Book Title: Vikram Journal 1974 05 11
Author(s): Rammurti Tripathi
Publisher: Vikram University Ujjain

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Page 164
________________ भगवान् महावीर की मूलवाणी का भाषा-वैज्ञानिक महत्व १५५ भाषाओं के आगत शब्द आर्य बोलियों में समाहित हो गए थे और आर्यभाषा में एक नया परिवर्तन लक्षित होने लगा था। अतएव वैयाकरणों और दार्शनिकों ने आर्यभाषा की साधुता की ओर लक्ष्य दिया। भाषाविषयक परिवर्तन के वेग को अवरुद्ध करने के लिए वैयाकरणों ने दो महान् कार्य किये। प्रथम प्रयत्न में उन्होंने गणों की व्यवस्था की। महर्षि पाणिनि ने 'पृषोदरादि' गणों की सृष्टि कर शब्द-सिद्धि का एक नया मार्ग ही उन्मुक्त कर दिया। दूसरे प्रयत्न में स्वार्थिक प्रत्यय का विधान कर देशी प्रथा म्लेच्छ भाषाओं से शब्दों को उधार लेकर अपनाने की तथा रचाने-पचाने की एक नई रीति को ही जन्म दिया। इन दोनों ही कार्यों से संस्कृत का शब्द-भाण्डार विशाल हो गया और भाषा स्थिर तथा निश्चित हो गयी । सम्भवतः इसी ओर लक्ष्य कर मीमांसादर्शन में शबरमुनि कहते हैं कि जिन शब्दों को आर्य लोग किसी अर्थ में प्रयोग नहीं करते, किन्तु म्लेच्छ लोग करते हैं; यथा : पिक, नेम, सत, तामरस, आदि शब्दों में सन्देह है ।२ ऋग्वेद में प्रयुक्त कई शब्द मुण्डा भाषा के माने जाते हैं। उदाहरण के लिए कुछ शब्द हैं : (१) कपोत-दुर्भाग्य दायक (ऋग्वेद १०,१६५,१), लांगल-हल (ऋग्वेद), वार-घोड़े की पूंछ (ऋग्वेद १,३२,१२), मयूर (ऋग्वेद १,१६१,१४), शिम्बल-सेमल पुष्प (ऋग्वेद ३,५३,२२) इत्यादि । इस अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृत के अध्ययन के लिए प्राकृत का अध्ययन भी किसी स्थिति तक आवश्यक है। क्योंकि मूल में ये दोनों ही एक ही भाषा के दो रूप हैं, जो युग-प्रवाह में सहस्रों वर्षों के अन्तराल में विभिन्न नाम-रूपों को प्राप्त कर विविध नामों से प्रचलित रहे। प्राकृत भाषा का और विशेषकर आगमों की पार्ष प्राकृतों का जो कि महाराष्ट्री और मागधी में रचित कहे जाते हैं, अभी तक इनका सर्वांगीण अध्ययन नहीं हो पाया है । बुन्देलखण्डी भाषा में सहस्रों ऐसे शब्द हैं जो व्युत्पत्ति की दृष्टि से प्राकृतों से सम्बद्ध हैं। उदाहरण के लिए कुछ शब्द हैं : उसीसो (गुजराती ओसीसा) प्राकृत के ऊसय शब्द से निर्गत है। इसी प्रकार प्राकृत के प्रोसरिया शब्द से बुन्देली उसारी विकसित हुआ है । देशीनाममाला (१,१४०) में इसके लिए 'ऊसारो' शब्द मिलता है। इसी प्रकार कदुपा (कुम्हड़ा) प्राकृत के कदुइया, खटीक प्राकृत के खट्टिक, चुटया प्राकृत के चौट्टिया, छुई प्राकृत के छुरिया, झुरैया प्राकृत के झूर, जड्ड प्राकृत के जड, झख प्राकृत के झख, टॉक प्राकृत के टंका, निराट प्राकृत के निराय, ठट्ठ, प्राकृत के थट्ट, दारी प्राकृत के दारिया, रक्सा प्राकृत के करीस एवम् खड्ड प्राकृत के खड्ड से निःसत हैं। बुन्देली के ही कंची प्राकृत के कंची, खदरा प्राकृत के खड्डा, खतना प्राकृत के खत्त, खिल्ली प्राकृत के खेल्लिन, गडबड प्राकृत के गड्ड-बड्ड, घाम प्राकृत के धम्म, झामर प्राकृत के झामर, डुकरिया प्राकृत के डोक्करी, तिड्डा प्राकृत के तेड्डु, थई प्राकृत के थइया, पग्गल प्राकृत के पग्गल और बिथार प्राकृत के विप्रालिउ आदि शब्दों से विकसित हैं।४२ इनके अतिरिक्त बुन्देली में छुहारा को खारक कहते हैं, जो प्राकृत खरिक्क शब्द से नि:सृत है। पशु के लिए ढोर शब्द आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओंका प्रचलित शब्द है, जो मूल में प्राकृत का है। हिन्दी के लूला, धुंघरू, ढाक, समोसा, लूट, लुटेरा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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