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सूत्र हैं' | ब्रह्मसूत्र में महर्षि बादरायण ने तो तीसरे अध्यायका नाम ही साधन अध्याय रक्खा है, और उसमें आसन ध्यान आदि योगांगों का वर्णन किया है। योगदर्शन तो मुख्यतया योगविचार का ही ग्रन्थ ठहरा, श्रतएव उसमें सांगोपांग योगप्रक्रिया की मीमांसा का पाया जाना सहज ही है। योग के स्वरूप के संबन्ध में मतभेद न होने के कारण और उसके प्रतिपादन का उत्तरदायित्व खासकर योगदर्शन के ऊपर होने के कारण अन्य दर्शनकारों ने अपने अपने सूत्र न्थों में थोड़ा सा योग विचार करके विशेष जानकारी के लिए जिज्ञासुत्रों को योगदर्शन देखने को सूचना दे दी है। पूर्व मीमांसा में महर्षि जैमिनि ने योग का निर्देश तक नहीं किया है सो ठीक ही है, क्योंकि उसमें सकाम कर्मकाण्ड अर्थात् धूममार्ग की ही मीमांसा है। कर्मकाण्ड की पहुँच स्वर्ग तक ही है, मोक्ष उसका साध्य नहीं । और योग का उपयोग तो मोक्ष के लिये ही होता है । जो योग उपनिषदों में सूचित और सूत्रों में गीता में अनेक रूप से गाई गई है । उसमें योग की कभी भक्ति के साथ और कभी ज्ञान के साथ सुनाई और तेरहवें अध्याय में तो योग के मौलिक सत्र सिद्धान्त और योगकी सारी प्रक्रिया आ जाती है" । कृष्ण के द्वारा अर्जुन को गीता के रूप में योग शिक्षा
सूत्रित है, उसी की महिमा
तान कभी देती है ४
कर्म के साथ, । उसके छठे
१ रागोपहतिर्थ्यानम् ३-३० । वृत्तिनिरोधात् तत्सिद्धि: ३-३१ । धारणासनस्वकर्मणा तत्सिद्धिः ३ - ३२ । निरोधश्छर्दि विधारणाभ्याम् ३ - ३३ | स्थिरसुखभासनन् ३-३४ |
२ श्रासीनः संभवात् ४-१-७ । ध्यानाच ४-१-८ । श्रचलत्वं वापेक्ष्य ४१-६ । स्मरन्ति च ४-१-१० । यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् ४-१-११ ।
३ योगशास्त्राच्चाध्यात्मविधिः प्रतिपत्तव्यः । ४-२ - ४६ न्यायदर्शन भाष्य ४ गीता के अठारह अध्याय में पहले छह अन्याय कर्मयोगप्रधान बीच के छह श्रध्याय भक्तियोगप्रधान और अंतिम छह श्रध्याय ज्ञानयोग प्रधान हैं।
५. योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ||१०| शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः । नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥११॥ तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचिचेन्द्रियक्रियः । उपविश्यासने युञ्ज्याद् योगमात्मविशुद्धये ॥१२॥
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