________________
२१६ थी इसके सिवा उसमें शान', श्रद्धा, उदारता३, ब्रह्मचर्य आदि
पुरुष एवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो यदन्ने नातिरोहति ॥ २ ॥ एतावानस्य महिमाऽतो ज्यायांश्च पूरुषः ।
पादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ ३ ॥ भाषांतर—(जो) हजार सिरवाला, हजार आँखवाला, हजार पाँववाला पुरुष (है) वह भूमिको चारों ओर से घेर कर ( फिर भी) दस अंगुल बढ़ कर रहा है । १ । पुरुष ही यह सब कुछ है-जो भूत और जो भावि । (वह) अभृतत्व का ईश अन्न से बढ़ता है। २। इतनी इसकी महिमा इससे भी वह पुरुष अधिकतर है। सारे भूत उसके एक पाद मात्र हैं-उसके अमर तीन पाद स्वर्ग में हैं । ३।
ऋग्वेद मं० १० सू० १२१हिरण्यगर्भः समवर्तता भूतस्य जातः पतिरेक श्रासीत् । स दाधार पृथिवीं चामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ||१|| य श्रात्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः ।
यस्य च्छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥२।। भाषांतर-~-पहले हिरण्यगर्भ था। वही एक भूत मात्रका पति बना था । उसने पृथ्वी और इस श्राकाश को धारण किया । किस देवको हम हवि से पूर्जे । १ । जो श्रात्मा और बलको देने वाला है । जिसका विश्व है। जिसके शासन की देव उपासना करते हैं। अमृत और मृत्यु जिसकी छाया है। किस देव को हम हवि से पूर्जे ? | २।।
ऋग्वेद मं० १०-१२६-६ तथा ७को श्रद्धा वेद क इह प्रवोचत कुत श्रा जाता कुत इयं विसहिः । अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत श्रा बभूव ।। इयं विसृष्टिर्यत आ बभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्ष परमे व्योमन्सो अन वेद यदि वा न वेद ।। भाषांतर--कौन जानता है-कौन कह सकता है कि यह विविध सृष्टि कहाँ से उत्पन्न हुई ? देव इसके विविध सर्जन के बाद (हुए) हैं। कौन जान सकता है कि यह कहां से आई और स्थिति में है या नहीं है ? यह बात परम ब्योम में जो इसका अध्यक्ष है वही जाने-कदाचित् वह भी न जानता हो ।
१ ऋग्वेद मं० १० सू०७१। २ ऋग्वेद मं० १० सू० १५१ । ३ ऋग्वेद मं० १० सू० ११७ । ४ ऋग्वेद मं० १० सू० १०॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org