण, विनिमय और सेवा ये चार जो वर्णविभाग के उद्देश्य हैं, उनके प्रवाह गार्हस्थ्य जीवनरूप मैदान में अलग अलग बह कर भी वानप्रस्थ के मुहाने में मिलकर अंत में संन्यासाश्रम के अपरिमेय समुद्र में एकरूप हो जाते हैं। सारांश यह है कि सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक आदि सभी संस्कृतियों का निर्माण, स्थूलजीवन की परिणामविरसता और आध्यात्मिक जीवन की परिणामसुन्दरता के ऊपर ही किया गया है। अतएव जो विदेशी विद्वान् श्रायजाति का लक्षण स्थूलशरीर, उसके डीलडौल, व्यापार-व्यवसाय, भाषा, आदि में देखते हैं वे एकदेशीय मात्र हैं। खेतीबारी, जहाजखेना पशुओं को चराना आदि जो-जो अर्थ आर्य शब्द से निकाले गए है' व आर्यजाति के असाधारण लक्षण नहीं है। आर्यजाति का असाधारण लक्षण परलोकमात्र की कल्पना भी नहीं है क्योंकि उसकी दृष्टि में वह लोक भी त्याज्य' है । उसका सच्चा और अन्तरंग लक्षण स्थूल जगत् के उस पार वर्तमान परमात्म तत्त्व की एकाग्रबुद्धि से उपासना करना यही है। इस सर्वव्यापक उद्देश्य के कारण आर्यजाति अपने को अन्य सब जातियों से श्रेष्ठ समझती आई है। ज्ञान और योग का संबंध तथा योग का दरजा व्यवहार हो या परमार्थ, किसी भी विषयका ज्ञान तभी परिपक समझा जा सकता है जब कि ज्ञानामुसार आचरण किया जाए। असल में यह आचरण pointedness as the Hindus called it, is something to us almost unknown'. इत्यादि देखो पृष्ठ २३-भाग १-सेक्रेड बुक्स ओफ धि ईस्ट, मेक्समूलर-प्रस्तावना । Biographies of Words & the Home of the Aryans by Max Muller page 50. २ ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोक विशालं क्षीणे पुण्ये मृत्युलोक विशन्ति । एवं अयोधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ।। गीता अ. ६ श्लोक २१ । ३ देखो Apte's Sanskrit to English Dictionary. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही योग है । अतएव ज्ञान योग का कारण है। परन्तु योग के पूर्ववर्ती जो शान होता है वह अस्पष्ट होता है। और योग के बाद होनेवाला अनुभवात्मक शान स्पष्ट तथा परिपक्क होता है। इसीसे यह समझ लेना चाहिए कि स्पष्ट तथा परिपक्क शान की एकमात्र कुंजी योग ही है। आधिभौतिक या आध्यात्मिक कोई भी योग हो, पर वह जिस देश या जिस जाति में जितने प्रमाण में पुष्ट पाया जाता है उस देश या उस जाति का विकास उतना ही अधिक प्रमाण में होता है । सच्चा ज्ञानी वही है जो योगी२ है । जिसमें योग या एकाग्रता नहीं होती वह योगवासिष्ठ को परिभाषा में शानबन्धु है। योग के सिवाय किसी भी मनुष्य की उत्क्रान्ति हो ही नहीं सकती, क्योंकि मानसिक चंचलता के कारण उसकी सब शक्तियां एक ओर न बह कर भिन्न भिन्न विषयों में टकराती हैं, और क्षीण होकर यों ही नष्ट हो जाती हैं । इसलिए क्या किसान, क्या कारीगर, क्या लेखक, क्या शोधक, क्या त्यागी सभी को अपनी नाना शक्तियों को केन्द्रस्य करने के लिए योग ही परम साधन है। व्यावहारिक और पारमार्थिक योग योग का कलेवर एकाग्रता है, और उसकी प्रात्मा अहत्व ममत्वका त्याग है। जिसमें सिर्फ एकाग्रताका ही संबन्ध हो वह व्यावहारिक योग, और जिसमें एकाग्रता के साथ साथ अहत्व ममत्वके त्यागका भी संबन्ध हो वह पारमार्थिक योग है। यदि योग का उक्त आत्मा किसी भी प्रवृत्ति में-चाहे वह दुनिया की दृष्टि में बाघ ही क्यों न समझी जाती हो-वर्तमान हो तो उसे पारमार्थिक योग ही १ इसी अभिप्राय से गीता योगी को ज्ञानी से अधिक कहती है। गीता अ०६. श्लोक ४६तपस्विभ्योऽधिको योगी शानिम्योऽपि मतोऽधिकः । कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद योगी भवार्जुन ! २ गीता अ० ५. श्लोक ५ यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते । एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।। ३ योगवासिष्ठ निर्वाण प्रकरण उत्तरार्ध सर्ग २१व्याचष्टे यः पठति च शास्त्र भोगाय शिल्पिवत् । यतते न त्वनुष्ठाने ज्ञानबन्धुः स उच्यते ॥ आत्मशानमनासाद्य ज्ञानान्तरलवेन ये। सन्तुष्टाः कष्टचेष्टं ते ते स्मृता शामबन्धवः ॥ इत्यादि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० समझना चाहिए। इसके विपरीत स्थूल दृष्टिवाले जिस प्रवृत्तिको श्राध्यात्मिक समझते हों, उसमें भी यदि योग का उक्त आत्मा न हो तो उसे व्यावहारिक योग ही कहना चाहिए । यही बात गीता के साम्यगर्भित कर्मयोग में की गई है । योग की दो धारायें व्यवहार में किसी भी वस्तु को परिपूर्ण स्वरूप में दो बातों की श्रावश्यकता होती है । जिनमें एक ज्ञान चितेरे को चित्र तैयार करने से पहले उसके स्वरूप का, साधनों के उपयोग का ज्ञान होता है, और फिर वह ज्ञान के अनुसार क्रिया भी करता है तभी वह चित्र तैयार कर पाता है । वैसे ही श्राध्यात्मिक क्षेत्र में भी मोक्ष के जिज्ञासु के लिए आत्माके बन्धमोक्ष, और बन्धमोक्ष के कारणों का तथा उनके परिहार- उपादान का ज्ञान होना जरूरी है । एवं ज्ञानानुसार प्रवृत्ति भी श्रावश्यक है । इसी से संक्षेप में यह कहा गया है कि 'ज्ञान क्रियाभ्याम् मोक्षः ।' योग क्रियामार्ग का नाम है। इस मार्ग में प्रवृत्त होने से पहले अधिकारी, आत्मा आदि आध्यात्मिक विषयों का आरंभिक ज्ञान शास्त्र से, सत्संग से, या स्वयं प्रतिभा द्वारा कर लेता है । यह तत्त्वविषयक प्राथमिक ज्ञान प्रवर्तक ज्ञान कहलाता है । प्रवर्तक ज्ञान प्राथमिक दशा का ज्ञान होने से सबको एकाकार और एकसा नहीं हो सकता। इसीसे योगमार्ग में तथा उसके परिणामस्वरूप मोक्षस्वरूप में तात्त्विक भिन्नता न होने पर भी योगमार्ग के प्रवर्तक प्राथमिक ज्ञान में कुछ भिन्नता अनिवार्य है । इस प्रवर्तक ज्ञान का मुख्य विषय श्रात्माका अस्तित्व है | Har Raaत्र अस्तित्व मानने वालोंमें भी मुख्य दो मत हैं- पहला एकात्मवादी और दूसरा नानात्मवादी । नानात्मवाद में भी आत्मा की व्यापकता, व्यापकता, परिणामिता, अरिणामिता माननेवाले अनेक पक्ष हैं। पर इन वादों को एक तरफ रख कर मुख्य जो आत्मा की एकता और अनेकताके दो वाद हैं उनके आधार पर योगमार्ग की दो धाराएँ हो गई हैं। अतएव योगविषयक साहित्य भी दो मार्गों में विभक्त हो जाता है। कुछ उपनिषदें, योगवासिष्ठ, हठयोगप्रदीपिका श्रादि ग्रन्थ एकात्मवाद को लक्ष्य में रख कर रचे तैयार करने के लिए पहले और दूसरी क्रिया है । उसके साधनों का और १ योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्तवा धनञ्जय ! सिद्ध्यसिद्धयाः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ अ० २ श्लोक ४८ । २ ब्रह्मविद्या, तुरिका, चूलिका, नादबिन्दु, ब्रह्म बिन्दु, अमृतबिन्दु, ध्यानबिन्दु, तेजोबिन्दु, शिखा, योगतत्व, इंस | Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गए हैं। महाभारतगत योग प्रकरण, योगसूत्र तथा जैन और बौद्ध योगग्रन्थ मानात्मवादके आधार पर रचे गए हैं। योग और उसके साहित्य के विकास का दिग्दर्शन आर्यसाहित्य का भाण्डागार मुख्यतया तीन भागों में विभक्त हैवैदिक, जैन और बौद्ध । वैदिक साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद है । उसमें आधिभौतिक और आधिदैविक वर्णन ही मुख्य है । तथापि उसमें श्राध्यात्मिक भाव अर्थात् परमात्म चिन्तन का प्रभाव नहीं है। परमात्मचिन्तन का भाग उसमें थोड़ा है सही पर वह इतना अधिक स्पष्ट, सुन्दर और भावपूर्ण है कि उसको ध्यान पूर्वक देखने से यह साफ मालूम पड़ जाता है कि तत्कालीन लोगों की दृष्टि केवल बाह्य नर १ देखो 'भागवताचा उपसंहार' पृष्ठ २५२ । २ उदाहरणार्थ कुछ सूक्त दिये जाते हैंऋग्वेव मं० १ सू० १६४-४६--- इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् । एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः ।। भाषांतर-लोग उसे इन्द्र, मित्र, वरुण या अग्नि कहते हैं। वह सुंदर पांखवाला दिव्य पक्षी है । एक ही सत् का विद्वान लोग अनेक प्रकार से वर्णन करते हैं । कोई उसे अग्नि यम या वायु भी कहते हैं । ऋग्वेद मं० ६ सू०६वि मे कों पतयतो विचक्षुर्वीदं ज्योतिहदय श्राहितं यत । वि मे मनश्चरति दूर श्राधीः किंस्विद् वक्ष्यामि किमु नु मनिष्ये ।।६।। विश्वे देवा अनमस्यन् भियानास्त्वामग्ने ! तमसि तस्थिवांसम् । वैश्वानरोऽवतूतये नोऽमयोंऽवतूतये नः ॥७॥ भाषांतर-मेरे कान विविध प्रकार की प्रवृत्ति करते हैं। मेरे नेत्र, मेरे हदय में स्थित ज्योति और मेरा दूरवर्ती मन (भी) विविध प्रवृत्ति कर रहा है। मैं क्या कहूँ और क्या विचार करूँ ? ।६। अंधकार स्थित हे अग्नि ! तुझको अंधकार से भय पानेवाले देव नमस्कार करते हैं । वैश्वानर हमारा रक्षण करे । अमर्त्य हमारा रक्षण करे। ७ । पुरुषसूक्त मण्डल १० सू६. ऋग्वेद सहनशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्त्रपात् । स भूमि विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ १ ॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ थी इसके सिवा उसमें शान', श्रद्धा, उदारता३, ब्रह्मचर्य आदि पुरुष एवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो यदन्ने नातिरोहति ॥ २ ॥ एतावानस्य महिमाऽतो ज्यायांश्च पूरुषः । पादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ ३ ॥ भाषांतर—(जो) हजार सिरवाला, हजार आँखवाला, हजार पाँववाला पुरुष (है) वह भूमिको चारों ओर से घेर कर ( फिर भी) दस अंगुल बढ़ कर रहा है । १ । पुरुष ही यह सब कुछ है-जो भूत और जो भावि । (वह) अभृतत्व का ईश अन्न से बढ़ता है। २। इतनी इसकी महिमा इससे भी वह पुरुष अधिकतर है। सारे भूत उसके एक पाद मात्र हैं-उसके अमर तीन पाद स्वर्ग में हैं । ३। ऋग्वेद मं० १० सू० १२१हिरण्यगर्भः समवर्तता भूतस्य जातः पतिरेक श्रासीत् । स दाधार पृथिवीं चामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ||१|| य श्रात्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः । यस्य च्छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥२।। भाषांतर-~-पहले हिरण्यगर्भ था। वही एक भूत मात्रका पति बना था । उसने पृथ्वी और इस श्राकाश को धारण किया । किस देवको हम हवि से पूर्जे । १ । जो श्रात्मा और बलको देने वाला है । जिसका विश्व है। जिसके शासन की देव उपासना करते हैं। अमृत और मृत्यु जिसकी छाया है। किस देव को हम हवि से पूर्जे ? | २।। ऋग्वेद मं० १०-१२६-६ तथा ७को श्रद्धा वेद क इह प्रवोचत कुत श्रा जाता कुत इयं विसहिः । अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत श्रा बभूव ।। इयं विसृष्टिर्यत आ बभूव यदि वा दधे यदि वा न । यो अस्याध्यक्ष परमे व्योमन्सो अन वेद यदि वा न वेद ।। भाषांतर--कौन जानता है-कौन कह सकता है कि यह विविध सृष्टि कहाँ से उत्पन्न हुई ? देव इसके विविध सर्जन के बाद (हुए) हैं। कौन जान सकता है कि यह कहां से आई और स्थिति में है या नहीं है ? यह बात परम ब्योम में जो इसका अध्यक्ष है वही जाने-कदाचित् वह भी न जानता हो । १ ऋग्वेद मं० १० सू०७१। २ ऋग्वेद मं० १० सू० १५१ । ३ ऋग्वेद मं० १० सू० ११७ । ४ ऋग्वेद मं० १० सू० १०॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ध्यान या समाधि श्रर्थं नहीं Į आध्यात्मिक उच्च मानसिक भावों के चित्र भी बड़ी खूबीवाले मिलते हैं । इससे यह अनुमान करना सहज है कि उस जमाने के लोगों का झुकाव श्रध्यात्मिक श्रवश्य था यद्यपि ऋग्वेद में योगशब्द अनेक स्थानों' में आया है, पर सर्वत्र उसका अर्थ प्रायः जोड़ना इतना ही है, है । इतना ही नहीं बल्कि पिछले योग विषयक साहित्य में ध्यान, वैराग्य, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि जो योगप्रक्रिया प्रसिद्ध शब्द पाये जाते हैं वे ऋग्वेद में बिलकुल नहीं है । ऐसा होने का कारण जो कुछ हो, पर यह निश्चित है कि तत्कालीन लोगों में ध्यान की भी रुचि थी। ॠग्वेद का ब्रह्मकुरण जैसे-जैसे विकसित होता गया और उपनिषद के जमाने में उसने जैसे ही विस्तृत रूप धारण किया वैसे वैसे ध्यानमार्ग भी अधिक पुष्ट और साङ्गोपाङ्ग होता चला । यही कारण है कि प्राचीन उपनिषदों में भी समाधि अर्थ में योग, ध्यान आदि शब्द पाये जाते हैं । श्वेताश्वतर उपनिषद में तो स्पष्ट रूप से योग तथा योगोचित स्थान, प्रत्याहार, धारणा आदि योगाङ्गों का वर्णन है । मध्यकालीन और अर्वाचीन अनेक उपनिषदें तो सिर्फ योगविषयक ही हैं, जिनमें योगशास्त्र की तरह सांगोपांग योगप्रक्रिया का वर्णन है । अथवा यह कहना चाहिए कि १ मंडल १ सूक्त ३४ मंत्र ६ । मं. १० सू. १६६ मं. ५ | मं. १ सू. १८ मं. ७ । मं. १ सू. ५. मं. ३ । मं. २ सू. ८ मं. १ । मं. ६ सू. ५८८ मं. ३ । २ (क) तैत्तिरिय २-४ | कठ २-६-११ | श्वेताश्वतर २-११, ६-३ | ( ख ) छान्दोग्य ७–६–१, ७-६-२, ७-७-१, ७-२६-१ | श्वेताश्वतर १- १४ | कौशीतकि ३ -२, ३-३, ३४, ३६ । ३ श्वेताश्वतरोपनिषद् श्रध्याय २ त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिरुध्य । ब्रह्मोपेन प्रतरेत विज्ञान्त्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि ॥ ८ ॥ प्राणान्यपीडयेद सयुक्तचेष्टः क्षीणे प्राणे नासिकयो छुसीत । दुष्टाश्वयुक्तमिव वाहमेनं विद्वान्मनो धारयेताप्रमत्तः ॥ ६ ॥ समे शुचौ शर्करावह्निवालुका विवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभिः । मनोनुकूले न तु चतुपीडने गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत् ॥ १० ॥ इत्यादि. ४ ब्रह्मविद्योपनिषद्, क्षुरिकोपनिषद्, चूलिकोपनिषद्, नादबिन्दु, ब्रह्मबिन्दु, श्रमृतबिन्दु, ध्यानबिन्दु, तेजोबिन्दु, योगशिखा, योगतत्त्व, हंस । देखो घुसेनकृत* Philosophy of the Upanishad's.' Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ ऋग्वेद में जो परमात्मचिन्तन अंकुरायमाण था वही उपनिषदों में पल्लवित पुष्पित होकर नाना शाखा प्रशाखाओं के साथ फल अवस्थाको प्राप्त हुआ । इससे उपनिषदकाल में योग मार्ग का पुष्ट रूपमें पाया जाना स्वाभाविक ही है । उपनिषदों में जगत, जीव और परमात्मसंबन्धी जो तात्त्विक विचार है, उसको भिन्न-भिन्न ऋषियों ने अपनी दृष्टि से सूत्रों में ग्रथित किया, और इस तरह उस विचार को दर्शन का रूप मिला। सभी दर्शनकारोंका आखिरी उद्देश्य मोक्ष ही रहा है, इससे उन्होंने अपनी-अपनी दृष्टि से तत्त्व विचार करने के बाद भी संसार से छूट कर मोक्ष पाने के साधनों का निर्देश किया है। तत्त्वविचारामें मतभेद हो सकता है, पर आचरण यानी चारित्र एक ऐसी वस्तु है जिसमें सभी विचारशील एकमत हो जाते हैं । बिना चारित्रका तत्त्वज्ञान कोरी बातें हैं | चारित्र यह योग का किंवा योगांगों का संक्षिप्त नाम है। अतएव सभी दर्शनकारों ने अपने अपने सूत्र ग्रन्थों में साधनरूपसे योगकी उपयोगिता अवश्य बतलाई है । यहाँ तक कि – न्याय दर्शन जिसमें प्रमाण पद्धतिका ही विचार मुख्य है उसमें भी महर्षि गौतम ने योग को स्थान दिया है | महर्षि कणाद . ने तो अपने वैशेषिक दर्शन में यम, नियम, शौच आदि योगांगों का भी महत्त्व गाया है । सांख्य सूत्र में योग प्रक्रिया के वर्णन वाले कई १ प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवत के नियवाद जल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः । गौ० सू० १-१-१ धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्य विशेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म्यवैधम्र्म्याभ्यां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम् ॥ बै० सू० १-१-४ ॥ अथ त्रिविधदुः खात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्त पुरुषार्थः सां० द० १-१ । पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति । यो० सू० ४-३३ || अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात् ४-४-२२ ब्र० सू० । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । तत्त्वार्थ १-१ जैन० द० । बौद्ध दर्शन का तीसरा निरोध नामक आर्यसत्य ही मोक्ष है । २ समाधिविशेषाभ्यासात् ४-२ - ३८५ । अरण्यगुहापुलिनादिषु योगाभ्यासोपदेशः ४-२-४२ । तदर्थं यमनियमाभ्यामात्मसंस्कारो योगाच्चाध्यात्मविध्युपायैः ४-२-४६ ।। ३. अभिषेचनोपवासत्रह्मचर्य गुरुकुल वासवानप्रस्थयशदानप्रोक्षणदि नक्षत्रमन्त्रकालनियमाश्वा । ६-२-२ | अयतस्य शुचिभोजनादभ्युदयो न विद्यते, नियमाभावाद्, विद्यते वाऽर्थान्तरत्वाद् यमस्य । ६-२-८ । १६ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ सूत्र हैं' | ब्रह्मसूत्र में महर्षि बादरायण ने तो तीसरे अध्यायका नाम ही साधन अध्याय रक्खा है, और उसमें आसन ध्यान आदि योगांगों का वर्णन किया है। योगदर्शन तो मुख्यतया योगविचार का ही ग्रन्थ ठहरा, श्रतएव उसमें सांगोपांग योगप्रक्रिया की मीमांसा का पाया जाना सहज ही है। योग के स्वरूप के संबन्ध में मतभेद न होने के कारण और उसके प्रतिपादन का उत्तरदायित्व खासकर योगदर्शन के ऊपर होने के कारण अन्य दर्शनकारों ने अपने अपने सूत्र न्थों में थोड़ा सा योग विचार करके विशेष जानकारी के लिए जिज्ञासुत्रों को योगदर्शन देखने को सूचना दे दी है। पूर्व मीमांसा में महर्षि जैमिनि ने योग का निर्देश तक नहीं किया है सो ठीक ही है, क्योंकि उसमें सकाम कर्मकाण्ड अर्थात् धूममार्ग की ही मीमांसा है। कर्मकाण्ड की पहुँच स्वर्ग तक ही है, मोक्ष उसका साध्य नहीं । और योग का उपयोग तो मोक्ष के लिये ही होता है । जो योग उपनिषदों में सूचित और सूत्रों में गीता में अनेक रूप से गाई गई है । उसमें योग की कभी भक्ति के साथ और कभी ज्ञान के साथ सुनाई और तेरहवें अध्याय में तो योग के मौलिक सत्र सिद्धान्त और योगकी सारी प्रक्रिया आ जाती है" । कृष्ण के द्वारा अर्जुन को गीता के रूप में योग शिक्षा सूत्रित है, उसी की महिमा तान कभी देती है ४ कर्म के साथ, । उसके छठे १ रागोपहतिर्थ्यानम् ३-३० । वृत्तिनिरोधात् तत्सिद्धि: ३-३१ । धारणासनस्वकर्मणा तत्सिद्धिः ३ - ३२ । निरोधश्छर्दि विधारणाभ्याम् ३ - ३३ | स्थिरसुखभासनन् ३-३४ | २ श्रासीनः संभवात् ४-१-७ । ध्यानाच ४-१-८ । श्रचलत्वं वापेक्ष्य ४१-६ । स्मरन्ति च ४-१-१० । यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् ४-१-११ । ३ योगशास्त्राच्चाध्यात्मविधिः प्रतिपत्तव्यः । ४-२ - ४६ न्यायदर्शन भाष्य ४ गीता के अठारह अध्याय में पहले छह अन्याय कर्मयोगप्रधान बीच के छह श्रध्याय भक्तियोगप्रधान और अंतिम छह श्रध्याय ज्ञानयोग प्रधान हैं। ५. योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ||१०| शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः । नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥११॥ तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचिचेन्द्रियक्रियः । उपविश्यासने युञ्ज्याद् योगमात्मविशुद्धये ॥