Book Title: Yogasara Prabhrut Author(s): Amitgati Acharya, Yashpal Jain Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 8
________________ योगसार प्राभृत १८ के स्थान पर हैं; जिनके स्वरूप का संसारी भव्य-जीव चिंतवन करके उनके समान अपने स्वरूप को ध्याकर उन्हीं के समान हो जाते हैं और चारों गतियों से विलक्षण पंचमगति/मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।' समाधितंत्र के मंगलाचरण की टीका में भी शंका-समाधानपूर्वक यही भाव व्यक्त किया है, जो कि इसप्रकार है. -- "शंका - इष्टदेवता विशेष पंचपरमेष्ठी होने पर भी यहाँ ग्रन्थकर्ता ने सिद्धात्मा को ही क्यों नमस्कार किया ? समाधान :- ग्रन्थकर्ता, व्याख्याता, श्रोता और अनुष्ठाताओं (साधकों) को सिद्धस्वरूप की प्राप्ति का प्रयोजन होने से ( उनने वैसा किया है) जो जिसकी प्राप्ति का अर्थी होता है, वह उसे नमस्कार करता है, जैसे धनुर्विद्या प्राप्ति का अर्थी धनुर्वेदी को नमस्कार करता है वैसे ही। इसकारण सिद्धस्वरूप की प्राप्ति के अर्थी समाधिशतक शास्त्र के कर्ता, व्याख्याता, श्रोता और उसके अर्थ के अनुष्ठाता आत्मा विशेष - ( ये सभी) सिद्धात्मा को नमस्कार करते हैं।" सिद्ध बनने का एकमात्र उपाय अपने श्रद्धा - ज्ञान - आचरण में सिद्धस्वभावी ज्ञायकस्वरूप निजभगवान आत्मा को स्वीकार करना ही है, अन्य कुछ नहीं । जो विशेषण पर्यायदृष्टि से सिद्ध भगवान के लिए प्रयुक्त होते हैं, वे सर्व विशेषण द्रव्यदृष्टि से सभी आत्माओं में घटित होते हैं। जीव एवं अजीव तत्त्वों को जानने का फल - जीवाजीवद्वयं त्यक्त्वा नापरं विद्यते यत: । तल्लक्षणं ततो ज्ञेयं स्व-स्वभाव - बुभुत्सुया ।। २ ॥ यो जीवाजीवयोर्वेत्ति स्वरूपं परमार्थतः । सोऽजीव - परिहारेण जीवतत्त्वे निलीयते || ३ || जीव-तत्त्व-निलीनस्य राग-द्वेष - परिक्षयः । ततः कर्माश्रयच्छेदस्ततो निर्वाण-संगमः ||४|| अन्वय :- यत: (लोक) जीवाजीवं द्वयं त्यक्त्वा अपरं न विद्यते, ततः स्व-स्वभावबुभुत्सया तल्लक्षणं ज्ञेयम् । यः परमार्थतः जीवाजीवयोः स्वरूपं वेत्ति सः अजीवपरिहारेण जीवतत्त्वे निलीयते । जीवतत्त्व-निलीनस्य राग-द्वेष - परिक्षय: (भवति) तत: कर्माश्रयच्छेदः (भवति), तत: निर्वाण-संगम: (जायते) । सरलार्थ :- क्योंकि इस विश्व में जीव और अजीव इन दो द्रव्यों को छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं है। इसलिये अपने स्वरूप को जानने की इच्छा से जीव और अजीव द्रव्यों का लक्षण जानना चाहिए। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/18]Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 319