Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 10
________________ २० योगसार-प्राभृत है। प्रत्येक आत्मा स्वभाव से ही परद्रव्य, परद्रव्य के गुण एवं परद्रव्यों की पर्यायों से भिन्न है। इसमें किसी को कुछ नया करने की आवश्यकता नहीं है, आवश्यकता मात्र जो जैसा है, उसे वैसा जानने की है। जो अनादि-अनंत अपने आत्मा के ज्ञायक स्वभाव को यथार्थ जानता है, 'मैं मात्र ज्ञान का घनपिण्ड हूँ' अन्य कुछ भी नहीं हूँ, जानना छोड़कर मैंने और कुछ भी नहीं किया है, न कर रहा हूँ और न करूँगा' - ऐसा जो वस्तुस्वरूप का सच्चा निर्णय करता है, उसे किसी भी परद्रव्य की पर्यायों को देखकर/जानकर राग-द्वेष होंगे ही नहीं। अपने सामने से परद्रव्यों को हटाकर अज्ञानी राग-द्वेष का परिहार करना चाहता है; परन्तु यह उपाय मिथ्या है। आत्मा का लक्षण उपयोग और उसके भेद - उपयोगो विनिर्दिष्टस्तत्र लक्षणमात्मनः। द्वि-विधो दर्शन-ज्ञान-प्रभेदेन जिनाधिपैः।।६।। अन्वय :- तत्र जिनाधिपैः आत्मनः लक्षणं उपयोगः विनिर्दिष्टः । (स: उपयोगः) दर्शनज्ञान-प्रभेदेन द्विविधः। सरलार्थ :- जीव एवं अजीव इन दो में से जीव अर्थात् आत्मा का लक्षण जिनेन्द्रदेव ने उपयोग कहा है। वह उपयोग दर्शन एवं ज्ञान के भेद से दो प्रकार का है। भावार्थ:- जीवादि सात तत्त्वों का यथार्थ निर्णय करने के लिये भेदज्ञान आवश्यक है और भेदज्ञान के लिये प्रत्येक द्रव्य की स्वतंत्रता का सच्चा ज्ञान चाहिए । द्रव्य की स्वतंत्रता का ज्ञान द्रव्य के लक्षणमूलक ज्ञान से ही सम्भव है, अन्य किसी दूसरों की भक्ति अथवा भावुकता या पुण्य से यह कार्य नहीं होता। इसलिए जीवादि द्रव्यों का ज्ञान, लक्षण के आधार से करना आवश्यक है। जीव का लक्षण उपयोग है - यह समयसार गाथा २४ एवं पंचास्तिकाय गाथा ४० में तथा तत्त्वार्थसूत्र अध्याय २ के ८वें सूत्र में भी आया है। दर्शन के भेद एवं उसका लक्षण - चतुर्धा दर्शनं तत्र चक्षुषोऽचक्षुषोऽवधेः। __ केवलस्य च विज्ञेयं वस्तु-सामान्य-वेदकम्।।७।। अन्वय :- तत्र (उपयोगलक्षणे) वस्तु-सामान्य-वेदकं दर्शनम् । (तत्) चक्षुष: अचक्षुषः अवधेः केवलस्य च (भेदात्) चतुर्धा विज्ञेयम्। सरलार्थ :- जीव के उपयोगलक्षण में वस्तु-सामान्य का वेदन करनेवाला दर्शनोपयोग है और वह चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन व केवलदर्शन के भेद से चार प्रकार का है। भावार्थ :- प्रत्येक वस्तु सामान्य-विशेषात्मक होती है। उसमें से सामान्य अभेद को ग्रहण करनेवाला दर्शनोपयोग है। अन्य ग्रन्थों में दर्शनोपयोग का लक्षण सामान्य-अवलोकन अथवा सामान्य-प्रतिभास भी कहा गया है। सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में आचार्य पूज्यपाद ने साकारं ज्ञानमनाकारं [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/20]

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