१२॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ दिला कर ही महाभारत' सन्तुष्ट नहीं हुअा । उसके अथक स्वर को देखते हुए कहना पड़ता है कि ऐसा होना संभव भी न था। अतएव शान्तिपर्व और अनुशासनपर्व में योगविषयक अनेक सर्ग वर्तमान हैं, जिनमें योग की अति प्रक्रिया का वर्णन पुनरुक्ति की परवा न करके किया गया है। उसमें बाणशय्या पर लेटे हुए भीष्म से बार बार पूछने में न तो युद्धिष्ठिर को ही कंटाला आता है, और न उस सुपात्र धार्मिक राजा को शिक्षा देने में भीष्म को ही थकावट मालूम होती है। योगवासिष्ठ का विस्तृत महल तो योग की भूमिका पर खड़ा किया गया है। उसके छह प्रकरण मानों उसके सुदीर्घ कमरे हैं, जिनमें योग से संबन्ध रखनेवाले सभी विषय रोचकतापूर्वक वर्णन किये गए हैं। योग की जो-जो बातें योगदर्शन में संक्षेप में कही गई हैं, उन्हीं का विविधरूप में विस्तार करके ग्रन्थकार ने योगवासिष्ठका कलेवर बहुत बढ़ा दिया है, जिससे यही कहना पड़ता है कि योगवासिष्ठ योग का ग्रन्थराज है। पुराण में सिर्फ पुराणशिरोमणि भागवतको ही देखिए, उसमें योग का सुमधुर पद्यों में पूरा वर्णन है। योगविषयक विविध साहित्य से लोगों की रुचि इतनी परिमार्जित हो गई थी कि तान्त्रिक संप्रदायवालों ने भी तन्त्रग्रन्थों में योग को जगह दी, यहाँ तक कि योग तन्त्र का एक खासा अंग बन गया । अनेक तान्त्रिक ग्रन्थों में योग की चर्चा है, पर उन सब में महानिर्वाणतन्त्र, षट्चक्रनिरूपण आदि मुख्य हैं। समं कायशिरोनीवं धारयन्नचलं स्थिरः । संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।।१३॥ प्रशान्तात्मा विगतभीब्रह्मचारिव्रते स्थितः । मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त प्रासीत मत्परः ॥१४॥ ०६ १ शान्तिपर्व १६३, २१७, २४६, २५४ इत्यादि । अनुशासनपर्व ३६, २४६ इत्यादि । २ वैराग्य, मुमुक्षुल्यवहार, उत्पत्ति, स्थिति, उपशम और निर्वाण । ३ स्कन्ध ३ अध्याय २८ । स्कन्ध ११. अ० १५, १६, २० श्रादि । ४ देखो महानिर्वाणतन्त्र ३ अध्याय । देखो Tantrik Texts में छपा हुआ षट्चक्रनिरूपण-- ऐक्यं जीवात्मनोराहुर्योगं योगविशारदाः । शिवात्मनोरमेदेन प्रतिपत्रि परे विदुः ॥ पृष्कर Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जब नदी में बाढ़ आती है तब वह चारों ओर से बहने लगती है। योग का यही हाल हुआ, और वह आसन, मुद्रा, प्राणायाम श्रादि बाह्य अंगों में प्रवाहित होने लगा । बाह्य अंगों का भेद प्रभेद पूर्वक इतना अधिक वर्णन किया गया और उस पर इतना अधिक जोर दिया गया कि जिससे वह योग की एक शाखा ही अलग बन गईं, जो हठयोग के नाम से प्रसिद्ध है । हठयोग के अनेक ग्रन्थों में हठयोगप्रदीपिका, शिवसंहिता, घेरण्ड संहिता, गोरक्षपद्धति, गोरक्षशतक आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं, जिनमें श्रासन, बन्ध, मुद्रा, षट्कर्म, कुंभक, रेचक पूरक आदि बाह्य योगांगों का पेट भर भर के वर्णन किया है, और घेरण्डने तो चौरासी आसनों को चौरासी लाख तक पहुँचा दिया है । उक्त हठयोगप्रधान ग्रन्थों में हठयोगप्रदीपिका ही मुख्य है, क्योंकि उसी का विषय अन्य ग्रन्थों में विस्तार रूप से वर्णन किया गया है। योगविषयक साहित्य के जिज्ञासुत्रों को योगतारावली, बिन्दुयोग, योगचीज और योगकल्पद्रुम का नाम भी भूलना न चाहिए । विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी में मैथिल पण्डित भवदेवद्वारा रचित योगनिबन्ध नामक हस्तलिखित ग्रन्थ भी देखने में आया है, जिसमें विष्णुपुराण आदि अनेक ग्रन्थों के हवाले देकर योगसंबन्धी प्रत्येक विषय पर विस्तृत चर्चा की गई है । संस्कृत भाषा में योग का वर्णन होने से सर्व साधारण को जिज्ञासा को शान्त न देख कर लोकभात्रा के योगियों ने भी अपनी अपनी जबान में योग कालाप करना शुरू कर दिया । महाराष्ट्रीय भाषा में गीता की ज्ञानदेवकृत ज्ञानेश्वरी टीका प्रसिद्ध है, जिसके समत्व भावनां नित्यं जीवात्मपरमात्मनो: । समाधिमाहुर्मुनयः प्रोक्तमष्टाङ्गलक्षणम् ॥ पृ० ६१ यदत्र नात्र निर्भासः स्तिमितोदधिवत् स्मृतम् । स्वरूपशून्यं यद् ध्यानं तत्समाधिर्विधीयते ॥ पृ० ६० त्रिकोणं तस्यान्तः स्फुरति च सततं विद्युदाकाररूपं । तदन्तः शून्यं तत् सकलसुरगणैः सेवितं चातिगुप्तम् ॥ पृ० ६० ‘श्राहारनिर्दारविहारयोगाः सुसंवृता धर्मविदा तु कार्याः" पृ० ६१ ध्यै चिन्तायाम् स्मृतो धातुश्चिन्ता तत्वेन निश्चला । एतद् ध्यानमिह प्रोक्तं सगुण निर्गुणां द्विधा । सगुणं वर्णभेदेन निर्गुणं केवलं तथा ॥ ० १३४ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ छठे अध्याय का भांग बड़ा ही हृदयहारी है । निःसन्देह शानेश्वरी द्वारा ज्ञानदेव ने अपने अनुभव और वाणी को श्रवन्ध्य कर दिया है। सुहीरोबा अंबिये रचित नाथसम्प्रदायानुसारी सिद्धान्तसंहिता भी योग के जिज्ञासुओं के लिए देखने की वस्तु है । कबीर का बीजक ग्रन्थ योगसंबन्धी भाषासाहित्यका एक सुन्दर मणका है । अन्य योगी सन्तों ने भी भाषा में अपने अपने योगानुभव की प्रसादी लोगों को चखाई है, जिससे जनता का बहुत बड़ा भाग योग के नाम मात्र से मुग्ध बन जाता है । श्रतएव हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि प्रसिद्ध प्रत्येक प्रान्तीय भाषा में पातञ्जल योगशास्त्र का अनुवाद तथा विवेचन आदि अनेक छोटे बड़े ग्रन्थ बन गये हैं । अंग्रेजी आदि विदेशी भाषा में भी योगशास्त्र पर अनुवाद आदि बहुत कुछ बन गया है, जिसमें वूडका भाष्यटीका सहित मूल पातञ्जल योगशास्त्र का अनुवाद ही विशिष्ट है । I १ जैन सम्प्रदाय निवृत्तिप्रधान है । उसके प्रवर्तक भगवान् महावीर ने बारह साल से अधिक समय तक मौन धारण करके सिर्फ श्रात्मचिन्तन द्वारा योगाम्यास में ही मुख्यतया जीवन बिताया। उनके हजारों शिष्य तो ऐसे थे जिन्होंने घरबार छोड़ कर योगाभ्यास द्वारा साधु जीवन बिताना ही पसंद किया था । कहलाते हैं । उनमें साधुचर्या का जैन सम्प्रदाय के मौलिक ग्रन्थ श्रागम जो वर्णन है, उसको देखने से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि स्वाध्याय आदि नियम; इन्द्रियजयरूप प्रत्याहार इत्यादि जो योग के खास हैं, उन्हींको साधु जीवन का एक मात्र प्राण माना है । पांच यम; तप, जैन शास्त्रमें योग पर यहां तक भार दिया गया है कि पहले तो वह मुमुक्षुत्रों को आत्म चिन्तन के सिवाय दूसरे कार्यों में प्रवृत्ति करने की संमति ही नहीं देता और अनिवार्य रूपसे प्रवृत्ति करनी श्रावश्यक हो तो वह निवृत्तिमय प्रवृत्ति करने को कहता है । इसी निवृत्तिमय प्रवृत्ति का नाम उसमें श्रष्टप्रवचन १ प्रो० राजेन्द्रलाल मित्र, स्वामी विवेकानन्द, श्रीयुत् रामप्रसाद आदि कृत । २ ' चउदसहि समय साहस्सीहिं छत्तीसाहिं अजिया साहस्सीहिं' उववाइसूत्र । ३ देखो आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, उत्तराध्ययन, दशनैकालिक, मूलाचार, आदि । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ माता' है । साधु जीवन की दैनिक और रात्रिक चर्यां में तीसरे प्रहर के सिवाय अन्य तीनों प्रहरों में मुख्यतया स्वाध्याय और ध्यान करने को ही कहा गया है । यह बात भूलनी न चाहिए कि जैन आगमों में योगार्थ में प्रधानतया ध्यान शब्द प्रयुक्त है। ध्यान के लक्षण, भेद, प्रभेद, आलम्बन आदिका विस्तृत वर्णन अनेक जैन आगमों में है । श्रागम के बाद नियुक्ति का नम्बर है । उसमें भी आगमगत ध्यान का ही स्पष्टीकरण है । वाचक उमास्वाति कृत तत्त्वार्थ सूत्र में भी ध्यान का वर्णन है, पर उसमें आगम और नियुक्ति की अपेक्षा कोई अधिक बात नहीं है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण का ध्यानशतक आगमादि उक्त प्रन्थों में वणित ध्यान का स्पष्टीकरण मात्र है, यहां तक के योगविषक जैन विचारो में आगमोक्त वर्णन की शैली ही प्रधान इस शैली को श्रीमान् हरिभद्र सूरि ने एकदम बदलकर तत्कालीन लोकरूचि के अनुसार नवीन परिभाषा देकर और वर्णन शैली कर जैन योगसाहित्य में नया युग उपस्थित किया। इसके सबूत में उनके बनाये हुए योगबिन्दु, योगदृष्टि समुच्चय, योगविंशिका, योगशतक और षोडशक ये ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । इन ग्रन्थों में उन्होंने सिर्फ जैन-मार्गानुसार योग का वर्णन रही है । पर परिस्थिति व पूर्वसी बना उ १ देखो उत्तराध्ययन ० २४ २ दिवस चउरो भाए, कुज्जा भिक्खु विश्रक्खणो । तो उत्तरगुणे कुज्जा, दिभागेसु चउसु वि ॥ ११ ॥ पढमं पोरिसि सभायं बिइ भारणं भिनाय । तए गोरकालं, पुणो चउत्थिए, सज्झायं ॥ १२ ॥ रतिंपि चउरो भाए भिक्खु कुज्जा विश्रक्खणो । तो उत्तरगुणे कुज्जा राई भागेसु चउसु वि ॥ १७ ॥ पढमं पोरिसि सभायं विग्रं भाणं भिचायइ | ताप निद्दमोक्खं तु चउत्थिए भुज्जो वि सज्झायं || १८ | उत्तराध्ययन ० २६ । ३ देखो स्थानाङ्ग श्र० ४ उद्देश्य १ । समवायाङ्ग स० ४ । शतक - २५, उद्देश्य ७ । उत्तराध्ययन श्र० ३०, श्लोक ३५ । ४ देखो श्रावश्यक नियुक्ति कायोत्सर्ग अध्ययन गा० १४६२-१४८६ | ५ देखो श्र० ६ सू० २७ से श्रागे । ६ देखो हारिभद्रीय श्रावश्यक वृत्ति प्रतिक्रमणाध्ययन १० ५८१ । ७ यह ग्रन्थ जैन ग्रन्थावति में उल्लिखित है पृ० ११३ । भगवती Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ pura करके ही संतोष नहीं माना है, किन्तु पातञ्जल योगसूत्रमें वर्णित योग प्रक्रिया और उसकी खास परिभाषाओं के साथ जैन संकेतों का मिलान भी किया है। योगदृष्टिसमुच्चय में योग की आठ दृष्टियों का जो वर्णन है, वह सारे योग साहित्य में एक नवीन दिशा है। इन आठ दृष्टियों का स्वरूप, दृष्टान्त श्रादि विषय, योग जिज्ञासुत्रों के लिये देखने योग्य है। इसी विषय पर यशोविजयजीने २१, २२, २३, ६४ ये चार द्वात्रिशिकायें लिखी हैं। साथ ही उन्होंने संस्कृत न जानने वालोंके हितार्थ पाठ दृष्टियों की सज्झाय भी गुजराती भाषा में बनाई है। श्रीमान् हरिभद्रसूरि के योगविषयक ग्रन्थ उनकी योगाभिरुचि और योग विषयक व्यापक बुद्धि के खासे नमूने हैं। इसके बाद श्रीमाम् हेमचन्द्र सूरिकृत योग शास्त्र का नंबर श्राता है । उसमें पातञ्जल योगशास्त्र निर्दिष्ट आठ योगांगों के क्रम से साधु और गृहस्थ जीबन की आचार-प्रक्रिया का जैन शैली के अनुसार वर्णन है, जिसमें आसन तथा प्राणायाम से संबन्ध रखने बाली अनेक बातों का विस्तृत स्वरूप है; जिसको देखने से यह जान पड़ता है कि तत्कालीन लोगों में हठयोग-प्रक्रिया का कितना अधिक प्रचार था। हेमचन्द्राचार्य ने अपने योगशास्त्र में हरिभद्र सूरि के योगविषयक ग्रन्थों की नवीन परिभाषा और रोचक शैली का कहीं भी उल्लेख नहीं किया है, पर शुभचन्द्राचार्य के ज्ञानार्णवगत पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान का विस्तृत व स्पष्ट वर्णन किया है। अन्त में उन्होंने स्वानुभव से विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट और सुलीन ऐसे मनके चार भेदों का वर्णन करके नवीनता लाने का भी खास कौशल दिखाया है। निस्सन्देह उनका योग शास्त्र जैन तत्त्वज्ञान और जैन आचार का एक पाठ्य ग्रन्थ है। १ समाधिरेष एवान्यः संप्रज्ञातोऽभिधीयते । सम्यक्प्रकर्षरूपेण वृत्यर्थज्ञानतस्तया ||४१८।। असंप्रज्ञात एषोऽपि समाधिगीयते परैः। निरुद्धाशेषवृत्त्यादितत्स्वरूपानुवेघतः ॥४२०॥ इत्यादि । योगबिन्दु। २ मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिर कान्ता प्रभा परा । नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधत ।। १३ ॥ ३ देखो प्रकाश ७-१० तक । र १२ वा प्रकाश श्लोक २-४ । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ - इसके बाद उपाध्याय-श्रीयशोविजयकृत योग ग्रन्थों पर नजर ठहरती है। उपाध्यायजी का शास्त्र ज्ञान, तर्क कौशल और योगानुभव बहुत गम्भीर था। इससे उन्होंने अध्यात्मसार, अध्यात्ममोपनिषद् तथा सटीक बत्तीस बत्तीसीयाँ योग संबन्धी विषयों पर लिखी हैं, जिनमें जैन मन्तव्यों की सूक्ष्म और रोचक मीमांसा करने के उपरान्त अन्य दर्शन और जैन दर्शन का मिलान भी किया है । इसके सिवा उन्होंने हरिभद्र सूरिकृत योग विशिका तथा षोडशक पर टीका लिख कर प्राचीन गूढ तत्त्वोंका स्पष्ट उद्घाटन भी किया है। इतना ही करके वे सन्तुष्ट नहीं हुए, उन्होंने महर्षि पतञ्जलिकृत योग सूत्रों के उपर एक छोटी सी वृत्ति जैन प्रक्रिया के अनुसार लिखी है, इसलिये उसमें यथासंभव योग दर्शन की भित्तिस्वरूप सांख्य-प्रक्रिया का जैन प्रक्रिया के साथ मिलान भी किया है, और अनेक स्थलों में उसका सयुक्तिक प्रतिवाद भी किया है। उपाध्यायजी ने अपनी विवेचना में जो मध्यस्थता, गुणग्राहकता, सूक्ष्म समन्वय शक्ति और स्वष्टभाषिता दिखाई २ है ऐसी दूसरे प्राचार्यों में बहुत कम नजर आती है। एक योगसार नामक ग्रन्थ भी श्वेताम्बर साहित्य में है। कर्ताका उल्लेख उसमें नही है, पर उसके दृष्टान्त आदि वर्णन से जान पड़ता है कि हेमचन्द्राचार्य के योगशास्त्र के श्राधार पर किसी श्वेताम्बर आचार्य के द्वारा वह रचा गया है । दिगम्बर साहित्य में ज्ञानावर्णय तो प्रसिद्ध ही है, पर ध्यानसार १ अध्यात्मसार के योगाधिकार और ध्यानाधिकार में प्रधानतया भगवद्गीता तथा पातञ्जल सूत्र का उपयोग करके अनेक जैनप्रक्रियाप्रसिद्ध ध्यान विषयों का उक्त दोनों ग्रन्थों के साथ समन्वय किया है, जो बहुत ध्यान पूर्वक देखने योग्य है । अध्यात्मोपनिषद् के शास्त्र, ज्ञान, क्रिया और साम्य इन चारों योगों में प्रधानतया योगवासिष्ठ तथा तैत्तिरीय उपनिषद् के वाक्यों का अवतरण दे कर तात्त्विक ऐक्य बतलाया है। योगावतार बत्तीसी में खास कर पातञ्जल योग के पदार्थों का जैन प्रकिया के अनुसार स्पष्टीकरण किया है। २ इसके लिये उनका ज्ञानसार जो उन्होंने अंतिम जीवन में लिखा मालूम होता है वह ध्यान पूर्वक देखना चाहिये। शास्त्रवार्तासमुच्चय को उनकी टीका (पृ. १०) भी देखनी आवश्यक है। ____३ इसके लिये उनके शास्त्रवार्तासमुच्चयादि अन्य ध्यानपूर्वक देखने चाहिये, और खास कर उनकी पातञ्जल सूत्रवृत्ति मनन पूर्वक देखने से हमारा कथन अक्षरशः विश्वसनीय मालूम पड़ेगा। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और योगप्रदीप ये दो हस्तलिखित ग्रन्थ भी हमारे देखने में आये है, जो पद्यबन्ध और प्रमाण में छोटे हैं। इसके सिवाय श्वेताम्बर संप्रदाय के योगविषयक ग्रन्थों का कुछ विशेष परिचय जैन ग्रन्थावलि पृ० १०६ से भी मिल सकता है । बस यहाँ तक ही में जैन योगसाहित्य समाप्त हो जाता है। बौद्ध सम्प्रदाय भ जैन सम्प्रदाय की तरह निवृत्ति प्रधान है। भगवान् गौतम बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्त होने से पहले छह वर्ष तक मुख्यतया ध्यानद्वारा योगाभ्यास ही किया। उनके हजारों शिष्य भी उसी मार्ग पर चले। मौलिक बौद्धग्रन्थों में जैन आगमों के समान योग अर्थ में बहुधा ध्यान शब्द ही मिलता है, और उसमें ध्यान के चार भेद नजर आते हैं। उक्त चार भेद के नाम तथा भाव प्रायः वही हैं, जो जैनदर्शन तथा योगदर्शन की प्रक्रिया में हैं। बौद्ध सम्प्रदाय में समाधिराज नामक ग्रन्थ भी है । वैदिक जैन और बौदसंप्रदाय के योग विषयक साहित्य का हमने बहुत संक्षेप में अत्यावश्यक परिचय १. सो खो अहं ब्राह्मण विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितकं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पदमझानं उपसंपज विहासि; वितकविचारानं वूपसमा अज्झत्तं संपसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितकं अविचारं समाधिज पीतिसुखं दुतियज्झानं उपसंपज विहासि; पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहासि; सतो च संपजानो सुखं च कायेन पटिसंवेदेसि, यं तं अरिया आचिक्खन्ति-उपेक्खको सतिमा सुखविहारी ति ततियज्झानं उपसंपज विहासि; सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थंगमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासति पारिसुद्धिं चतुत्थज्झानं उपसंपज विहासि-मज्झिमनिकाये भयमेरवसुतं । ___ इन्हीं चार नानों का वर्णन दीघनिकाय सामञकफलसुत्त में है। देखो प्रो. सि. वि. राजवाड़े कृत मराठी अनुवाद पृ. ७२ । वही विचार प्रो. धर्मानंद कौशाम्बीलिखित बुद्धलीलासार संग्रह में है। देखो पृ. १२८। जैनसूत्र में शुक्लध्यान के भेदों का विचार है, उसमें उक्त सवितर्क आदि चार ध्यान जैसा ही वर्णन है । देखो तत्त्वार्थ श्र०६ सू० ४१-४४ । ___ योगशास्त्र में संप्रज्ञात समाधि तथा समापत्तिों का वर्णन है। उसमें भी उक्त सवितर्क निर्वितर्क आदि ध्यान जैसा ही विचार है। पा. सू. पा. १-१७, ४२, ४३, ४४ } Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० कराया है, पर इसके विशेष परिचय के लिये- कट्लोगस् कॅटलॉगॉरम्', वो. १ पृ० ४७७ से ४८१ पर जो योगविषयक ग्रन्थों की नामावलि है वह देखने योग्य है। यहां एक बात खास ध्यान देने के योग्य है, वह यह कि यद्यपि वैदिक साहित्य में अनेक जगह हठयोग की प्रथा को अग्राह्य कहा है, तथापि उसमें हठयोग की प्रधानतावाले अनेक ग्रन्थों का और मार्गों का निर्माण हुआ है। इसके विपरीत जैन और बौद्ध साहित्य में हठयोगने स्थान नहीं पाया है, इतना ही नहीं, बल्कि उसमें हठयोग का स्पष्ट निषेध भी किया है। योगशास्त्र--- __ ऊपर के वर्णन से मालूम हो जाता है कि-योगप्रक्रिया का वर्णन करनेवाले छोटे बड़े अनेक ग्रन्थ हैं । इन सब उपलब्ध ग्रन्थों में महर्षि पतञ्जलिकृत १ थिआडोरे अाउमटकृत लिझिग में प्रकाशित १८६१ की आवृत्ति । २ उदाहरणार्थः - सतीषु युक्तिवेतासु हठानियमयन्ति ये। चेतस्ते दीपमुत्सृज्य विनिघ्नन्ति तमोऽअनैः ।।३७॥ विमूढाः कर्तुमुद्यता ये हठाच्चेतसो जयम् । ते निबध्नन्ति नागेन्द्रमुन्म विसतन्तुभिः ।।३।। चित्तं चित्तस्य वाऽदूरं संस्थितं स्वशरीरकम् । साधयन्ति समुत्सृज्य युक्तिं ये तान्हतान् विदुः ॥३६॥ योगवासिष्ठ-उपशम प्र. सर्ग ६२. ३ इसके उदाहरण में बौद्ध धर्म में बुद्ध भगवान् ने तो शुरू में कष्टप्रधान तपस्या का प्रारंभ करके अंत में मध्यमप्रतिपदा मार्ग का स्वीकार किया हैदेखो बुद्धलीलाहारसंग्रह। . जैनशास्त्र में श्रीभद्रबाहुस्वामिने आवश्यकनियुक्ति में 'ऊसासं ण णिसंभई' १५२० इत्यादि उक्ति से हठयोगका ही निराकरण किया है। श्रीहेमचन्द्राचार्य ने भी अपने योगशास्त्र में तनाप्नोति मन स्वास्थ्यं प्राणायामः कथितं । प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्यात् चित्तविप्लवः ।।' इत्यादि उक्ति से उसी बात को दोहराया है। श्रीयशोविजयजी ने भी पातञ्जलयोगसूत्र की अपनी वृत्ति में (१-३४) प्राणायाम को योग का अनिश्चित साधन कह कर हठयोग का ही मिरसन किया है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૫ योगशास्त्र का आसन ऊंचा है। इसके तीन कारण हैं- १ ग्रन्थ की संक्षिप्तता तथा सरलता, २ विषय की स्पष्टता तथा पूर्णता, ३ मध्यस्थभाव तथा अनुभवसिद्धता । यही करण है कि योगदर्शन यह नाम सुनते ही सहसा पातञ्जल योगसूत्र का स्मरण हो आता है । श्रीशंकराचार्य ने अपने ब्रह्मसूत्रभाष्य में योगदर्शन का प्रतिवाद करते हुए जो 'अथ सम्यग्दर्शनाभ्युपायो योगः' ऐसा उल्लेख किया है, उससे इस बात में कोई संदेह नहीं रहता कि उनके सामने पातञ्जल योगशास्त्र से भिन्न दूसरा कोई योगशास्त्र रहा है क्यों कि पातञ्जल योगशास्त्र का श्रारम्भ 'अथ योगानुशासनम्' इस सूत्र से