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कायोंका' निर्माण श्रादि ।
३ परिणामि-नित्यता अर्थात् उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप से त्रिरूप वस्तु मान कर तदनुसार धर्मधर्मी का निवेचन इत्यादि ।
है । इस विषय में उक्त व्यासभाष्य और तत्त्वार्थभाष्यका शाब्दिक सादृश्य भी बहुत अधिक और अर्थसूचक है--- ___यथाऽऽवस्त्रं वितानितं लघीयसा कालेन शुध्येत् तथा सोपक्रमम् । यथा च तदेव संपिण्डितं चिरेण संशुष्येद् एवं निरुपक्रमम् । यथा चाग्निः शुष्के कक्षे मुक्तो वातेन वा समन्ततो युक्तः क्षेपीयसा कालेन दहेत् तथा सोपक्रमम् । यथा वा "स एवाऽग्निस्तृणराशौ क्रमशोऽवयवेषु न्यस्तश्चिरेण दहेत् तथा निरूपक्रमम् (योग, ३-२२) भाष्य । “यथा हि संहतस्य शुष्कस्यापि तृणराशेरवयवशः क्रमेण दह्यमानस्य चिरेण दाहो भवति, तस्यैव शिथिलप्रकीर्णोपचितस्य सर्वतो युगपदादीपितस्य पक्नोपक्रमाभिहतस्थाशु दाहो भवति, तद्वत् । यथा वा संख्यानाचार्य: करणलाघवार्थ गुणकारभागहाराभ्यां राशि छेदादेवापवर्तयति न च संख्येयस्यार्थस्याभावो भवति, तद्वदुपक्रमामिहतो मरणसमुद्घातदुःस्त्रातः कर्मप्रत्ययमनाभोगयोगपूर्वकं करण विशेषमुत्पाद्य फलोपभोगलाघवार्थ कर्मापवर्तयति न चास्य फलाभाव इति ॥ किं चान्यत् । यथा वा धौतपटो जलार्द्र एव संहतचिरेण शोषमुपयाति । स एव च वितानितः सूर्यरश्मिवायभिहतः क्षिप्रं शोषमुपयाति ।" अ० २-५२ भाष्य।
१ योगबल से योगी जो अनेक शरीरों का निर्माण करता है, उसका वर्णन योगसूत्र (४-४) में है, यही विषय वैक्रिक-श्राहारक-लब्धिरूप से जैनग्रन्थों में वर्णित है। __ २ जैनशास्त्र में वस्तु को द्रव्यपर्यायस्वरूप माना है। इसीलिये उसका लक्षण तत्त्वार्थ ( अ० ५-२६ ) में "उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्" ऐसा किया है । योगसूत्र ( ३-१३, १४ ) में जो धर्मधर्मी का विचार है वह उक्त द्रव्यपर्यायउभयरूपता किंवा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इस त्रिरूपता का ही चित्रण है। भिन्नता सिर्फ दोनों में इतनी ही है कि-योगसूत्र सांख्यसिद्धान्तानुसारी होने से "ऋते चितिशक्तः परिणामिनो भावा" यह सिद्धान्त मानकर परिणामवाद का अर्थात् धर्मलक्षणावस्थापरिणाम का उपयोग सिर्फ जडभाग में अर्थात् प्रकृति में करता है, चेतन में नहीं । और जैनदर्शन तो "सवें भावाः परिणामिनः" ऐसा सिद्धान्त मानकर परिणामवाद अर्थात् उत्पादन्ययरूप पर्यायका उपयोग जड़ चेतन
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