Book Title: Vikram Journal 1974 05 11
Author(s): Rammurti Tripathi
Publisher: Vikram University Ujjain

View full book text
Previous | Next

Page 117
________________ १०८ विक्रम है। न तो केवल आचार से न केवल विचार से कोई शुद्धात्मा होने का दावा कर सकता है, न ही शुद्ध या अशुद्ध प्राचार के आधार पर किसी प्रात्मा को शुद्ध या अशुद्ध कहा जा सकता। श्रमण संस्कृति ने अन्तर व बाह्य के भेद को कम से कम कर देने का जो संकल्प लिया था वह भारतीय इतिहास में एक अभूतपूर्व देन है। इसका एक प्रमाण है वर्गों के भेद को महत्व न देना । जो भी इन्द्रिय-निग्रह कर सके, जिसका चित्त परिवर्तन हो चुका है, जो भी दर्शन, ज्ञान और चारित्र की साधना करता है वही जैन बन सकता है। जैन बनने के लिए किसी विशेष वर्ण में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं। यह बात भिन्न है कि आज का जैन जन्म से होता है न कि धर्माचरण से, यह तो प्रत्येक धर्म के सम्बन्ध में सत्य है। जब समान धर्मानुयायियों का संगठन बन जाता है तब धर्म गौण हो जाता है और जन्म व संगठन प्रधान हो जाते हैं। जिस वर्ण भेद को समाप्त कर मनुष्य को मनुष्य को तरह समझने का प्रयास महावीर ने प्रारम्भ किया था, उन्हीं का अनुयायी जैन कहलाए जाने वाला समाज आज वेदकालीन वर्गों की ही तरह अपना अलग अस्तित्व बनाये रखने में सन्तोष प्राप्त करता है। __ श्रमण संस्कृति का मूल आधार आध्यात्मिक गवेषणा न होकर आचरण की शुद्धता है। इसका प्राशय यह नहीं कि केवल कर्मशुद्धि ही आदर्श है, क्योंकि कर्म तो आंतरिक जीवन की बाह्य अभिव्यक्ति है। मन बुद्धि के स्वस्थ होने पर कर्म भी शुद्ध हो जाते हैं। लेकिन कर्म के शुद्ध होने से मन भी शुद्ध होगा यह आवश्यक नहीं । गीता की भाषा में कहा जाय तो इन्द्रियों का संयम तो हो जाता है, परन्तु मन से स्मृति नहीं जाती। ऐसा संयम जिसमें तन व मन में भेद हो शुद्ध नहीं होता। विचार एवम् प्राचार या मन एवम् तन का तादात्मय हमारे शुद्धाचरण का कारण है। क्या पूर्णतया शुद्धात्मा के लिए कर्म अनिवार्य है ? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है कि जब कभी कोई कर्म होगा वह शुद्ध ही होगा। शुद्ध आचरण मन का प्रतिबिम्ब है। जैन धर्म में इसी उद्देश्य की प्राप्ति का साधन अहिंसा बतलाया गया। यह कहना तो उचित नहीं है कि अहिंसा परमोधर्म कहने का श्रेय सर्व प्रथम जैन तीर्थंकरों को ही है, क्योंकि समाज एवम् संस्कृति का एक इतिहास रहा है, इस इतिहास में जैन संस्कृति ने अहिंसा तत्व पर जिस प्रकार अध्ययन किया एवम् उसे आचरण में उतारने का प्रयास किया वह विश्व संस्कृति को एक देन है। जैन धर्म केवल अहिंसा-विवेचन के आधार पर विश्व की श्रष्ठ संस्कृतियों में अग्रणी रखा जा सकता है। भारतीय संस्कृति में अहिंसा को श्रेष्ठ धर्म बताने का प्रयास किया है । मनुस्मृति का कथन-"अहिंसयैव भूतानां कार्य योऽनुशासनम् (अध्याय--२-१२६)", महाभारत का कथन-"अहिंसा सकलो धर्मो हिंसाधर्मस्तथाहितः", अहिंसा पूर्ण धर्म है, हिंसा अधर्म है', (शांतिपर्व अध्याय २७२-२०) या "न भूतानाम हिंसाया ज्यायान धर्मोऽस्ति कश्चन", अहिंसा सबसे महान धर्म है। अनुशासन पर्व में तो अहिंसा को परम-धर्म, परम-तप, परम-सत्य, परम-दान, परम-फल,परम सुख बताया है (अध्याय ११५ श्लोक २३)। श्री समन्तभद्र ने अपने बृहत्स्व्यं भू स्तोत्र में कहा है कि जगत के सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा भावना रखना परम ब्रह्म है (अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं)। आचारांग सूत्र में इस बात को बड़े ही सरल शब्दों में प्रकट किया है, सव्वेषाणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200