होता है, और उक्त भाष्यो लिखित वाक्य में भी ग्रन्थारम्भसूचक अथशब्द है, यद्यपि उक्त भाष्य में अन्यत्र और भी योगसम्बन्धी दो' उल्लेख हैं, जिनमें एक तो पातञ्जल योगशास्त्र का संपूर्ण सूत्र ही है, और दूसरा उसका अविकल सूत्र नहीं, किन्तु उसके सूत्र से मिलता जुलता है । तथापि 'अथ सम्यग्दर्शनाम्युपायो योग: इस उल्लेख की शब्दरचना और स्वतन्त्रता की ओर ध्यान देनेसे यही कहना पड़ता है कि पिछले दो उल्लेख भी उसी भिन्न योगशास्त्र के होने चाहिये, जिसका कि अंश 'थ सम्यग्दर्शनाभ्युपायो योगः' यह वाक्य माना जाय । अस्तु, जो कुछ हो, श्राज हमारे सामने तो पतञ्जलि का ही योगशास्त्र उपस्थित है, और वह सर्वप्रिय है । इसलिये बहुत संक्षेप में भी उसका बाह्य तथा श्रान्तरिक परिचय कराना अनुपयुक्त न होगा | 3 इस योगशास्त्र के चार पाद और कुल सूत्र १६५ हैं । पहले पादका नाम समाधि, दूसरे का साधन, तीसरे का विभूति, और चौथे का कैवल्यपाद है । प्रथमपाद में मुख्यतया योग का स्वरूप, उसके उपाय और चित्तस्थिरता के १ ब्रह्मसूत्र २-१-३ भाष्यगत । २ "स्वाध्यायादिष्टदेवता संप्रयोगः' ब्रह्मसूत्र १-३-३३ भाष्यगत । योगशास्त्रप्रसिद्धाः मनसः पञ्च वृत्तयः परिगृह्यन्ते, 'प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः नाम' २-४- १२ भाष्यगत । पं वासुदेव शास्त्री अभ्यंकरने अपने ब्रह्मसूत्र के मराठी अनुवाद के परिशिष्ट में उक्त दो उल्लेखों का योगसूत्ररूप से निर्देश किया है, पर 'अथ सम्यग्दर्शनाभ्युपायो योगः ' इस उल्लेख के संबंध में कहीं भी ऊहापोह नहीं किया है। ३ मिलाश्रो पा २ सू. ४ । ४ मिलाओ पा. १ सू, ६ । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपायों का वर्णन है। दूसरे पाद में क्रियायोग, पाठ योगाल, उनके फल तथा चतुव्यूह' का मुख्य वर्णन है। तीसरे पादमें योगजन्य विभूतियों के वर्णन की प्रधानता है। और चोने पाद में परिणामवाद के स्थापन, विज्ञानवाद के निराकरण तथा कैवल्य अवस्था के स्वरूप का वर्णन मुख्य है। महर्षि पतञ्जलि ने अपने योगशास्त्र की नींव सांख्यसिद्धान्त पर डाली है । इसलिये उसके प्रत्येक पाद के अन्त में 'योगशास्त्रे सांख्यप्रवचने' इत्यादि उल्लेख मिलता है। 'सांख्यप्रवचने' इस विशेषण से यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि सांख्य के सिवाय अन्यदर्शन के सिद्धांतों के आधार पर भी रचे हुए योगशास्त्र उस समय मौजुद थे या रचे जाते थे। इस योगशास्त्र के ऊपर अनेक छोटे बड़े टीका ग्रन्थ हैं, पर व्यासकृत भाष्य और वाचस्पतिकृत टीका से उसकी उपादेयता बहुत बढ़ गई है। सब दर्शनों के अन्तिम साध्य के सम्बन्ध में विचार किया जाय तो उसके दो पक्ष दृष्टिगोचर होते हैं । प्रथम पक्ष का अन्तिम साध्य शाश्वत सुख नहीं है। उसका मानना है कि मुक्ति में शाश्वत सुख नामक कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, उसमें जो कुछ है वह दुःख की प्रात्यन्तिक निवृत्ति ही। दूसरा पक्ष शाश्वतिक सुखलाभको ही मोक्ष कहता है । ऐसा मोक्ष हो जानेपर दुःख की प्रात्यन्तिक निवृत्ति आप ही आप हो जाती है। वैशेषिक, नैयायिक, सांख्य, योग५ और बौद्धदर्शन प्रथम पद के अनुगामी हैं । वेदान्त और जैनदर्शन, दूसरे पक्षके अनुगामी हैं। १ हेय, हेयहेतु, हान, हानोपाय ये चतुयूंह कहलाते हैं। इनका वर्णन सूत्र १६-२६ तक में है। २ व्यासकृत भाष्य, वाचस्पतिकृत तत्त्ववैशारदी टीका, भोजदेवकृत राजमार्तड, नागोलीभट्ट कृत वृत्ति, विज्ञानभिक्षु कृत वार्तिक, योगचन्द्रिका, मणिप्रभा, वालरामोदासीन कृत टिप्पणं आदि । ३ 'तदत्यन्तविमोक्षोपवर्ग:: न्यायदर्शन १-१-२२ । ४ ईश्वरकृष्णकारिका १। ५ उसमें हानतत्व मान कर दुःख के प्रात्यन्तिक नाशको ही हान कहा है | • ६ बुद्ध भगवान् के तीसरे निरोध नामक प्रार्यसत्य का मतलब दुःख नाश ७ वेदान्त दर्शन में ब्रह्म को सचिदानंदस्वरूप माना है, इसीलिये उसमें नित्यसुख की अभिव्यक्ति का नाम ही मोक्ष है। ८जैन दर्शनमें भी प्रात्मा को सुखस्वरूप माना है, इसलिये मोन में स्वाभाविक सुख की अभिव्यक्ति ही उस दर्शन को मान्य है । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५.३ योगशास्त्र का विषय-विभाग उसके अन्तिम साध्यानुसार ही है । उसमें गौण मुख्य रूप से अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित हैं, पर उन सबका संक्षेप में वर्गीकरण किया जाय तो उसके चार विभाग हो जाते हैं । १ हेय २ हेय-हेतु ३ हान ४ हानोपाय | यह वर्गीकरण स्वयं सूत्रकार ने किया है । और इसीसे भाष्यकार ने योगशास्त्र को चारव्यूहात्मक कहा' है । सांख्यसूत्र में भी यही वर्गीकरण है । बुद्ध भगवान् ने इसी चतुर्व्यूह को आर्यसत्य नाम से प्रसिद्ध किया है । और योगशास्त्र के आठ योगाङ्गों की तरह उन्होंने चौथे आर्य-सत्य के साधनरूप से श्रार्य अष्टाङ्गमार्ग का उपदेश किया है । ર दुःख हेय है, विद्या हेय का कारण है, दुःख का प्रात्यन्तिक नाश हान है, और विवेकख्याति हान का उपाय है । ५ उक्त वर्गीकरण की अपेक्षा दूसरी रीति से भी योग शास्त्र का विषय-विभाग किया जा सकता है । जिससे कि उसके मन्तब्यों का ज्ञान विशेष स्पष्ट हो । यह विभाग इस प्रकार है-१ हाता २ ईश्वर ३ जगत् ४ संसार - मोक्षका स्वरूप, और उसके कारण । १ हाता दुःख से छुटकारा पानेवाले द्रष्टा अर्थात् चेतन का नाम है । योगःशास्त्र में सांख्य वैशेषिकट, नेयायिक, बौद्ध, जैन और पूर्णप्रज्ञ १ यथा चिकित्साशास्त्रं च चतुब्यू इम् - रोगो रोगहेतुरारोग्यं भैषज्यमिति एवमिदमपि शास्त्रं चतुर्व्यूहमेव । तद्यथा - संसारः संसारहेतुर्मोक्षो मोक्षोपाय इति । तत्र दुःखहुलः संसारो हेयः । प्रधानपुरुषयोः संयोगो हेयहेतुः । संयोगस्यात्यन्तिकी निवृत्तिर्ज्ञानम् । हानोपायः सम्यग्दर्शनम् । पा० २ सू० १५ भाप्य । २ सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाचा, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् श्राजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि । बुद्धलीलासार संग्रह, पृ० १५० । ३ 'दुःखं हेयमनागतम्' २ - १६ यो. सू । ४ 'द्रष्टृदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः २ - १७ । 'तस्य हेतुरविद्या' २ - २४ यो. सू. । ५. 'तदभावात् संयोगाभावो हानं तद् दृशेः कैवल्यम्' २ - २६ मो. सू. । ६ 'विवेकख्यातिर विप्लवा हानोपायः २-२६. यो. सू । ७ 'पुरुषत्वं सिद्ध' ईश्वरकृष्ण कारिका १८ । ८' व्यवस्थातो नाना' - ३-२-२० वैशेषिक दर्शन । 'पुद्गल जीवास्त्वनेकद्रव्याणि " -५ -५ तत्त्वार्थ सूत्र - भाष्य । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ( मध्व' ) दर्शन के समान द्वैतवाद अर्थात् अनेक चेनत माने गये हैं । योग शास्त्र चेतन को जैन दर्शन की तरह देह प्रमाण अर्थात् मध्यमपरिमाण वाला नहीं मानता, और मध्वसम्प्रदायकी तरह ऋणु प्रमाण भी नहीं मानता ४, किन्तु सख्यि, वैशेषिक, नैयायिक और शांकर वेदान्तकी तरह वह उसको व्यापक मानता है" । १ इसी प्रकार वह चेतन को जैन दर्शनकी तरह परिणामी नित्य नहीं मानता, और न बौद्ध दर्शन की तरह 3कको क्षणिक- अनित्य ही मानता है, किन्तु सांख्य श्रादि उक्त शेष दर्शनों की तरह वह उसे कूटस्थ - नित्न मानता ११ है । १० १ जीवेश्वरभिदा चैव जडेश्वरभिदा तथा । जीवमेदो मिथचैव जडजीवभिदा तथा ॥ मिथश्च जडभेदो यः प्रपञ्चो भेदपञ्चकः । सोऽयं सत्योऽप्यनादिश्च सादिश्चेन्नाशमाप्नुयात् ॥ सर्वदर्शन संग्रह पूर्णप्रज्ञ दर्शन || २ ' कृतार्थं प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात्' २ - २२ यो सू । ३ 'असंख्येयभागादिषु जीवानाम्' | १५ | 'प्रदेश संहार विसर्गाभ्यां प्रदीपवत्' १६ | तत्त्वार्थ सूत्र ० ५ । ४ देखो 'उत्क्रान्तिगत्यागतीनाम् । ब्रह्मसूत्र २-३-१८ पूर्ण प्रज्ञ भाष्य । तथा मिलान करो अभ्यंकर शास्त्री कृत मराठी शांकरभाष्य अनुवाद भा० ४ पृ० १५३ टिप्पण ४६ । ५ 'निष्क्रियस्य तदसम्भवात्' सां० सू० १ ४६ निष्क्रियस्य - विभोः पुरुषस्य गत्यसम्भवात् - भाष्य विज्ञानभिक्षु । ६ 'विभवान्महानाकाशस्तथा चात्मा । ७-१-२२- वै द । ७ देखो ब्र० सू २-३-२६ भाष्य | ८ इसलिये कि योगशास्त्र आत्मस्वरूप के विषय में सांख्य सिद्धान्तासारी है । E 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि ३ । ' उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । २६ । 'तद्भावाव्ययं नित्यम्' ३० - तत्त्वार्थ सूत्र श्र० ५ भाष्य सहित । १० देखो ई० कृ० कारिका ६३ सांख्यतत्त्व कौमुदी । देखो न्यायदर्शन ४-११० | देखो ब्रह्मसूत्र २-१-१४ । २-१-२७ | शांकरभाष्य सहित | ११ देखो योगसूत्र 'सदाज्ञाताश्चित्तद्वृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुषस्य परिणामित्वात्' ४- १८ । 