Book Title: Vikram Journal 1974 05 11
Author(s): Rammurti Tripathi
Publisher: Vikram University Ujjain

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Page 124
________________ महावीर के तपोयोग का रहस्य ११५ क्रियानों से सुरक्षित रखा जाये, तो पेट में पहुँचा हुआ भोजन क्या विकृत हो कर नाना रोगों को उभार नहीं देगा ? बहुधा यह भी देखा जाता है कि तृप्त व्यक्ति भोजन के लिए नहीं अकुलाता। टिफन में यदि भोजन पड़ा हुआ होता है, तो भूख भी व्यक्ति को कम सताती है। मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि भोजन का प्रभाव भूख को अधिक तथा असमय उभार देता है। क्या किसी भी प्रक्रिया के द्वारा उदर को टिफन बनाया जा सकता है और उसे सम्भावित विकृतियों से बचाया जा सकता है ? महावीर अनुत्तर अध्यात्म योगी थे। उन्होंने साधना में ऐसे अद्भुत प्रयोग किये थे कि जिनके माध्यम से शारीरिक प्रभावों को न केवल भरा जा सकता था, अपितु अभावों का निर्माण ही निर्मूल हो जाता था। आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा तथा समाधि का अवलम्बन समय-समय पर वे करते रहते थे। उनकी साधना का एक चरण बुभुक्षा-विजय भी था। शारीरिक स्पन्दन सर्वथा उनके अधीन था। वाचिक गुप्ति की उनकी साधना सतत चालू थी। मानसिक संकल्प-विकल्पों को भी वे अनियंत्रित नहीं होने देते थे। उनकी शारारिक साधना मानसिक साधना को निखार रही थी, तो मानसिक साधना शारीरिक स्पन्दनों के गत्यविरोध को निर्मूल कर रही थी। उनकी समस्त शारीरिक क्रियाएँ तब तक गतिशील नहीं हो सकती थीं, जब तक कि वे उन्हें उस ओर प्रवृत्त नहीं करते थे। रक्त का संचालन, श्वास-प्रश्वास तथा उसका सूक्ष्म व स्थूल समस्त परिचालन उनका ऐच्छिक होता था। महावीर ने तपस्या के क्षेत्र में यह एक अनूठा प्रयोग किया था। वे पक्ष, मास, दो मास, या चारमास में जब भी परिमित भोजन ग्रहण करते पाकाशय में उसको सुरक्षित रख सकते थे। लीवर से गिरने वाले एसिड को और प्रांतों के स्पन्दन को रोक सकते थे। गृहीत भोजन उनके उदर में सुरक्षित पड़ा रहता था। मोजन पर बाष्पीय प्रयोग एक अन्य क्रिया के द्वारा महावीर उस भोजन पर बाष्पीय प्रयोग भी करते थे। जिसमें भोजन विकृत नहीं हो सकता था। उनके जीवन-प्रसंगों में उल्लेख मिलते हैं कि वे कभी शीत में चंक्रमण करते तथा कभी आतापना भी लेते। शीत में चंक्रमण तथा प्रातापना लेना उनके द्वारा गृहीत आहार पर होने वाले बाष्पीय प्रयोग की संसूचा है । इस प्रयोग से वे प्रतिक्षण आहृत की तरह रहते थे। इसीलिए उनकी क्रांन्ति क्लान्ति में परिणत नहीं हो पाई। उनका आभा-मण्डल ज्यों-का-त्यों भास्वर रहा। उनकी साधना चलती रही और वह कर्म-क्षय की निमित्त बनती रही। यही कारण है कि उनका ध्यान सप्ताह, पक्ष, मास, द्वि मास, चार मास, छह मास तक भी प्रखण्ड चलता रहा। उन्हें कहीं भूख-प्यास की वेदना अनुभव हुई हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। क्योंकि वेदना की स्थिति में ध्यान की निर्बाधता सध नहीं सकती। वह बार-बार मन को विक्षिप्त करती रहती है। महावीर ने ध्यान की अभिवृद्धि के लिए शारीरिक प्रभावों पर विजय पाने के इस प्रकार के सुगम मार्ग निकाले थे। "पलास्का" का निर्माण अभी-अभी पूना की राष्ट्रीय अनुसन्धानशाला में भारतीय वैज्ञानिक ने भोजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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