Book Title: Yogasara Prabhrut
Author(s): Amitgati Acharya, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 6
________________ ३३० योगसार-प्राभृत उन योगियों ने जिस योग अर्थात् ध्यान से कर्मरूपी कलंक से रहित (निज) शुद्ध आत्मा का अत्यन्त स्पष्ट ज्ञान होता है, उस ज्ञान को योग कहते हैं। यहाँ श्लोक में परिज्ञान को योग अर्थात् ध्यान कहा है। इसी विषय का अधिक स्पष्टीकरण आचार्य ने स्वयं ही चूलिका अधिकार के १४वें श्लोक में किया है - उस श्लोकांश को हम आगे दे रहे हैं - ध्यानं निर्मलज्ञानं पुसां संपद्यते स्थिरम् । अर्थात् पुरुषों/जीवों का निर्मल/सम्यग्ज्ञान जब स्थिर होता है, तब उस ज्ञान को ही ध्यान कहते हैं। इसप्रकार हमने यहाँ तक योगसार-प्राभृत ग्रंथ के नाम में जो योग शब्द आया है, उसका अर्थ देखा। __ अब सार शब्द का ज्ञान करना अर्थात् सार शब्द का भाव समझने का प्रयास करते हैं। सार शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है । वे अर्थ निम्नानुसार हैं - श्रेष्ठ, स्थिरांश, सत्त्व, नवनीत (मक्खन)। योगसार का अर्थ हुआ - ध्यान संबंधी श्रेष्ठ वस्तु, ध्यान का महत्त्वपूर्ण अंश, ध्यान/योग विषयक कथन का नवनीत/सार। प्राभृत यह शब्द संस्कृत भाषा का है। प्राभृत को प्राकृत भाषा में पाहुड कहते हैं। प्राभृत/पाहुड शब्द का अर्थ उपहाररूप में दी जानेवाली सारभत/सर्वश्रेष्ठ वस्तु ऐसा होता है। जयसेनाचार्य ने समयसार टीका में पाहुड का अर्थ निम्नानुसार किया है - यथा कोऽपि देवदत्त राजदर्शनार्थं किंचित् सारभूतं वस्तु राज्ञे ददाति तत् 'प्राभृतं' भण्यते तथा परमात्माराधक-पुरुषस्य निर्दोष-परमात्मराजदर्शनार्थमिदमपि शास्त्रं प्राभृतम् । ___ अर्थात् जिसप्रकार कोई देवदत्त नामक पुरुष राजा के दर्शन करने के लिए कोई सारभूत वस्तु राजा को भेंट करता है. उसे प्राभत कहते हैं. उसीप्रकार परमात्मा का आराधक पुरुष (ग्रंथकार) का निर्दोष परमात्मराज का दर्शन करने के लिए यह शास्त्र भी प्राभृत (भेंट) के रूप में है। वीरसेनाचार्य ने जयधवला में प्राभूत का अर्थ थोड़ा सा भिन्न प्रकार से दिया है, उसका मात्र हिन्दी अनुवाद हम आगे दे रहे हैं - जो प्रकृष्ट पुरुष/तीर्थंकर परमदेव के द्वारा प्रस्थापित हुआ, वह प्राभृत है। जो विद्याधन के धनी प्रकृष्ट उत्तम आचार्यों के द्वारा धारित/व्याख्यात/ आनीत अर्थात् परम्परा से आगत हुआ है, वह प्राभृत है। इससे - प्राभृत शब्द से प्रतिपादित विषय प्राचीन एवं समीचीन भी है, ऐसा ज्ञान होता है। इस समग्र विवेचन से हमें यह समझ लेना चाहिए कि अमितगति आचार्य ने योग अर्थात् ध्यान के संबंध में अत्यंत श्रेष्ठ एवं प्राचीन विषय भेंटरूप में दिया है। अतः हमें इस योगसार-प्राभृत का बारीकी से अध्ययन करके आत्मकल्याण में लाभ उठाना चाहिए। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/330]

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