'चितेरप्रतिसंक्रमायास्तदाऽकारापत्तौ स्वबुद्धिसंवेदनम् ' ४, २२ । तथा Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ २ ईश्वर के सम्बन्ध में योगशास्त्र का मत सांख्य दर्शन से भिन्न है। सांख्य दर्शन नाना चेतनों के अतिरिक ईश्वर को नहीं मानता', पर योगशास्त्र मानता है। योगशास्त्र-सम्मत ईश्वर का स्वरूप नैयायिक, वैशेषिक आदि दर्शनों में माने गये ईश्वर स्वरूप से कुछ भिन्न है। योगशास्त्र ने ईश्वर को एक अलग व्यक्ति तथा शास्त्रोपदेशक माना है सही, पर उसने नैयायिक श्रादि की तरह ईश्वर में नित्यज्ञान, नित्य इच्छा और नित्यकृतिका सम्बन्ध न मान कर इसके स्थान में सत्त्वगुण का परमप्रकर्ष मान कर तवारा जगत् उद्धारादि की सब व्यवस्था घटा दी है। ३ योगशास्त्र दृश्य जगत् को न तो जैन, वैशेषिक, नैयायिक दर्शनों की तरह परमाणु का परिणाम मानता है, न शांकरवेदान्त दर्शन की तरह ब्रह्मका विवर्त या ब्रह्म का परिणाम ही मानता है, और न बौद्ध दर्शन की तरह शून्य या विज्ञानात्मक ही मानता है, किन्तु सांख्य दर्शन की तरह वह उसको प्रकृतिका परिणाम तथा अनादि-अनन्त-प्रवाह स्वरूप मानता है। ४ योगशास्त्र में वासना, क्लेश और कर्मका नाम ही संसार तथा वासनादि का अभाव अर्थात् चेतन के स्वरूपावस्थान का नाम ही मोक्ष है। उसमें संसार का मूल कारण अविद्या और मोक्ष का मुख्य हेतु सम्यग्दर्शन अर्थात् योगजन्य विवेकख्याति माना गया है। महर्षि पतञ्जलिकी दृष्टिविशालता ___ यह पहले कहा जा चुका है कि सांख्य सिद्धांत और उसकी प्रक्रिया को ले कर पतञ्जलि ने अपना योगशास्त्र रचा है, तथापि उनमें एक ऐसी विशेषता अर्थात् दृष्टिविशालता नजर आती है जो अन्य दार्शनिक विद्वानों में बहुत कम पाई जाती है । इसी विशेषता के कारण उनका योगशास्त्र मानों सर्वदर्शन 'यी चेयं नित्यता, कटस्थनित्यता, परिणामिनित्यता च । तत्र कूटस्थनित्यता पुरुषस्य, परिणामिनित्यता गुणानाम्' इत्यादि ४-३३ भाष्य । १ देखो सांख्य सूत्र १-६२ श्रादि । २ यद्यपि यह व्यवस्था मूल योग सूत्र में नहीं है, परन्तु भाष्यकार तथा टीकाकारने इसका उपपादन किया है । देखो पातञ्जल योग सू.पा १सू २४ भाष्य तथा टीका । ३ तदा द्रष्टः स्वरूपावस्थानम् । १.३ योग सूत्र । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ समन्वय बन गया है। उदाहरणार्थ सांख्य का निरीश्वरवाद जब वैशेषिक, नैयायिक श्रादि दर्शनों के द्वारा अच्छी तरह निरस्त हो गया और साधारण लोकस्वभावका झुकाव भी ईश्वरोपासना को ओर विशेष मालूम पड़ा, तब अधिकारिभेद तथा रुचि विचित्रता का विचार करके पतञ्जलि ने अपने योगमार्ग में ईश्वरोपासना को भी स्थान दिया, और ईश्वर के स्वरूप का उन्होंने निष्पक्ष भाव से ऐसा निरूपण किया है जो सबको मान्य हो सके। पतञ्जलि ने सोचा कि उपासना करनेवाले सभी लोगों का साध्य एक ही है, फिर भी वे उपासना की भिन्नता और उपासना में उपयोगी होनेवाली प्रतीकों की भिन्नता के व्यामोह में अज्ञानवश आपस आपस में लड़ मरते हैं, और इस धार्मिक कलह में अपने साध्य को लोक भूल जाते हैं। लोगों को इस अज्ञान से हटा कर सत्पथ पर लाने के लिये उन्होंने कह दिया कि तुम्हारा मन जिसमें लगे उसी का ध्यान करो। जैसी प्रतीक तुम्हें पसन्द आवे वेसी प्रतीक 3 की ही उपासना करो, पर किसी भी तरह अपना मन एकाग्र व स्थिर करो। और तद्द्वारा परमात्मचिन्तन के सच्चे पात्र बनों। इस उदारता की मर्तिस्वरूप मतभेदसहिष्णु आदेश के द्वारा पतञ्जलि ने सभी उपासकों को योगमार्ग में स्थान दिया, और ऐसा करके धर्म के नामसे होनेवाले कलहको कम करनेका उन्होंने सच्चा मार्ग लोगों को बतलाया। उनकी इस दृष्टि विशालता १ 'ईश्वरप्रणिधानाद्वा' १-३३ । २ 'क्लेशकर्मविपाकाशरैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः' 'तत्र निरतिशय सर्वशबीजम् । पूर्वेषामपि गुरुः कालेनाऽनवच्छेदात्' । १-२४, २५, २६ ।। ३ 'यथाऽभिमतध्यानाद्वा' १-३६ इसी भाव की सूचक महाभारत में यह उक्ति है-- ध्यानमुत्पादयत्यत्र, संहिताबलसंश्रयात् । यथाभिमतमन्त्रेण, प्रणवाद्यं जपेत्कृती ॥ शान्तिपर्व प्र० १६४ श्लोक. २० और योगवासिष्ठ में कहा हैयथाभिवाञ्छितध्यानाच्चिरमेकतयोदितात् । एकतत्त्वधनाभ्यासात्प्राणस्पन्दो निरुध्यते । उपशम मकरण सर्ग ७८ श्लो. १६ । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ का असर अन्य गुणग्राही श्राचार्यों पर भी पड़ा', और वे उस मतभेदसहिष्णुता के तत्त्व का मर्म समझ गये । १. पुष्यैश्च बलिना चैव वस्त्रैः स्तोत्रैश्च शोभनैः । देवानां पूजनं ज्ञेयं शौचश्रद्धासमन्वितम् ॥ विशेषेण सर्वेषामधिमुक्तिवशेन वा । गृहिणां माननीया यत्सर्वे देवा महात्मनाम् || सर्वान्देवान्नमस्यन्ति नैकं देवं समाश्रिताः । जितेन्द्रिया जितक्रोधा दुर्गायतितरन्ति ते ॥ चारिसंजीवनीचारन्याय एष सतां मतः । नान्यथात्रेष्टसिद्धिः स्याद्विशेषेणादिकर्मणाम् ॥ गुणाधिक्यपरिज्ञानाद्विशेषेऽप्येतदिष्यते । श्रद्वेषेण तदन्येषां वृत्ताधिक्ये तथात्मनः ॥ योगबिन्दु श्लो १६-२० जो विशेषदर्शी होते हैं, वे तो किसी प्रतीक विशेष या उपासना विशेष को स्वीकार करते हुए भी अन्य प्रकार की प्रतीक मानने वालों या अन्य प्रकार की उपासना करने वालों से द्वेष नहीं रखते, पर जो धर्माभिमानी प्रथमाधिकारी होते हैं वे प्रतीकभेद या उपासनाभेद के व्यामोह से ही श्रापस में लड़ मरते हैं । इस अनिष्ट तत्त्वको दूर करने के लिये ही श्रीमान् इरिभद्र सूरिने उक्त पद्यों में प्रथमाधिकारी के लिये सब देवों की उपासना को लाभदायक बतलाने का उदार प्रयत्न किया है। इस प्रयत्नका अनुकरण श्री यशोविजयजीने भी अपनी 'पूर्वसेवाद्वात्रिंशिका' 'आठ दृष्टियों की सज्झाय' आदि ग्रन्थो में किया है । एकदेशीयसम्प्रदायाभिनिवेशी लोगों को समजाने के लिये 'चारिसंजीवनीचार न्याय का उपयोग उक्त दोनों श्राचार्यों ने किया है । यह न्याय बड़ा मनोरञ्जक और शिक्षाप्रद है । इस समभावसूचक दृष्टान्त का उपनय श्रीज्ञानविमलने आठ दृष्टि की सज्झाय पर किये हुए अपने गूजराती टबे में बहुत अच्छी तरह घटाया है, जो देखने योग्य है । इसका भाव संक्षेप में इस प्रकार है । किसी स्त्री ने अपनी सखी से कहा कि मेरा पति मेरे अधीन न होने से मुझे बड़ा कष्ट है, यह सुन कर उस आगन्तुक सखी ने कोई जड़ी खिला कर उस पुरुषको बैल बना दिया, और वह अपने स्थान को चली गई । पतिके बैल बन जाने से उसकी पत्नी दुःखित हुईं, पर फिर वह पुरुष रूप बनाने का उपाय न जानने के कारण उस बैल रूप पतिको चराया १७ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E वैशेषिक, नैयायिक आदि की ईश्वर विषयक मान्यता का तथा साधारण लोगों की ईश्वर विषयक श्रद्धा का योगमार्ग में उपयोग करके ही पतञ्जलि चुप न रहे, पर उन्होंने वैदिकेतर दर्शनों के सिद्धान्त तथा प्रक्रिया जो योगमार्ग के लिये सर्वथा उपयोगी जान पड़ी उसका भी अपने योगशास्त्र में बड़ी उदारता से संग्रह किया । यद्यपि बौद्ध विद्वान् नागार्जुन के विज्ञानवाद तथा श्रात्मपरिणामित्ववाद को युक्तिहीन समझ कर या योगमार्ग में अनुपयोगी समझ कर उसका निरसन चौथे पादमें किया है, तथापि उन्होंने बुद्ध भगवान् के परमप्रिय चार आर्यसत्यों का हेय, हेयहेतु, हान और होनोपाय रूपसे स्वीकार नि.संकोच भाव से अपने योगशास्त्र में किया है । जैन दर्शन के साथ योगाशास्त्र का सादृश्य तो अन्य सब दर्शनों की अपेक्षा अधिक ही देखने में आता है । यह बात स्पष्ट होने पर भी बहुतों को विदित ही नहीं है, इसका सच यह है कि जैन दर्शन के खास अभ्यासी ऐसे बहुत कम हैं जो उदारता पूर्वक योगशास्त्र का अवलोकन करनेवाले हों, और योगशास्त्र के खास अभ्यासी भी ऐसे बहुत कम हैं जिन्होंने जैनदर्शन का बारीकी से ठीकठीक अवलोकन किया हो। इसलिये इस विषय का विशेष खुलासा करना यहाँ अप्रासङ्गिक न होगा । करती थी, और उसकी सेवा किया करती थी । किसी समय अचानक एक विद्याधर के मुख से ऐसा मुना कि अगर बैल रूप पुरुष को संजीवनी नामक जड़ी चराई जाय तो वह फिर असली रूप धारण कर सकता है । विद्याधर से यह भी सुना कि वह जड़ी अमुक वृक्ष के नीचे है, पर उस वृक्ष के नीचे अनेक प्रकार की बनस्पति होने के कारण वह स्त्री संजीवनी को पहचानने में असमर्थ थी। इससे उस दुःखित स्त्री ने अपने बैलरूपधारी पतिको सब बनस्पतियाँ चरा दों। जिनमें संजीवनी को भी वह बैल चर गया, और बैल रूप छोड़कर फिर मनुष्य बन गया । जैसे विशेष परीक्षा न होने के कारण उस स्त्री ने सत्र वनस्पतियों के साथ संजीवनी खिलाकर अपने पतिका और पली मनुष्यत्व को प्राप्त कराया, वैसे ही विशेष परीक्षाविकल प्रथमाधिकारी भी सब देवों की समभाव से उपासना करते करते योगमार्ग में विकास करके इष्ट लाभ कर सकता है । कृत्रिम बैल रूप छुड़ाया, १ देखो सू० १५, १८ । २ दुःख, समुदय, निरोध और मार्ग । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૫૯ योगशास्त्र और जैनदर्शन का सादृश्य मुख्यतया तीन प्रकार का है । २ शब्द का, २ विषय का और ३ प्रक्रिया का । १ मूल योगसूत्र में ही नहीं किन्तु उसके भाष्यतक में ऐसे अनेक शब्द हैं जो जैनेतर दर्शनों में प्रसिद्ध नहीं हैं, या बहुत कम प्रसिद्ध हैं, किन्तु जैन शास्त्र में खास प्रसिद्ध हैं । जैसे-भवप्रत्यय, १ सवितर्क सविचार निर्विचार, महाव्रत, 3 कृत कारित अनुमोदित ४, प्रकाशावरण", सोपक्रम निरुपक्रम, वज्रसंहनन, केवली, कुशल, ज्ञानावरणीय कर्म १०, सम्यग्ज्ञान ११, 1 योगसू. १ - १६ । 