Book Title: Yogavidya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 18
________________ pura करके ही संतोष नहीं माना है, किन्तु पातञ्जल योगसूत्रमें वर्णित योग प्रक्रिया और उसकी खास परिभाषाओं के साथ जैन संकेतों का मिलान भी किया है। योगदृष्टिसमुच्चय में योग की आठ दृष्टियों का जो वर्णन है, वह सारे योग साहित्य में एक नवीन दिशा है। इन आठ दृष्टियों का स्वरूप, दृष्टान्त श्रादि विषय, योग जिज्ञासुत्रों के लिये देखने योग्य है। इसी विषय पर यशोविजयजीने २१, २२, २३, ६४ ये चार द्वात्रिशिकायें लिखी हैं। साथ ही उन्होंने संस्कृत न जानने वालोंके हितार्थ पाठ दृष्टियों की सज्झाय भी गुजराती भाषा में बनाई है। श्रीमान् हरिभद्रसूरि के योगविषयक ग्रन्थ उनकी योगाभिरुचि और योग विषयक व्यापक बुद्धि के खासे नमूने हैं। इसके बाद श्रीमाम् हेमचन्द्र सूरिकृत योग शास्त्र का नंबर श्राता है । उसमें पातञ्जल योगशास्त्र निर्दिष्ट आठ योगांगों के क्रम से साधु और गृहस्थ जीबन की आचार-प्रक्रिया का जैन शैली के अनुसार वर्णन है, जिसमें आसन तथा प्राणायाम से संबन्ध रखने बाली अनेक बातों का विस्तृत स्वरूप है; जिसको देखने से यह जान पड़ता है कि तत्कालीन लोगों में हठयोग-प्रक्रिया का कितना अधिक प्रचार था। हेमचन्द्राचार्य ने अपने योगशास्त्र में हरिभद्र सूरि के योगविषयक ग्रन्थों की नवीन परिभाषा और रोचक शैली का कहीं भी उल्लेख नहीं किया है, पर शुभचन्द्राचार्य के ज्ञानार्णवगत पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान का विस्तृत व स्पष्ट वर्णन किया है। अन्त में उन्होंने स्वानुभव से विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट और सुलीन ऐसे मनके चार भेदों का वर्णन करके नवीनता लाने का भी खास कौशल दिखाया है। निस्सन्देह उनका योग शास्त्र जैन तत्त्वज्ञान और जैन आचार का एक पाठ्य ग्रन्थ है। १ समाधिरेष एवान्यः संप्रज्ञातोऽभिधीयते । सम्यक्प्रकर्षरूपेण वृत्यर्थज्ञानतस्तया ||४१८।। असंप्रज्ञात एषोऽपि समाधिगीयते परैः। निरुद्धाशेषवृत्त्यादितत्स्वरूपानुवेघतः ॥४२०॥ इत्यादि । योगबिन्दु। २ मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिर कान्ता प्रभा परा । नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधत ।। १३ ॥ ३ देखो प्रकाश ७-१० तक । र १२ वा प्रकाश श्लोक २-४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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