Book Title: Yogavidya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 27
________________ २५६ समन्वय बन गया है। उदाहरणार्थ सांख्य का निरीश्वरवाद जब वैशेषिक, नैयायिक श्रादि दर्शनों के द्वारा अच्छी तरह निरस्त हो गया और साधारण लोकस्वभावका झुकाव भी ईश्वरोपासना को ओर विशेष मालूम पड़ा, तब अधिकारिभेद तथा रुचि विचित्रता का विचार करके पतञ्जलि ने अपने योगमार्ग में ईश्वरोपासना को भी स्थान दिया, और ईश्वर के स्वरूप का उन्होंने निष्पक्ष भाव से ऐसा निरूपण किया है जो सबको मान्य हो सके। पतञ्जलि ने सोचा कि उपासना करनेवाले सभी लोगों का साध्य एक ही है, फिर भी वे उपासना की भिन्नता और उपासना में उपयोगी होनेवाली प्रतीकों की भिन्नता के व्यामोह में अज्ञानवश आपस आपस में लड़ मरते हैं, और इस धार्मिक कलह में अपने साध्य को लोक भूल जाते हैं। लोगों को इस अज्ञान से हटा कर सत्पथ पर लाने के लिये उन्होंने कह दिया कि तुम्हारा मन जिसमें लगे उसी का ध्यान करो। जैसी प्रतीक तुम्हें पसन्द आवे वेसी प्रतीक 3 की ही उपासना करो, पर किसी भी तरह अपना मन एकाग्र व स्थिर करो। और तद्द्वारा परमात्मचिन्तन के सच्चे पात्र बनों। इस उदारता की मर्तिस्वरूप मतभेदसहिष्णु आदेश के द्वारा पतञ्जलि ने सभी उपासकों को योगमार्ग में स्थान दिया, और ऐसा करके धर्म के नामसे होनेवाले कलहको कम करनेका उन्होंने सच्चा मार्ग लोगों को बतलाया। उनकी इस दृष्टि विशालता १ 'ईश्वरप्रणिधानाद्वा' १-३३ । २ 'क्लेशकर्मविपाकाशरैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः' 'तत्र निरतिशय सर्वशबीजम् । पूर्वेषामपि गुरुः कालेनाऽनवच्छेदात्' । १-२४, २५, २६ ।। ३ 'यथाऽभिमतध्यानाद्वा' १-३६ इसी भाव की सूचक महाभारत में यह उक्ति है-- ध्यानमुत्पादयत्यत्र, संहिताबलसंश्रयात् । यथाभिमतमन्त्रेण, प्रणवाद्यं जपेत्कृती ॥ शान्तिपर्व प्र० १६४ श्लोक. २० और योगवासिष्ठ में कहा हैयथाभिवाञ्छितध्यानाच्चिरमेकतयोदितात् । एकतत्त्वधनाभ्यासात्प्राणस्पन्दो निरुध्यते । उपशम मकरण सर्ग ७८ श्लो. १६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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