Book Title: Vishvakarmaprakash
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 18
________________ वि. प्र. || 2 || पर खनन करे ( खोदे ) ॥ १०० ॥ और भाद्रपद आदि तीन तीन मासोंमें क्रमसे पूर्व आदि दिशा में वास्तुपुरुषका मुख होता है जिस दिशाको वास्तुपुरुषका मुख हो उसीमें गृहका मुख शुभ होता है ॥ १०१ ॥ अन्यदिशाको है मुख जिसका ऐसा घर दुःख शोक भयका देने वाला होता है और वृषकी संक्रांतिसे तीन तीन संक्रांतियोंमें वेदोके विषै और सिंहकी संक्रांतिसे तीन २ संक्रांतियोंमें गृहके विषै ॥ १०२ ॥ और मीनकी संक्रांतिसे तीन २ संक्रांतियोंमें देवमंदिरके विषै और मकरकी संक्रांतिसें तीन २ संक्रांतियोंमें तडागके विषे गिने तो पूर्व त्रिषु त्रिषु च मासेषु नभस्यादिषु च क्रमात् । यदिङ्मुखो वास्तुनरस्तन्मुखं सदनं शुभम् ॥ १०१ ॥ अन्यदिङ्मुखगेहं तु दुःख शोकभयप्रदम् । वृषार्कादित्रिकं वैद्यां सिंहादि गणयेद्गृहे ॥ १०२ ॥ देवालये च मीनादि तडागे मकरादिजम् । पूर्वादिषु शिरः कृत्वा नागश्शेते त्रिभिस्त्रिभिः ॥ १०३ ॥ भाद्राद्यैवमपार्श्वे च तस्य कोडे गृहं शुभम् । ईशानतः कालसर्पः संहारेण प्रसर्पति ॥ १०४ ॥ विदिक्षु शेषवास्तोश्च मुखं त्याज्यं चतुर्थकम् । खनेच्च सौरमानेन व्यत्ययं चाशुभं भवेत् ॥ १०५ ॥ चतुस्त्रिकादि शालानामेष दोषो न विद्यते । एकं नागोडुसंशुद्धया मंदिरारंभणं शुभम् ॥ १०६ ॥ आदिदिशाओं में शिरकरके वास्तुनाग तीन २ संक्रांतियोंमें सोते हैं ॥ १०३ ॥ भाद्रपद आदि तीन २ महीनों में वास्तु पुरुषके वामपार्श्वके क्रोड (भाग) में घरका बनाना शुभ होता है और पूर्वोक्त क्रमसे ईशानदिशासे कालसर्प चलता है ॥ १०४ ॥ ईशान आदि विदिशाके मध्य में वास्तुपुरुषका मुख जो चौथी विदिशामें है वह त्यागने योग्य है और संक्रांतिके प्रमाणसे सौरमान कर खनन करें (खोदे) और विपरीत रीतिसे करे तो अशुभ होता है ॥ १०५ ॥ जो घर बार या तीन शालावाला बनाया जाय उसमें यह दोष नहीं, वास्तुनाग और नक्षत्रकी भा. टी. अ. १ : || 2 ||

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