Book Title: Vikram Journal 1974 05 11
Author(s): Rammurti Tripathi
Publisher: Vikram University Ujjain

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Page 15
________________ विक्रम रामानुजाचार्य के अनुयायी कतिपय वैष्णव राजाओं ने तथा वासव के लिंगायत (वीरशैव) धर्म के अनुयायी अनेक नायको ने जैनधर्म और जैनों पर अमानुषिक अत्याचार भी किए । परिणाम स्वरूप शनैः-शनैः उसकी स्थिति एक प्रमुख धर्म की स्थिति से गिरकर एक गौण सम्प्रदाय की रह गई। १३ वीं शती के प्रारम्भ से लेकर १८ वीं शती के प्रारम्भ तक भारत वर्ष में मुस्लिम शासन की प्रधानता रहने और उस काल में जैनधर्म की स्थिति तथाकथित हिन्दू धर्म जैसी ही रही। शासकों की दृष्टि में दोनों में कोई भेद नहीं था, दोनों ही विधर्मी काफिर थे। जैनों का संख्याबल उत्तरोत्तर घटता गया और वे वाणिज्य-व्यापार में ही सीमित होते गए, इसीलिए शान्तिप्रिय एवम् निरीह होने के कारण शासकों के धार्मिक अत्याचार के शिकार भी अधिक नहीं हुए इस काल में अन्त के डेढ़ सौ वर्ष का मुगल शासन अपेक्षाकृत अधिक सहिष्णु रहा । तदनन्तर लगभग डेढ़ सौ वर्ष देश में अराजकता का अन्धयुग रहा, जब किसी का भी धन, जन एवम् धर्म सुरक्षित नहीं था। उसके पश्चात् १६ वीं शती के मध्य के लगभग से लेकर १९४७ में स्वतन्त्रता प्राप्ति पर्यन्त, देश पर अंग्रेजों का शासन रहा। शान्ति, सुरक्षा, न्याय शासन, पश्चिमी शिक्षा का प्रचार, पुस्तकों एवम् समाचार-पत्रों का मुद्रणप्रकाशन, यातायात के साधनों का अभूतपूर्व विस्तार, नव जागृति, समाज-सुधार एवम् स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए किए गए आन्दोलन एवम् संघर्ष इस युग की प्रमुख विशेषताएँ रहीं और जैनोजन उन सब से ही यथेष्ट प्रभावित रहे। उन्होंने सभी दिशाओं में प्रगति की, स्वतन्त्रता संग्राम में भी सोत्साह सक्रिय भाग लिया और बलिदान किए । स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी राष्ट्र के पुनर्निर्माण में उनका उपयुक्त योगदान रह रहा है। जैनधर्म अपनी मौलिक विशेषताओं को लिए हुए अब भी एक सजीव सचेत जीवन-दर्शन है और वर्तमान युग की चुनौतियों को स्वीकार करने में सक्षम है। धर्म-दर्शन ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-कला, आचार-विचार, प्रायः सभी क्षेत्रों में उसकी सांस्कृतिक बपौती भी स्पृहणीय है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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