Book Title: Yogavidya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ २६४ धारा और वस्तु योगबिंदु से भी जुदा है। इस प्रकार देखने से यह कहना पड़ता है कि हरिभद्रसूरि ने एक ही अध्यात्मिक विकास के क्रम का चित्र भिन्न भिन्न ग्रन्थों में भिन्न भिन्न वस्तु का उपयोग करके तीन प्रकार से खींचा है । काल की अपरिमित लंबी नदी में वासनारूप संसार का गहरा प्रवाह बहुता है, जिसका पहला छोर ( मूल ) तो अनादि है, पर दूसरा ( उत्तर ) छोर सान्त है । इस लिये सुमुक्षुत्रों के वास्ते सब से पहले यह प्रश्न बड़े महत्त्व का है कि उक्त अनादि प्रवाह में आध्यात्मिक विकास का श्रारम्भ कब से होता है ? और उस श्रारंभ के समय श्रात्मा के लक्षण कैसे हो जाते हैं ? जिनसे कि प्रारंभिक श्राध्यात्मिक विकास जाना जा सके। इस प्रश्न का उत्तर आचार्य ने योगबिदु में दिया है । वे कहते हैं कि – “जब श्रात्मा के ऊपर मोह का प्रभाव घटने का आरंभ होता है, तभी से श्राध्यात्मिक विकास का सूत्रपात हो जाता है । इस सूत्रपात का पूर्ववर्ती समय जो आध्यात्मिक विकासरहित होता है, वह जैनशास्त्र में अचरमपुद्गलपरावर्त के नाम से प्रसिद्ध है । और उत्तरवर्ती समय जो प्राध्यात्मिक विकास के क्रमवाला होता है, वह चरम पुद्गलपरावर्त के नाम से प्रसिद्ध है । श्रचरमपुद्गलपरावर्त और चरमपुद्गलपरावर्तनकाल के परिमाण के बीच सिंधु' और बिंदु का सा श्रन्तर होता है। जिन श्रात्मा का संसारप्रवाह चरम - पुद्गलपरावर्त्तपरिमाण शेष रहता है उसको जैन परिभाषा में 'अनबंधक' और सांख्यपरिभाषा में 'निवृत्ताधिकार प्रकृति' कहते हैं । अपुनर्बन्धक या निवृत्ताविकारप्रकृति श्रात्मा का श्रान्तरिक परिचय इतना ही है कि उसके ऊपर मोह का दबाब कम होकर उलटे मोह के ऊपर उस आत्मा का दबाव शुरू होता है । यही आध्यात्मिक विकास का बीजारोपण है । यहीं से योगमार्ग का श्रारम्भ हो जाने के कारण उस श्रात्मा की प्रत्येक प्रवृत्ति में सरलता, नम्रता, उदारता, परोपकारपरायणता आदि सदाचार वास्तविकरूप में दिखाई देते हैं । जो उस विकासोन्मुख श्रात्मा का बाह्य परिचय है" । इतना उत्तर देकर श्राचार्य ने योग के श्रारंभ से लेकर योग की पराकाष्ठा तक के श्राध्यात्मिक विकास की क्रमिक वृद्धि को स्पष्ट समझाने के लिये उसको पाँच भूमिकाओं में विभक्त करके हर एक भूमिका के लक्षण बहुत स्पष्ट दिखाये हैं । और जगह जगह जैन परिभाषा के 3 १ देखो मुक्त्यद्वेषद्वात्रिंशिका २८ । २ देखो योगबिन्दु १७८, २०१ । ३ योगबिन्दु, ३१, ३५७, ३५६, ३६१, ३६३, ३६५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38