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२ ईश्वर के सम्बन्ध में योगशास्त्र का मत सांख्य दर्शन से भिन्न है। सांख्य दर्शन नाना चेतनों के अतिरिक ईश्वर को नहीं मानता', पर योगशास्त्र मानता है। योगशास्त्र-सम्मत ईश्वर का स्वरूप नैयायिक, वैशेषिक आदि दर्शनों में माने गये ईश्वर स्वरूप से कुछ भिन्न है। योगशास्त्र ने ईश्वर को एक अलग व्यक्ति तथा शास्त्रोपदेशक माना है सही, पर उसने नैयायिक श्रादि की तरह ईश्वर में नित्यज्ञान, नित्य इच्छा और नित्यकृतिका सम्बन्ध न मान कर इसके स्थान में सत्त्वगुण का परमप्रकर्ष मान कर तवारा जगत् उद्धारादि की सब व्यवस्था घटा दी है।
३ योगशास्त्र दृश्य जगत् को न तो जैन, वैशेषिक, नैयायिक दर्शनों की तरह परमाणु का परिणाम मानता है, न शांकरवेदान्त दर्शन की तरह ब्रह्मका विवर्त या ब्रह्म का परिणाम ही मानता है, और न बौद्ध दर्शन की तरह शून्य या विज्ञानात्मक ही मानता है, किन्तु सांख्य दर्शन की तरह वह उसको प्रकृतिका परिणाम तथा अनादि-अनन्त-प्रवाह स्वरूप मानता है।
४ योगशास्त्र में वासना, क्लेश और कर्मका नाम ही संसार तथा वासनादि का अभाव अर्थात् चेतन के स्वरूपावस्थान का नाम ही मोक्ष है। उसमें संसार का मूल कारण अविद्या और मोक्ष का मुख्य हेतु सम्यग्दर्शन अर्थात् योगजन्य विवेकख्याति माना गया है। महर्षि पतञ्जलिकी दृष्टिविशालता ___ यह पहले कहा जा चुका है कि सांख्य सिद्धांत और उसकी प्रक्रिया को ले कर पतञ्जलि ने अपना योगशास्त्र रचा है, तथापि उनमें एक ऐसी विशेषता अर्थात् दृष्टिविशालता नजर आती है जो अन्य दार्शनिक विद्वानों में बहुत कम पाई जाती है । इसी विशेषता के कारण उनका योगशास्त्र मानों सर्वदर्शन
'यी चेयं नित्यता, कटस्थनित्यता, परिणामिनित्यता च । तत्र कूटस्थनित्यता पुरुषस्य, परिणामिनित्यता गुणानाम्' इत्यादि ४-३३ भाष्य ।
१ देखो सांख्य सूत्र १-६२ श्रादि ।
२ यद्यपि यह व्यवस्था मूल योग सूत्र में नहीं है, परन्तु भाष्यकार तथा टीकाकारने इसका उपपादन किया है । देखो पातञ्जल योग सू.पा १सू २४ भाष्य तथा टीका ।
३ तदा द्रष्टः स्वरूपावस्थानम् । १.३ योग सूत्र ।
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