'मत्रप्रत्ययो " १ " भवप्रत्ययो विदेह प्रकृततिलयानाम्" नारकदेवानाम्' तत्त्वार्थ अ. १-२२ । २ ध्यान विशेष अर्थ में ही जैनशास्त्र में ये शब्द इस प्रकार हैं 'एकाश्रये सवितर्के पूर्वे' ( तत्त्वार्थ श्र. ६ - ४३ ) ' तत्र सविचारं प्रथमम् ' भाष्य ' श्रविचाएं द्वितीयम्' तत्त्वा - ६-४४ । योगसूत्र में ये शब्द इस प्रकार आये हैं— 'तत्र शब्दार्थज्ञानत्रिकल्पैः संकोर्खा सवितर्का समापत्तिः' 'स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्ये कार्थमात्रनिर्माता निर्वितर्का' 'एतयैव सविचारा निविचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता' १-४२, ४२, ४४ | ३ जैनशास्त्र में मुनि सम्बन्धी पाँच यमों के लिये यह शब्द है | 'सर्वतो विरतिर्महाव्रतमिति' तत्वार्थ श्र० ७ -२ भाष्य । अर्थ में योगसूत्र २ - ३१ में है । ४ ये शब्द जिस भाव के लिये योगसूत्र २-३१ में प्रयुक्त हैं, उसी भाव में जैनशास्त्र में भी आते हैं, अन्तर सिर्फ इतना है कि जैनग्रन्थों में अनुमोदित के मैं बहुधा अनुमतशब्द प्रयुक्त होता है । देखो -तत्त्वार्थ, श्र, ६-६ । ५. यह शब्द योगसूत्र २ - ५२ तथा ३-४३ में है । इसके स्थान में जैनI शास्त्र में 'ज्ञानावरण' शब्द प्रसिद्ध है । देखो तत्वार्थ श्र. ६-११ आदि । स्थान ६ ये शब्द योगसूत्र ३ - २२ में हैं । जैन कर्मविषयक साहित्य में ये शब्द बहुत प्रसिद्ध हैं । तत्त्वार्थ में भी इनका प्रयोग हुआ है, देखो -२-५२ भाष्य ! १ ७ यह शब्द योगसूत्र ( ३ - ४६ ) में प्रयुक्त है । इसके स्थान में जैन ग्रन्थों में 'वज्रऋषभनाराचसंहनन' ऐसा शब्द मिलता है । देखो तत्वार्थ ( श्र० ८ - १२ ) भाष्य । बहुत ही प्रसिद्ध यही शब्द उसी ८ योगसूत्र (२-२७ ) भाष्य, तवार्थ ( ० ६–१४ ) । ६ देखो योगसूत्र (२-२७ ) भाष्य, तथा दशवैकालिकनिर्युकि गाथा १८६ | १० देखो योगसूत्र ( २ - ५१ ) भाष्य तथा आवश्यक निर्युक गाथा ८६३ । ११ योगसूत्र (२-२८ ) भाग्य, तत्रार्थ ( श्र० १-१ ) । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० सम्यग्दर्शन', सर्वज्ञ े, क्षीणक्लेश, चरमदेह २ प्रसुप्त, तनु आदि क्लेशावस्था", पाँच यम, सोपक्रम निरूपक्रम कर्म का स्वरूप, तथा उसके १ योगसूत्र ( ४–१५ ) भाग्य, तत्वार्थ ( २ योगसूत्र ( ३-४६ ) भाष्य, तत्त्वार्थ ( ० १-२ ) । ३-४६ )। I ३ योगसूत्र (१-४) भाष्य । जैन शास्त्र में बहुधा 'क्षीण मोह' 'क्षीणकषाय' शब्द मिलते हैं। देखो तत्वार्थ ( आदि । योगजन्य विभूति, दृष्टान्त, अनेक ० ६-३८ ) । ४ योगसूत्र ( २-४ ) भाष्य, तत्त्वार्थ ( ० २ - ५२ ) । ५. प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार इन चार अवस्थानों का योग ( २-४) में वर्णन है । जैनशास्त्र में वही भाव मोहनीयकर्म की सत्ता, उपशम क्षयोपशम, विरोधिप्रकृति के उदयादिकृत व्यवधान और उदयावस्था के वर्णनरूप से वर्तमान है । देखो योगसूत्र ( २-४ ) की यशोविजयकृत वृत्ति । ६ पाँच यमका वर्णन महाभारत आदि ग्रन्थो में है सही, पर उसकी परिपूर्णता " जातिदेशकाल समयाऽनवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ” ( योगसूत्र २- ३१ ) में तथा दशकालिक अध्ययन ४ आदि जैनशास्त्रप्रतिपादित महाव्रतों में देखने में आती है । २ ७ योगसूत्र के तीसरे पाद में विभूतियों का वर्णन है, वे विभूतियाँ दो प्रकार की हैं । १ वैज्ञानिक र शारीरिक । अतीतानागतज्ञान, सर्वभूतस्तज्ञान, पूर्वजातिज्ञान, परचितज्ञान, भुवनज्ञान, ताराग्यूहज्ञान, आदि ज्ञानत्रिभूतियाँ हैं । अन्तर्धान हस्तिबल, परकायप्रवेश, अणिमादि ऐश्वर्य तथा रूपलावण्यादि कायसंपत्, इत्यादि शारीरिक विभूतियाँ हैं । जैनशास्त्र में भी अवधिज्ञान, मन:1 पर्यायज्ञान, जातिस्मरण, पूर्वज्ञान श्रादि ज्ञानलब्धियाँ हैं, और श्रामौषधि, विडौषधि, श्लेष्मौषधि, सर्वोषधि, जंघाचारण, विद्याचारण, वैक्रिय, आहारक यदि शारीरिक लब्धियाँ हैं । देखो आवश्यक निर्युक्त ( गा० ६६, ७० ) लब्धि यह विभूतिका नामान्तर है । ८ योगभाष्य और जैनग्रन्थों में सोपक्रम निरुपक्रम श्रायुष्कर्म का स्वरूप बिल्कुल एकसा है, इतना ही नहीं बल्कि उस स्वरूप को दिखाते हुए भाष्यकार ने यो. सू. ३- २२ के भाष्य में श्रार्द्र वस्त्र और तृपराशि के जो दो दृष्टान्त लिखे हैं, वे आवश्यकनिर्युक्ति ( गाथा - ६५६ ) तथा विशेषावश्यक भाष्य (गाथा - ३०६१) श्रादि जैनशास्त्र में सर्वत्र प्रसिद्ध हैं, पर तत्त्वार्थ ( ० - २. ५२ ) के भाष्य में दो दृष्टान्तों के उपरान्त एक तीसरा गणितविषयक दृष्टान्त भी लिखा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ कायोंका' निर्माण श्रादि । ३ परिणामि-नित्यता अर्थात् उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप से त्रिरूप वस्तु मान कर तदनुसार धर्मधर्मी का निवेचन इत्यादि । है । इस विषय में उक्त व्यासभाष्य और तत्त्वार्थभाष्यका शाब्दिक सादृश्य भी बहुत अधिक और अर्थसूचक है--- ___यथाऽऽवस्त्रं वितानितं लघीयसा कालेन शुध्येत् तथा सोपक्रमम् । यथा च तदेव संपिण्डितं चिरेण संशुष्येद् एवं निरुपक्रमम् । यथा चाग्निः शुष्के कक्षे मुक्तो वातेन वा समन्ततो युक्तः क्षेपीयसा कालेन दहेत् तथा सोपक्रमम् । यथा वा "स एवाऽग्निस्तृणराशौ क्रमशोऽवयवेषु न्यस्तश्चिरेण दहेत् तथा निरूपक्रमम् (योग, ३-२२) भाष्य । “यथा हि संहतस्य शुष्कस्यापि तृणराशेरवयवशः क्रमेण दह्यमानस्य चिरेण दाहो भवति, तस्यैव शिथिलप्रकीर्णोपचितस्य सर्वतो युगपदादीपितस्य पक्नोपक्रमाभिहतस्थाशु दाहो भवति, तद्वत् । यथा वा संख्यानाचार्य: करणलाघवार्थ गुणकारभागहाराभ्यां राशि छेदादेवापवर्तयति न च संख्येयस्यार्थस्याभावो भवति, तद्वदुपक्रमामिहतो मरणसमुद्घातदुःस्त्रातः कर्मप्रत्ययमनाभोगयोगपूर्वकं करण विशेषमुत्पाद्य फलोपभोगलाघवार्थ कर्मापवर्तयति न चास्य फलाभाव इति ॥ किं चान्यत् । यथा वा धौतपटो जलार्द्र एव संहतचिरेण शोषमुपयाति । स एव च वितानितः सूर्यरश्मिवायभिहतः क्षिप्रं शोषमुपयाति ।" अ० २-५२ भाष्य। १ योगबल से योगी जो अनेक शरीरों का निर्माण करता है, उसका वर्णन योगसूत्र (४-४) में है, यही विषय वैक्रिक-श्राहारक-लब्धिरूप से जैनग्रन्थों में वर्णित है। __ २ जैनशास्त्र में वस्तु को द्रव्यपर्यायस्वरूप माना है। इसीलिये उसका लक्षण तत्त्वार्थ ( अ० ५-२६ ) में "उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्" ऐसा किया है । योगसूत्र ( ३-१३, १४ ) में जो धर्मधर्मी का विचार है वह उक्त द्रव्यपर्यायउभयरूपता किंवा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इस त्रिरूपता का ही चित्रण है। भिन्नता सिर्फ दोनों में इतनी ही है कि-योगसूत्र सांख्यसिद्धान्तानुसारी होने से "ऋते चितिशक्तः परिणामिनो भावा" यह सिद्धान्त मानकर परिणामवाद का अर्थात् धर्मलक्षणावस्थापरिणाम का उपयोग सिर्फ जडभाग में अर्थात् प्रकृति में करता है, चेतन में नहीं । और जैनदर्शन तो "सवें भावाः परिणामिनः" ऐसा सिद्धान्त मानकर परिणामवाद अर्थात् उत्पादन्ययरूप पर्यायका उपयोग जड़ चेतन Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी विचारसमता के कारण श्रीमान् हरिभद्र जैसे जैनाचार्यों ने महर्षि पतञ्जलि के प्रति अपना हार्दिक श्रादर प्रकट करके अपने योगविषयक अन्यों में गुणग्राहकता का निर्भीक परिचय पूरे तौर से दिया है। और जगह जगह पतञ्जलि के योगशास्त्रगत खास साङ्केतिक शब्दों का जैन सङ्केतों के साथ मिलान करके सङ्कीर्ण-दृष्टिवालों के लिये एकताका मार्ग खोल दिया है। जैन विद्वान् यशोविजयवाचकने हरिभद्रसूरिचित एकता के मार्ग को विशेष विशाल बनाकर पतञ्जलि के योगसूत्र को जैन प्रक्रिया के अनुसार समझाने का थोड़ा किन्तु मार्मिक प्रयास किया है। इतना ही नहीं बल्कि अपनी बत्तीसियों में उन्होंने पतञ्जलि के योगसूत्रगत कुछ विषयों पर खास बचीसियाँ भी रची४ हैं। इन सब बातों को संक्षेप में बतलाने का उद्देश्य यही है कि महर्षि पतञ्जलि की दृष्टिविशालता इतनी अधिक थी कि सभी दार्शनिक व साम्प्रदायिक विद्वान् योगशास्त्र के पास आते ही अपना साम्प्रदायिक अभिनिवेश भूल गये और एकरूपताका अनुभव करने लगे। इसमें कोई संदेह नहीं कि-महर्षि पतञ्जलि की दृष्टिविशालता उनके विशिष्ट योगानुभव का ही फल है, क्योंकि-जब कोई भी मनुष्य शब्दज्ञान की प्राथमिक भूमिका से आगे बढ़ता है तब बह शब्द की पूंछ न खींचकर चिन्ताज्ञान तथा भावनाज्ञान" के उत्तरोत्तर अधिकाधिक एकता वाले प्रदेश में अभेद अानन्द का अनुभव करता है। दोनों में करता है। इतनी भिन्नता होने पर भी परिणामवाद की प्रक्रिया दोनों में एक सी है। १ उक्तं च योगमार्ग स्तपोनिधूतकल्मषैः । भाचियोगहितायोच्चैर्मोहदीपसमं वचः ।। योग. चिं. श्लो. ६६ । टीका-उक्तं च निरूपितं पुनः योगमार्ग (ध्यात्मविद्भिः पतञ्जलिप्रभृतिभिः' ॥ "एतत्प्रधानः सन्छ्राद्धः शीलवान् योगतत्परः जानात्यती. न्द्रियानस्तिथा चाह महामति:" योगदृष्टिसमुच्चय श्लो. १०० । टीका तथा चाह महामतिः पतञ्जलिः'। ऐसा ही भाव गणग्राही श्रीयशोविजयजी ने अपनी योगावतारद्वात्रिंशिका में प्रकाशित किया है । देखो-श्लो. २० टीका । २ देखो योगबिन्दु श्लोक ४१८, ४२० । ३ देखो उनकी बनाई हुई पातञ्जलसूत्रवृत्ति । ४ देखो पातञ्जलयोगलक्षणविचार, योगावतार, क्लेशहानोपाय और योगमाहात्म्य द्वात्रिंशिका। ५ शब्द, चिन्ता तथा भावना ज्ञान का स्वरूप श्रीयशोविजयजी ने अध्यात्मो Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० हरिभद्र की योगमर्ग में नवीन दिशा श्रीहरिभद्र प्रसिद्ध जैनाचार्यों में एक हुए । उनकी बहुश्रुतता, सर्वतोमुखी प्रतिभा, मध्यस्थता और समन्वयशक्ति का पूरा परिचय कराने का यहाँ प्रसंग नहीं है । इसके लिये जिज्ञासु महाशय उनकी कृतियों को देख लेवें । हरिभद्रसूरि की शतमुखी प्रतिभा के स्रोत उनके बनाये हुए चार अनुयोगवियषक' ग्रन्थों में ही नहीं बल्कि जैन न्याय तथा भारतवर्षीय तत्कालीन समग्र दार्शनिक सिद्धान्तों की चर्चाबाले अन्यों में भी बहे हुए हैं। इतना करके ही उनकी प्रतिभा मौन न हुई, उसने योगमार्ग में एक ऐसी दिशा दिखाई जो केवल जैन योगसाहित्य में ही नहीं बल्कि आर्यजातीय संपूर्ण योगविषयक साहित्य में एक नई वस्तु है । जैनशास्त्र में प्राध्यात्मिक विकास के क्रम का प्राचीन वर्णन चौदह गुणस्थानरूप से, चार ध्यान रूप से और बहिरात्म आदि तीन अवस्थाओं के रूप से मिलता है । हरिभद्रसूरि