Book Title: Vikram Journal 1974 05 11
Author(s): Rammurti Tripathi
Publisher: Vikram University Ujjain

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Page 14
________________ ऐतिहासिक जैनधर्म प्रारम्भ हो गया और पाँचवीं शती ई. के अन्त तक विभिन्न सम्प्रदायों ने अपनी-अपनी परम्परा में सुरक्षित जिनवाणी को लिपिबद्ध कर लिया । मूल ग्रन्थों पर नियुक्ति, चूर्णी, वृत्ति, भाष्य, टीका, आदि विपुल व्याख्या साहित्य का सृजन तथा विविध स्वतन्त्र ग्रन्थों का प्रणयन चालू हो गया। देश और काल की परिस्थितियों वश जैन संस्कृति के केन्द्र अदलते बदलते रहे । बहुमुखी विकास भी होता रहा और उत्थान पतन भी होते रहे । X इस इतिहास काल में जैनधर्म को राज्याश्रय एवम् जनसामान्य का आश्रय भी विभिन्न प्रदेशों में बहुधा प्राप्त रहा । मगध के बिम्बसार (श्रेणिक) आदि शिशुनागवंशी नरेश, उनके उत्तराधिकारी नन्दवंशी महाराजे और मौर्य सम्राट जैनधर्म के अनुयायी अथवा प्रबल पोषक रहे । मौर्य चन्द्रगुप्त एवम् सम्प्रति के नाम तो जैन इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे हैं । दूसरी शती ईसापूर्व में मौर्य वंश की समाप्ति पर ब्राह्मण धर्मी शुंग एवम् कन्ध राजाओं के काल में मगध में जैनधर्म का पतन हो गया, किन्तु मथुरा, उज्जयिनी और कलिंग उसके सशक्त केन्द्र बन गये । कलिंगचक्रवर्ती सम्राट खारवेल जो अपने युग का सर्वाधिक शक्तिशाली भारतीय नरेश था, जैनधर्म का परम भक्त था । इसी प्रकार सम्वत् प्रवर्तक मालवगण का नेता वीर विक्रमादित्य भी जैन था । इस समय के बाद उत्तर भारत में जैनधर्म को फिर कभी कोई उल्लेखनीय राज्याश्रय प्राप्त नहीं हुआ । कतिपय छोटे राजाओं, सामन्त-सरदारों, कभी-कभी राजपरिवारों के कुछ व्यक्तियों को छोड़कर कोई सम्राट, बड़ा नरेश या राज्यवंश इस धर्म का अनुयायी नहीं हुआ, किन्तु उस पर प्राय: कोई अत्याचार और उत्पीड़न भी नहीं हुआ । सामान्यतः शक, कुषारण, गुप्त, वर्धन, आयु, गुर्जर, प्रतिहार, गहडवाल, तोमर, चौहान यदि पूर्व मुस्लिमकालीन प्रायः सभी महत्वपूर्ण शासकों से उसे सहिष्णुतापूर्ण उदारता काही व्यवहार प्राप्त हुआ । मध्यप्रदेश और मालवा के कलचुरि, परमार कच्छपघट, चन्देल आदिनों से, गुजरात के मैत्रय, चावड़ा, सोलंकी और बधेले राजाओं से तथा राजस्थान के प्रायः सभी राज्यों में पर्याप्त प्रश्रय और संरक्षण भी प्राप्त हुआ । राजस्थान में तो यह स्थिति वर्तमान काल पर्यन्त चलती रही । मन्त्री, दीवान, भंडारी, दुर्गपाल, सेनानायक आदि पदों पर भी अनेक जैन नियुक्त होते रहे और वाणिज्य - व्यापार एवम् साहूकार - तो अधिकतर उनके हाथ में ही रहता रहा । उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में जैनधर्म की स्थिति कहीं अधिक श्रेष्ठ एवम् सुदृढ़ रही । ईस्वी सन् के प्रारम्भ से लेकर १६ वीं शती के मध्म में विजयनगर साम्राज्य के पतन पर्यन्त तो अनेक उत्थान पतनों के बावजूद वह वहाँ एक प्रमुख धर्म बना रहा । सुदूर दक्षिण के प्रारम्भिक चेर, पाँडय, चोल, पल्लव, कर्णाटक का गंगवश और दक्षिणापथ के कदम्ब, चालुक्य, राष्ट्रकूट, उत्तरवर्ती चालुक्य, कलचुरि, होयसल आदि वंशों के अनेक नरेश, उनके अनेक सामन्त, सरदार, सेनापति, दण्डनायक, मंत्री, राज्य एवम् नगर श्रेष्ठि जैनधर्म के अनुयायी हुए । जनसामान्य के भी प्रायः सभी जातियों एवम् वर्गों में उसका अल्पाधिक प्रचार रहा । किन्तु वहीं ७ वीं शती के शैव नायनारों और वैष्णव मालवारों के प्रभाव में कई नरेशों ने तथा ११ वीं - १२ वीं शती से शैवधर्मी चोल सम्राटों ने, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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