Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 15
________________ जीव अधिकार भगवान आत्मा जिसे शास्त्र में ज्ञायक भी कहा गया है, वह श्रद्धा का श्रद्धेय बना ही रहता है। इसकारण साधक जीव धार्मिक तो बना ही रहता है और उसके भूमिकानुसार संवर-निर्जरा भी होते रहते हैं, वह उतनी मात्रा में सुखी भी रहता है। जैसे - स्वर्ण, स्वर्णरूप से सामने होने पर भी धतूरे से मोहित मनुष्य उसे स्वर्णरूप से स्वीकारता नहीं है, इतनी ही भूल है। वैसे ही मिथ्यात्व से मोहित अवस्था में अज्ञानी अनादि काल से साक्षात् विद्यमान अपने निज जीव तत्त्व को स्वीकारता ही नहीं है। अतः अपने स्वभाव को नहीं स्वीकारना ही तत्त्व को अतत्त्व मानना है। सम्यक्त्व का स्वरूप - यथा वस्तु तथा ज्ञानं संभवत्यात्मनो यतः। जिनैरभाणि सम्यक्त्वं तत्क्षमं सिद्धिसाधने।।१६।। अन्वय :- यथा वस्तु तथा आत्मनः ज्ञानं यतः संभवति (तत्) सम्यक्त्वं जिनैः अभाणि, तत् सिद्धिसाधने क्षमं (भवति)। सरलार्थ :- वस्तु जिस रूप में है, उसको उसी रूप में जानना आत्मा को जिस कारण से होता है, उसको जिनेन्द्र देव ने सम्यक्त्व कहा है। वह सम्यक्त्व आत्मसिद्धि का साधन है। भावार्थ:- जैसी वस्तु है, वैसी श्रद्धा करने को सम्यक्त्व कहते हैं । सम्यक्त्व तो श्रद्धा गुण की यथार्थ पर्याय है, वह ज्ञान के सम्यक्पने में कारण होती है। सम्यक्त्व ही आत्मसिद्धि/आत्मविकास का मूल कारण है। सम्यक्त्व के बिना मोक्षमार्ग नहीं होता । मोक्षमार्ग के बिना मोक्षप्राप्ति नहीं है। जैनदर्शन में ईश्वर के कर्त्तापने का स्वीकार ही नहीं है, अतः उसके अनुसार तो भगवान या अन्य कोई भी किसी भी अन्य जीव का उद्धार कर ही नहीं सकता है। जो जीव यथार्थ पुरुषार्थ करता है, वही मोक्षमार्ग प्राप्त कर मुक्त हो सकता है - यही आत्मसिद्धि है। अथवा अपनी आत्मा को सिद्धअवस्था की प्राप्ति होना ही आत्मसिद्धि है और उसका मूल उपाय सम्यग्दर्शन है। सम्यक्त्व के भेद और उनमें कारण-कार्यपना - मिथ्यात्व-मिश्र-सम्यक्त्व-संयोजन-चतुष्टये क्षयं शमं द्वयं प्राप्ते सप्तधा मोहकर्मणि।।१७।। क्षायिकं शामिकं ज्ञेयं क्षायोपशमिकं विधा। तत्रापि क्षायिकं साध्यं साधनं द्वितयं परम्।।१८।। अन्वय :- मिथ्यात्व-मिश्र-सम्यक्त्वसंयोजनचतुष्टये सप्तधा मोहकर्मणि क्षयं शमं द्वयं प्राप्ते (सति) (तत् सम्यक्त्वं) क्षायिकं शामिकं क्षयोपशामिकं (च इति) त्रिधा ज्ञेयं । तत्रापि [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/25]

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