Book Title: Vikram Journal 1974 05 11
Author(s): Rammurti Tripathi
Publisher: Vikram University Ujjain

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Page 154
________________ The Vikram Vol. XVIII No. 2 & 4, 1974 भगवान् महावीर की मूलवाणी का भाषा-वैज्ञानिक महत्व डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नीमच । प्राचीनतम भारतीय साहित्य शताब्दियों तक श्रुतियों के रूप में प्रचलित रहा । केवल मौखिक परम्परा ही उस साहित्य को जीवित रखने में समर्थ हुई है। जैन साहित्य की प्राचीनतम परम्परा भी मौखिक एवम् श्रति रूप में एक कालातीत श्रमण-संकृति तथा आर्हत धर्म की प्रागम-वाचना के रूप में विश्रुत रही है। भगवान् महावीर की मूल वाणी आज "प्रागम" के नाम से प्रसिद्ध है। जो 'श्रुत' भगवान् महावीर से परम्परा रूप में प्राप्त हुआ, उसे सामान्यतः “प्रागम" कहते हैं। आगम शब्द की निरुक्ति है : जिन आप्तवचनों से पदार्थ का ज्ञान होता है, उनको आगम कहते हैं।' यथार्थ में जो वाणी निर्मल आत्मा की उपलब्धि में सहायक है, जिन्होंने निर्मल आत्मा को उपलब्ध कर उसके आगम का उपाय बताया गया है, उनकी वाणी को "पागम" कहते हैं। इसलिए “प्रागमद्रव्य" का अर्थ "प्रात्मा" किया गया है। जैनधर्म कहिए या प्रात्मधर्म दोनों समानार्थवाची हैं । आगम में मुख्य रूप से आत्मोपलब्धि का निरूपण किया गया है। संसार में विभिन्न विषय हैं और उन विषयों से सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति का उपाय बताया जाता है। संसार की विभूति लौकिक विषयों से मिल सकती है, किन्तु पारमार्थिक सम्पदा या परमतत्त्व की उपलब्धि का उपाय केवल "प्रागम" में ही वरिणत रहता है। आगमवाणी परमार्थविधायिनी होती है। __ भगवान् महावीर की मूल वाणी की परम्परा आज दो रूपों में उपलब्ध होती है। एक परम्परा के अनुसार तीर्थङ्कर महावीर ने जो उपदेश दिया था, वह निरक्षरी वाणी के रूप में था। "निरक्षरी" का अर्थ "अक्षरों" से रहित नहीं, किन्तु खण्ड-खण्ड रहित अखण्ड धाराप्रवाह के रूप में उनकी दिव्यध्वनि निःसृत हुई थी। प्रोङ्कार ध्वनि के साथ प्रवाहित होने वाली भगवान् महावीर की वाणी को दिव्यध्वनि कहते हैं। दिव्यध्वनि की विशेषता यह है कि एक रूप होने पर भी वह सर्व भाषारूप परिणमनशील थी। प्राचार्य जिनसेन ने उसे अक्षररूप माना है। वास्तव में जिस प्रकार हारमोनियम की संगीतात्मक वर्ण-माला से सभी प्रकार के रागों में गीत-ध्वनियाँ निःसृत होती हैं, उसी प्रकार से भगवान् महावीर द्वारा उच्चरित ध्वनियाँ अपने-अपने परिणमन के अनुसार सबके लिए बोध्य थीं। उनका उपदेश अर्द्ध:मागधी भाषा में हुआ था। भगवान महावीर के उपदेशों को सुनकर उनके गणधरों ने जो ग्रन्थ रचे हैं, उन्हें 'श्रुत' कहते हैं। भगवान् महावीर के उपदेशों को श्रीमुख से सुनकर गणधरों ने अंगों के रूप में ग्रथन किया, गणधरों से उनके शिष्यों ने और शिष्यों से प्रशिष्यों ने श्रवण किया। इस प्रकार श्रवण द्वारा प्रवर्तित होने के कारण उसे श्रुत कहा जाता है। श्रुत के अन्तिम उत्तराधिकारी श्रुतकेवली भद्रबाहु कहे गए हैं। भगवान् महावीर के मूल संघ में आम्नाय रूप से चार संघ प्रसिद्ध थे। सिंहसंघ, नन्दिसंघ, सेनसंघ और देवसंघ। इस संघ में भगवान् महावीर के निर्वाण-प्राप्ति के अनन्तर गौतम गणधर, सुधर्माचार्य और जम्बूस्वामी हुए। पश्चात् पाँच श्रुतकेवलियों में से प्रथम विष्णुकुमार, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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