Book Title: Yogasara Prabhrut Author(s): Amitgati Acharya, Yashpal Jain Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 9
________________ जीव अधिकार जो साधक, जीव और अजीव तत्त्वों के स्वरूप को परमार्थरीति से जानता है, वह अजीव तत्त्व के परिहार पूर्वक जीव तत्त्व में निमग्न हो जाता है। जीवतत्त्व में निमग्न साधक के राग-द्वेषादि विभावभावों का नाश हो जाता है, राग-द्वेषादि के नाश से कर्म के आश्रय का अर्थात् कर्मास्रव का नाश होता है और उसके कारण साधक को निर्वाण की प्राप्ति होती है। भावार्थ :- इस विश्व में जाति अपेक्षा जीव-अजीव दो ही द्रव्य हैं । वस्तुतः इनमें अजीव नाम का कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं है, बल्कि पुद्गल-धर्म-अधर्म-आकाश व काल - इन पाँच द्रव्यों के समूह को ही अचेतन होने से अजीव नाम दिया गया है। संख्या अपेक्षा जीव अनंत, पुद्गल अनंतानंत, धर्म एक, अधर्म एक, आकाश एक और कालद्रव्य असंख्यात हैं। संसारी जीव को मुक्ति प्राप्त करने के लिए इनका यथार्थ स्वरूप जानना आवश्यक है। जो साधक परमार्थ से इनका स्वरूप जानकर अजीव तत्त्व का परिहार करता है अर्थात् उन्हें मात्र ज्ञेय जानकर उनसे दृष्टि हटाता है और भगवत्स्वरूप निज आत्मतत्त्व में लीन हो जाता है, उसके रागद्वेषादि विकारीभावों का अभाव होने से आस्रव-बन्ध का नाश होकर संवर-निर्जरापूर्वक मुक्ति की प्राप्ति होती है। यहाँ जीव-अजीव के स्वरूप को जाननेवाला जीवतत्त्व में लीन होता है - ऐसा कहा है। इससे यह सिद्ध होता है कि आगमज्ञानपूर्वक अध्यात्मज्ञान होता है, क्योंकि जीव-अजीव का विस्तारपूर्वक वर्णन आगम में प्राप्त होता है और आत्मलीनता अध्यात्म का कार्य है। इसका अर्थ आगमज्ञान कारण है और आत्मज्ञान कार्य है। जीवद्रव्य और जीवतत्त्व में एक अपेक्षा से भिन्नता का भी कथन किया जाता है। जीवद्रव्य में समस्त विकारी-अविकारी पर्यायें शामिल हैं और विकारी-अविकारी पर्यायों से रहित त्रिकाली ध्रुव ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा जीवतत्त्व है। यह कथन मुख्यतया अध्यात्मग्रन्थों में प्राप्त होता है। आगम में दोनों को एक ही मानकर कथन किया जाता है। निजस्वभाव को जानने का फल - परद्रव्यबहिर्भूतं स्व-स्वभावमवैति यः। परद्रव्ये स कुत्रापि न च द्वेष्टि न रज्यति ।।५।। अन्वय :- यः परद्रव्यबहिर्भूतं स्व-स्वभावं अवैति सः परद्रव्ये कुत्र अपि न रज्यति न च द्वेष्टि। सरलार्थ :- जो परद्रव्य से बहिर्भूत अपने स्वभाव को जानता है, वह परद्रव्य में अर्थात् परद्रव्य की किसी भी अवस्था में न राग करता है न द्वेष करता है। भावार्थ:- इस श्लोक में राग-द्वेषरूप विकारी परिणाम के परिहार का यथार्थ उपाय बताया [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/19]Page Navigation
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