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छठे अध्याय का भांग बड़ा ही हृदयहारी है । निःसन्देह शानेश्वरी द्वारा ज्ञानदेव ने अपने अनुभव और वाणी को श्रवन्ध्य कर दिया है। सुहीरोबा अंबिये रचित नाथसम्प्रदायानुसारी सिद्धान्तसंहिता भी योग के जिज्ञासुओं के लिए देखने की वस्तु है ।
कबीर का बीजक ग्रन्थ योगसंबन्धी भाषासाहित्यका एक सुन्दर मणका है । अन्य योगी सन्तों ने भी भाषा में अपने अपने योगानुभव की प्रसादी लोगों को चखाई है, जिससे जनता का बहुत बड़ा भाग योग के नाम मात्र से मुग्ध बन जाता है ।
श्रतएव हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि प्रसिद्ध प्रत्येक प्रान्तीय भाषा में पातञ्जल योगशास्त्र का अनुवाद तथा विवेचन आदि अनेक छोटे बड़े ग्रन्थ बन गये हैं । अंग्रेजी आदि विदेशी भाषा में भी योगशास्त्र पर अनुवाद आदि बहुत कुछ बन गया है, जिसमें वूडका भाष्यटीका सहित मूल पातञ्जल योगशास्त्र का अनुवाद ही विशिष्ट है ।
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जैन सम्प्रदाय निवृत्तिप्रधान है । उसके प्रवर्तक भगवान् महावीर ने बारह साल से अधिक समय तक मौन धारण करके सिर्फ श्रात्मचिन्तन द्वारा योगाम्यास में ही मुख्यतया जीवन बिताया। उनके हजारों शिष्य तो ऐसे थे जिन्होंने घरबार छोड़ कर योगाभ्यास द्वारा साधु जीवन बिताना ही पसंद किया था ।
कहलाते हैं ।
उनमें साधुचर्या का
जैन सम्प्रदाय के मौलिक ग्रन्थ श्रागम जो वर्णन है, उसको देखने से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि स्वाध्याय आदि नियम; इन्द्रियजयरूप प्रत्याहार इत्यादि जो योग के खास हैं, उन्हींको साधु जीवन का एक मात्र प्राण माना है ।
पांच यम; तप,
जैन शास्त्रमें योग पर यहां तक भार दिया गया है कि पहले तो वह मुमुक्षुत्रों को आत्म चिन्तन के सिवाय दूसरे कार्यों में प्रवृत्ति करने की संमति ही नहीं देता और अनिवार्य रूपसे प्रवृत्ति करनी श्रावश्यक हो तो वह निवृत्तिमय प्रवृत्ति करने को कहता है । इसी निवृत्तिमय प्रवृत्ति का नाम उसमें श्रष्टप्रवचन
१ प्रो० राजेन्द्रलाल मित्र, स्वामी विवेकानन्द, श्रीयुत् रामप्रसाद आदि कृत । २ ' चउदसहि समय साहस्सीहिं छत्तीसाहिं अजिया साहस्सीहिं' उववाइसूत्र । ३ देखो आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, उत्तराध्ययन, दशनैकालिक, मूलाचार, आदि ।
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