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योगसार-प्राभृत
मिथ्यात्व अर्थात् विपरीत श्रद्धा तो श्रद्धा गुण का कार्य है, इस विपरीतता को श्रद्धा गुण द्वारा समझाया नहीं जा सकता । इसलिये ज्ञान गुण का, जो विपरीत जाननेरूप कार्य है, उसके द्वारा श्रद्धा की विपरीतता को बताया गया है। श्रद्धा को यथार्थ बताने के लिये भी एक ज्ञान गुण के परिणमन का ही आधार लेकर जीवों को समझाया जाता है कि, वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान करोगे तो ही मिथ्यात्व टलेगा। इसलिये मिथ्या श्रद्धा से परिणत जीवों को वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान करने की ही प्रेरणा दी जाती है । स्वाध्याय करो, शास्त्र पढ़ो, उपदेश सुनो, सत्समागम करो - ऐसा ही उपदेश योग्य है, दूसरा कुछ उपाय भी नहीं हैं। दर्शनमोहनीय कर्म के तीन भेद -
उदये दृष्टिमोहस्य गृहीतमगृहीतकम्।
जातं सांशयिकं चेति मिथ्यात्वंतत् त्रिधा विदुः।।१४।। अन्वय :- दृष्टिमोहस्य उदये (सति) जातं तत् मिथ्यात्वं गृहीतं अगृहीतकं सांशयिकं च इति त्रिधा विदुः। ___सरलार्थ :- दर्शनमोहनीय कर्म का उदय होनेपर उत्पन्न हुआ यह मिथ्यात्व गृहीत, अगृहीत और सांशयिक ऐसा तीन प्रकार का जानना चाहिए।
भावार्थ :- सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ में आठवें अध्याय के प्रथम सूत्र की टीका में अगृहीत को नैसर्गिक और गृहीत को परोपदेशिक मिथ्यात्व कहा है। गोम्मटसार जीवकाण्ड में मिथ्यात्व के विपरीत आदि पाँच भेद बताये हैं. उनमें संशय नाम का एक मिथ्यात्व कहा है। इस श्लोक में जैसे मिथ्यात्व के तीन भेद कहे हैं. वैसे ही भगवती आराधना के प्रथम अध्याय के गाथा ५८ में भी कहे गये हैं। मिथ्यात्व का स्वरूप -
अतत्त्वं मन्यते तत्त्वं जीवो मिथ्यात्वभावितः।
अस्वर्णमीक्षते स्वर्णं न किं कनकमोहितः ।।१५।। अन्वय :- मिथ्यात्वभावित: जीवः अतत्त्वं तत्त्वं मन्यते (यथा) कनकमोहितः (जीव:) किं अस्वर्णं स्वर्णं न ईक्षते ? (अर्थात् ईक्षते एव)।
सरलार्थ :- मिथ्यात्व से प्रभावित हुआ जीव अतत्त्व को तत्त्व मानता है। धतूरे से मोहित प्राणी क्या अस्वर्ण को स्वर्णरूप में नहीं देखता ? अर्थात् देखता ही है।
भावार्थ:-जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। इनमें जीव तत्त्व ही ध्येय/ध्यान का विषय होनेसे साधक को सदैव उपादेय है। साधक जीवतत्त्व को एक समय के लिये भी अपनी श्रद्धा में से नहीं निकाल सकता। यदि साधक की श्रद्धा में से जीवतत्त्व निकल जाय तो वह मिथ्यात्व को प्राप्त हो जायेगा। साधक जब शुभ या अशुभ उपयोग में हो तो भी निज
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