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जब नदी में बाढ़ आती है तब वह चारों ओर से बहने लगती है। योग का यही हाल हुआ, और वह आसन, मुद्रा, प्राणायाम श्रादि बाह्य अंगों में प्रवाहित होने लगा । बाह्य अंगों का भेद प्रभेद पूर्वक इतना अधिक वर्णन किया गया और उस पर इतना अधिक जोर दिया गया कि जिससे वह योग की एक शाखा ही अलग बन गईं, जो हठयोग के नाम से प्रसिद्ध है ।
हठयोग के अनेक ग्रन्थों में हठयोगप्रदीपिका, शिवसंहिता, घेरण्ड संहिता, गोरक्षपद्धति, गोरक्षशतक आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं, जिनमें श्रासन, बन्ध, मुद्रा, षट्कर्म, कुंभक, रेचक पूरक आदि बाह्य योगांगों का पेट भर भर के वर्णन किया है, और घेरण्डने तो चौरासी आसनों को चौरासी लाख तक पहुँचा दिया है । उक्त हठयोगप्रधान ग्रन्थों में हठयोगप्रदीपिका ही मुख्य है, क्योंकि उसी का विषय अन्य ग्रन्थों में विस्तार रूप से वर्णन किया गया है। योगविषयक साहित्य के जिज्ञासुत्रों को योगतारावली, बिन्दुयोग, योगचीज और योगकल्पद्रुम का नाम भी भूलना न चाहिए । विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी में मैथिल पण्डित भवदेवद्वारा रचित योगनिबन्ध नामक हस्तलिखित ग्रन्थ भी देखने में आया है, जिसमें विष्णुपुराण आदि अनेक ग्रन्थों के हवाले देकर योगसंबन्धी प्रत्येक विषय पर विस्तृत चर्चा की गई है ।
संस्कृत भाषा में योग का वर्णन होने से सर्व साधारण को जिज्ञासा को शान्त न देख कर लोकभात्रा के योगियों ने भी अपनी अपनी जबान में योग कालाप करना शुरू कर दिया ।
महाराष्ट्रीय भाषा में गीता की ज्ञानदेवकृत ज्ञानेश्वरी टीका प्रसिद्ध है, जिसके
समत्व भावनां नित्यं जीवात्मपरमात्मनो: । समाधिमाहुर्मुनयः प्रोक्तमष्टाङ्गलक्षणम् ॥ पृ० ६१ यदत्र नात्र निर्भासः स्तिमितोदधिवत् स्मृतम् । स्वरूपशून्यं यद् ध्यानं तत्समाधिर्विधीयते ॥ पृ० ६० त्रिकोणं तस्यान्तः स्फुरति च सततं विद्युदाकाररूपं । तदन्तः शून्यं तत् सकलसुरगणैः सेवितं चातिगुप्तम् ॥ पृ० ६० ‘श्राहारनिर्दारविहारयोगाः सुसंवृता धर्मविदा तु कार्याः"
पृ० ६१
ध्यै चिन्तायाम् स्मृतो धातुश्चिन्ता तत्वेन निश्चला । एतद् ध्यानमिह प्रोक्तं सगुण निर्गुणां द्विधा । सगुणं वर्णभेदेन निर्गुणं केवलं तथा ॥ ० १३४
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