Book Title: Vikram Journal 1974 05 11
Author(s): Rammurti Tripathi
Publisher: Vikram University Ujjain

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Page 17
________________ विक्रम तीर्थंकर मल्लिनाथ को श्वेताम्बर परम्परा स्त्री और दिगम्बर पुरुष मानती है, इस मतवैभिन्न्य का कारण स्त्री के कैवल्यज्ञान प्राप्ति के सम्बन्ध में सैद्धान्तिक मतभेद होता है । प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का आयु प्रमारण ८४ लाख पूर्व (७० लाख ५६ हजार करोड़ वर्षों का एक पूर्व माना गया है), जिसमें कुमार जीवन २० लाख पूर्व, राज्य शासन ६३ लाख पूर्व एवम् श्रमावस्था १ लाख पूर्व मानी गई है तथा उनका शरीर प्रमाण ५०० धनुष और निर्वाणस्थल अष्टापद या कैलाश माना जाता है । चौवीस तीर्थंकरों के अन्तरकाल को प्रवचन सारोद्धार और तिलोयपण्पत्ति में अरबों वर्षों का माना है । महावीर और पार्श्वनाथ का अंतरकाल २७३ वर्ष, पार्श्वनाथ एवम् नेमि का अंतरकाल ८४,६५० वर्ष, मि और नमि का अंतरकाल ५ लाख वर्ष, नमि और मुनि सुव्रत का अंतरकाल ११ लाख वर्ष माना गया है, जो बढ़ते-बढ़ते एक करोड़ से असंख्यात वर्ष तक उल्लेखित है । तीर्थंकरों का शरीर प्रमाण और वय भी अंतरकाल के अनुपात में बड़ी हुई बताई गई है । ५ जैन परम्परा में वारह चक्रवर्ती सम्राट - भरत, सगर, मधवा, सनत्कुमार, शान्ति, कुन्थु, अर, सुभौम, पद्म, हरिषेण, जयसेन और ब्रह्मदत्त; नौ बलदेव - विजय, अचल, भद्र, सुप्रभ, सुदर्शन, आनन्, नन्दनदे, पद्म और राम; नौ वासुदेव त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयम्भू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुष, पुण्डरीक, दत्त, नारायण और कृष्ण तथा नौ प्रतिवासुदेवअश्वग्रीव, तारक, मेरक, मधु-कैटभ, निशुम्भ, बलि, प्रहलाद, रावण और जरासन्ध; इस प्रकार चौबीस तीर्थंकरों सहित ६३ शलाका पुरुष वर्णित हैं । जैन इतिहास में इन ६३ शलाका पुरुषों के चरित वर्णन की परम्परा भी लोकप्रिय रही है । . जैन परम्परा में संसार की प्रारम्भिक स्थिति में सुख एवम् वैभव के साथ-साथ लोगों की आयु दीर्घ और शक्ति अपरिमित मानी गई है, जिसका शनैः-शनैः ह्रास होता रहा । ब्राह्मण परम्परा में भी सतयुग, त्रेतायुग, कलियुग आदि की मान्यता द्वारा इसी प्रकार की श्रुति को स्थान दिया गया है । ग्रीस और रोम की परम्पराएँ भी प्रारम्भिक युग में इसी प्रकार की सृष्टि का अस्तित्व मानती है । भगवान ऋषभदेव की आयु करोड़ों वर्षों की वरिंगत है परन्तु तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की सौ वर्ष और महावीर की ७२ वर्ष ही आयुप्रमाण स्वीकार किया गया है। इससे पार्श्वनाथ और महावीर के सम्बन्ध में ऐतिहासिक खोजों की जैन परम्परा से प्रतिकूलता नहीं है । संसार के अधिकांश ] धर्मों में अतिशयोक्तिपूर्ण परम्पराओं को मूलाधार माना गया है । जिसके मूल आराध्य को अलौकिक व्यक्तित्व का श्रागार मानने की स्वाभाविक दुर्बलता निहित है | जैनेतर भारतीय धर्मों में भी विभिन्न अनुश्रुतियों का प्राधान्य है यद्यपि वैज्ञानिक कालपद्धति ने शोधकार्य की दृष्टि दी है । ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में प्रत्येक धर्म की प्राचीनता और तदनुरूप मूल्यांकन के प्रयास अवश्य हुए हैं । जैनधर्म के संस्थापक के रूप में भगवान् महावीर को ही प्रतिष्ठित करने के प्रयास हुए हैं, यद्यपि याकोबी ने पार्श्वनाथ को ऐतिहासिक पुरुष सिद्ध कर शोध कार्य को नवीन दिशा अवश्य दी थी; फिर भी पुरातात्विक प्रमाणों के प्रकाश में जैनधर्म की प्राचीनता निश्चित करने की आवश्यकता अपरिहार्य है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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