ने उसी श्राध्यात्मिक विकास के क्रम का योगरूप से वर्णन किया है। पर उसमें उन्होंने जो शैली रक्खी है वह अभीतक उपलब्ध योगविषयक साहित्य में से किसी भी ग्रंथ में कम से कम हमारे देखने में तो नहीं आई है। हरिभद्रसूरि अपने ग्रन्थों में अनेक योगियों का नामनिर्देश करते हैं । एवं योगविषयक ग्रन्थों का उल्लेख करते हैं जो अभी प्राप्त नहीं हैं। संभव है उन अप्राप्य ग्रन्थों में उनके वर्णन की सी शैली रही हो, पर हमारे लिये तो यह वर्णनशैली और योग विषयक वस्तु बिल्कुल अपूर्व है। इस समय हरिभद्रसूरि के योगविषयक चार ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं जो हमारे देखने में आये हैं । उनमें से षोडशक और योगविंशिका के योगवर्णन की शैली और योगवस्तु एक ही है । योगबिन्दु की विचारसरणी और वस्तु योगविंशिका से जुदा है। योगहष्टिसमुच्चय की विचार पनिषद् में लिखा है, जो आध्यात्मिक लोगों को देखने योग्य है-अध्यात्मोपनिपद् श्लो० ६५, ७४ । १ द्रव्यानुयोगविषयक-धर्मसंग्रहणी श्रादि १, गणितानुयोगविषयक-क्षेत्रसमास टीका आदि २, चरणकरणानुयोगविषयक-पञ्च वस्तु, धर्मबिन्दु आदि ३, धर्मकथानुयोगविषयक-समराहच्चकहा आदि ४ ग्रन्थ मुख्य है। २ अनेकान्तजयपताका, षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवासिमुच्चय आदि । ३ गोपेन्द्र ( योगबिन्दु श्लोक, २००) कालातीत (योगबि दुश्लोक ३००) पतञ्जलि, भदन्तभास्करबन्धु, भगवदन्त (त्त ) वादी ( योगदृष्टि श्लोक १६ टीका)। ___ ४ योगनिर्णय आदि ( योगाष्टि० श्लोक १ टीका )। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ धारा और वस्तु योगबिंदु से भी जुदा है। इस प्रकार देखने से यह कहना पड़ता है कि हरिभद्रसूरि ने एक ही अध्यात्मिक विकास के क्रम का चित्र भिन्न भिन्न ग्रन्थों में भिन्न भिन्न वस्तु का उपयोग करके तीन प्रकार से खींचा है । काल की अपरिमित लंबी नदी में वासनारूप संसार का गहरा प्रवाह बहुता है, जिसका पहला छोर ( मूल ) तो अनादि है, पर दूसरा ( उत्तर ) छोर सान्त है । इस लिये सुमुक्षुत्रों के वास्ते सब से पहले यह प्रश्न बड़े महत्त्व का है कि उक्त अनादि प्रवाह में आध्यात्मिक विकास का श्रारम्भ कब से होता है ? और उस श्रारंभ के समय श्रात्मा के लक्षण कैसे हो जाते हैं ? जिनसे कि प्रारंभिक श्राध्यात्मिक विकास जाना जा सके। इस प्रश्न का उत्तर आचार्य ने योगबिदु में दिया है । वे कहते हैं कि – “जब श्रात्मा के ऊपर मोह का प्रभाव घटने का आरंभ होता है, तभी से श्राध्यात्मिक विकास का सूत्रपात हो जाता है । इस सूत्रपात का पूर्ववर्ती समय जो आध्यात्मिक विकासरहित होता है, वह जैनशास्त्र में अचरमपुद्गलपरावर्त के नाम से प्रसिद्ध है । और उत्तरवर्ती समय जो प्राध्यात्मिक विकास के क्रमवाला होता है, वह चरम पुद्गलपरावर्त के नाम से प्रसिद्ध है । श्रचरमपुद्गलपरावर्त और चरमपुद्गलपरावर्तनकाल के परिमाण के बीच सिंधु' और बिंदु का सा श्रन्तर होता है। जिन श्रात्मा का संसारप्रवाह चरम - पुद्गलपरावर्त्तपरिमाण शेष रहता है उसको जैन परिभाषा में 'अनबंधक' और सांख्यपरिभाषा में 'निवृत्ताधिकार प्रकृति' कहते हैं । अपुनर्बन्धक या निवृत्ताविकारप्रकृति श्रात्मा का श्रान्तरिक परिचय इतना ही है कि उसके ऊपर मोह का दबाब कम होकर उलटे मोह के ऊपर उस आत्मा का दबाव शुरू होता है । यही आध्यात्मिक विकास का बीजारोपण है । यहीं से योगमार्ग का श्रारम्भ हो जाने के कारण उस श्रात्मा की प्रत्येक प्रवृत्ति में सरलता, नम्रता, उदारता, परोपकारपरायणता आदि सदाचार वास्तविकरूप में दिखाई देते हैं । जो उस विकासोन्मुख श्रात्मा का बाह्य परिचय है" । इतना उत्तर देकर श्राचार्य ने योग के श्रारंभ से लेकर योग की पराकाष्ठा तक के श्राध्यात्मिक विकास की क्रमिक वृद्धि को स्पष्ट समझाने के लिये उसको पाँच भूमिकाओं में विभक्त करके हर एक भूमिका के लक्षण बहुत स्पष्ट दिखाये हैं । और जगह जगह जैन परिभाषा के 3 १ देखो मुक्त्यद्वेषद्वात्रिंशिका २८ । २ देखो योगबिन्दु १७८, २०१ । ३ योगबिन्दु, ३१, ३५७, ३५६, ३६१, ३६३, ३६५ ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ साथ बौद्ध तथा योगदर्शन की परिभाषा का मिलान कर' के परिभाषाभेद की दिवार की तोड़कर उसकी अोट में छिपी हुई योगवस्तु की भिन्नभिन्नदर्शनसम्मत एकरूपताका स्फुट प्रदर्शन कराया है। अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय ये योगमार्ग की पाँच मूमिकायें हैं । इनमें से पहली चार को पतंजलि संप्रज्ञात, और अन्तिम भूमिका को असंप्रज्ञात कहते हैं । यही संक्षेप में योगबिंदु की वस्तु है। ___योगदृष्टिसमुच्चय में अध्यात्मिक विकास के क्रमका वर्णन योगबिन्दु की अपेक्षा दूसरे ढंग से है। उसमें आध्यात्मिक विकास के प्रारंभ के पहले की स्थितिको अर्थात् अचरमपुग्दलपरावर्तपरिमाण संसारकालीन आत्मा की स्थिति को अोषदृष्टि कहकर उसके तरतमभाव को अनेक दृष्टांत द्वारा समझाया है, और पीछे आध्यात्मिक विकास के प्रारंभ से लेकर उसके अंत तक में पाई जानेवाली योगावस्था को योगदृष्टि कहा है। इस योगावस्था की क्रमिक वृद्धि को समझाने के लिये संक्षेप में उसे अाठ भूमिकाओं में बाँट दिया है। वे पाठ भूमिकायें उस ग्रन्थ में पाठ योगदृष्टि के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन आठ दृष्टियों का विभाग पातंजलयोगदर्शनप्रसिद्ध यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि योगांगों के आधार पर किया गया है, अर्थात् एक एक दृष्टि में एक एक योगांगका सम्बन्ध मुख्यतया बतलाया है। पहली चार दृष्टियाँ योग की प्रारम्भिक अवस्था रूप होने से उनमें अविद्या का अल्प अंश रहता है। जिसको प्रस्तुत में अवेद्यसंबेद्यपद कहा है" । अगली चार दृष्टिों में अविद्या का अंश बिल्कुल नहीं रहता । इस भाव को प्राचार्य ने वेद्यसंवेद्यपद शब्द से बताया है। इसके सिवाय प्रस्तुत ग्रंथ में पिछली चार दृष्टियों के सयय पाये जानेवाले विशिष्ट १ “यत्सम्यग्दर्शनं बोधिस्तत्प्रधानो महोदयः । सत्त्वोऽस्तु बोधिसत्त्यस्तद्धन्तैषोऽन्वर्थतोऽपि हि ।। १७३ ॥ वरबोधिसमेतो वा तीर्थकृयो भविष्यति । तयाभव्यत्वतोऽसौ वा बोधिसत्त्वः सतां मतः" ॥ २७४ ।। -योगबिन्दु । २ देखो योगबिंदु ४२८, ४२० । ३ देखो-योगदृष्टिसमुच्चय १४ । ५ " " ७५ | Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ श्राध्यात्मिक विकास को इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग ऐसी तीन योगभूमिकाओं में विभाजित करके उक्त तीनों योगभूमिकाओं का बहुत रोचक वर्णन किया है। आचार्य ने अन्त में चार प्रकार के योगियों का वर्णन करके योगशास्त्र के अधिकारी कौन हो सकते हैं, यह भी बतला दिया है । यही योगदृष्टि समुच्चय की बहुत संक्षिप्त वस्तु 1 योगविंशिका में आध्यात्मिक विकास की प्रारम्भिक अवस्था का वर्णन नहीं है, किन्तु उसको पुष्ट अवस्थाओं का ही वर्णन है । इसी से उसमें मुख्यतया योग के अधिकारी त्यागी ही माने गए हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में त्यागी गृहस्थ और साकी श्रावश्यक क्रिया को ही योगरूप बतला कर उसके द्वारा श्राध्यात्मिक विकास की क्रमिक वृद्धिका वर्णन किया है । और उस श्रावश्यक क्रिया के द्वारा योग को पाँच भूमिकाओं में विभाजित किया गया है । ये पाँच भूमिकाएँ उसमें स्थान, शब्द, अर्थ, सालंबन और निरालंबन नाम से प्रसिद्ध हैं । इन पाँच भूमिकानों में कर्मयोग और ज्ञानयोग की घटना करते हुए आचार्य ने पहली दो भूमिकाओं को कर्मयोग कहा है। इसके सिवाय प्रत्येक भूमिकाओं में इच्छा, प्रवृत्ति, स्थैर्य और सिद्धिरूप से आध्यात्मिक विकास के तरतमभाव का प्रदर्शन कराया है। और उस प्रत्येक भूमिका तथा इच्छा, प्रवृत्ति आदि अवान्तर स्थिति का लक्षण बहुत स्पष्ट रूप से वर्णन किया है उक्त पाँच भूमिकानों की अन्तर्गत भिन्न भिन्न स्थितियों का के अस्सी भेद किए हैं। और उन सबके लक्षण बतलाए हैं, जिनको ध्यानपूर्वक देखनेवाला यह जान सकता है कि मैं विकास की किस सीड़ी पर खड़ा हूँ। यही योगविंशिका की संक्षिप्त वस्तु है । उपसंहार इस विषय का विषय की गहराई और अपनी अपूर्णता का खयाल होते हुए भी यह प्रयास इस लिए किया गया है कि अबतक का अवलोकन और स्मरण संक्षेप में भी लिपिबद्ध हो जाय, जिससे भविष्य में विशेष प्रगति करना हो तो प्रथम सोपान तैयार रहे । इस प्रवृत्ति में कई मित्र मेरे सहायक नामोल्लेख मात्र से कृतज्ञता प्रकाशित करना नहीं चाहता। उनकी आदरणीय स्मृति मेरे हृदय में अखण्ड रहेगी । हुए है जिनके १ देखो योगदृष्टिसमुच्चय २-१२ । २ योगविशिका गा० ५, ६ । । इस प्रकार वर्णन करके योग Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 267 पाठकों के प्रति एक मेरी सूचना है। वह यह कि इस निबन्ध में अनेक शास्त्रीय पारिभाषिक शब्द श्राए हैं। खास कर अन्तिम भाग में जैन पारिभाषिक शब्द अधिक हैं, जो बहुतों को कम विदित होंगे। उनका मैंने विशेष खुलासा नहीं किया है। पर खुलासा वाले उन ग्रंथों के उपयोगी स्थल का निर्देश कर दिया है। जिससे विशेष जिज्ञासु मूलग्रंथ द्वारा ही ऐसे कठिन शब्दों का खुलासा कर सकेंगे। अगर यह संक्षिप्त निबन्ध न होकर खास पुस्तक होती तो इसमें विशेष खुलासों का भी अवकाश रहता। इस प्रवृत्ति के लिए मुझ को उत्साहित करने वाले गुजरात पुरातत्त्व संशो. घन मन्दिर के मंत्री परीख रसिकलाल छोटालाल हैं जिनके विद्याप्रेम को मैं भूल नहीं सकता। ई० 162] [ योगदर्शन-योगबिंदु भूमिकाः