Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 12
________________ २२ योगसार-प्राभृत केवलज्ञान व केवलदर्शन के उत्पत्ति में कारण - उदेति केवलज्ञानं तथा केवलदर्शनम्। कर्मणः क्षयतः सर्वं क्षयोपशमतः परम् ।।१०।। अन्वय :- केवलज्ञानं तथा केवलदर्शनं कर्मणः क्षयत: उदेति । परं सर्वं (दर्शनं ज्ञानं च) कर्मणः क्षयोपशमतः (उदेति)। सरलार्थ :- केवलदर्शन तथा केवलज्ञान मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अंतराय कर्मों के क्षय से अर्थात् नाश से उदित होते हैं/प्रगट होते हैं। शेष अचक्षुदर्शनादि तीन दर्शन एवं मतिज्ञानादि सात ज्ञान ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अंतराय कर्मों के क्षयोपशम से प्रगट होते हैं। भावार्थ:- केवलदर्शन दर्शनावरण कर्म के क्षय से और केवलज्ञान ज्ञानावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है। जब केवलदर्शन और केवलज्ञान उत्पन्न होता है, तब अविनाभावी अंतरायकर्म के अभावपूर्वक ही होता है । मोहनीय का नाश तो पूर्व में ही हो चुका होता है। वास्तव में कर्मों के क्षय से या क्षयोपशम से आत्मा के किसी भी गुण की पूर्णता अथवा विकास नहीं होता: क्योंकि एक द्रव्य की पर्याय का अन्य द्रव्य की पर्याय में नियम से अभाव रहता है, तब कर्म के क्षय-क्षयोपशम; जीव के ज्ञानादि गुणों की पर्याय का कार्य कैसे कर सकते हैं ? प्रश्न :- शास्त्र में कर्म के उपशम, क्षय, क्षयोपशम से जीव के परिणाम होते हैं - ऐसा कथन बहुत आता है, उसका अर्थ क्या समझें? स्पष्ट खुलासा करें। उत्तर :- यह सब कथन निमित्त-नैमित्तिक संबंध का ज्ञान कराता है, कर्ता-कर्म संबंध को नहीं बताता। निमित्त-नैमित्तिक संबंध का अर्थ मात्र दो द्रव्यों की पर्यायें एक ही काल में होती हैं - इसका ज्ञान कराना है; इसे ही कालप्रत्यासत्ति भी कहते हैं । निमित्त-नैमित्तिक का कथन जानकर भी हमें भेदज्ञान ही पुष्ट करना चाहिए; एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता है - इस मिथ्या मान्यता का पोषण नहीं करना चाहिए। दर्शन और ज्ञान की उत्पत्ति का क्रम - योगपद्येन जायते केवलज्ञान-दर्शने । क्रमेण दर्शनं ज्ञानं परं नि:शेषमात्मनः ॥११॥ अन्वय :- आत्मनः केवलज्ञान-दर्शने यौगपद्येन जायेते । निःशेषं परं दर्शनं ज्ञानं क्रमेण (जायेते)। सरलार्थ :- आत्मा के केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो उपयोग युगपत्/एकसाथ प्रगट होते हैं । शेष सब दर्शन - चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन ये तीन दर्शन; ज्ञान - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान एवं विभंगज्ञान ये सात ज्ञान क्रम से उदय को प्राप्त होते हैं अर्थात् प्रगट होते हैं। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/22]

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