Book Title: Yogavidya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 1
________________ योगविद्या प्रत्येक मनुष्य व्यक्ति अपरिमित शक्तियोंके तेजका पुञ्ज है, जैसा कि सूर्य । अतएव राष्ट्र तो मानों अनेक सूर्योका मण्डल है। फिर भी जब कोई व्यक्ति या राष्ट्र असफलता या नैराश्यके भँवर में पड़ता है तब यह प्रश्न होना सहज है कि इसका कारण क्या है ? बहुत विचार कर देखने से मालूम पड़ता है कि असफलता व नैराश्यका कारण योगका (स्थिरताका ) अभाव है, क्योंकि योग न होनेसे बुद्धि संदेहशील बनी रहती है, और इससे प्रयत्नकी गति अनिश्चित हो जाने के कारण शक्तियां इधर उधर टकराकर आदमीको बरबाद कर देती हैं। इस कारण सब शक्तियोंको एक केन्द्रगामी बनाने तथा साध्यतक पहुँचाने के लिये अनिवार्य रूप से सभीको योगकी जरूरत है। यही कारण है कि प्रस्तुत' व्याख्यानमालामें योगका विषय रखा गया है। इस विषयकी शास्त्रीय मीमांसा करनेका उद्देश यह है कि हमें अपने पूर्वजोंकी तथा अपनी सभ्यताकी प्रकृति ठीक मालूम हो, और तद्वारा आर्यसंस्कृतिके एक अंश का थोड़ा, पर निश्चित रहस्य विदित हो । योगशब्दार्थ योगदर्शन यह सामासिक शब्द है ! इसमें योग और दर्शन ये दो शब्द मौलिक हैं। योग शब्द युज् धातु और घ प्रत्यय से सिद्ध हुश्रा है। युज धातु दो हैं । एक का अर्थ है जोड़ना और दूसरे का अर्थ है समाधि:-मनःस्थिरता। सामान्य रीति से योग का अर्थ संबंध करना तथा मानसिक स्थिरता करना इतना ही है, परंतु प्रसंग व प्रकरण के अनुसार उसके अनेक अर्थ हो जाने से वह बहुरूपी बन जाता है। इसी बहुरूपिता के कारण लोकमान्यको अपने गीतारहस्य में गीता का तात्पर्य दिखाने के लिए योगशब्दार्थनिर्णय की विस्तृत १ गुजरात पुरातत्त्व मंदिर की ओर से होनेवाली श्रार्यविद्या व्याख्यानमाला में यह व्याख्यान पढ़ा गया था। २ युजपी योगे गण ७ हेमचंद्र धातुपाठ । ३ युधिच समाधौ गण ४ , " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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