Book Title: Veer Vikramaditya
Author(s): Mohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 12
________________ नगरपालक, महाबलाधिकृत आदि अधिकारी वहां आ पहुंचे। ऐसा कैसे हुआ-इसकी खोज की गई, पर सब व्यर्थ । कुछ भी समझ में नहीं आया। श्रीपति के माता-पिता पुत्र की अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न कर अपने गांव चले गए। स्वप्न आया और बीत गया। राजसिंहासन सूना हो गया। मंत्री पुन: उसी चिन्ता से चिन्तित हो गए। पन्द्रह दिन बीत गए। मंत्रियों ने पुन: अधीनस्थ छोटे राजाओं को एकत्रित किया और एक दूसरे युवक को मालवपति के रूप में चुना। नवयुवक लक्ष्मणसिंह था। भाग्य चमक उठा-केवल मध्यरात्रि तक-पश्चात् उसकी भी वही दशा हुई। मंत्रिगण असमंजस में पड़ गए। इसी प्रकार इस सिंहासन पर अधीनस्थ राजाओं के चार राजकुमारों को बिठाया गया और सबकी एक ही गति हुई। किसी को कोई पता नहीं लगा कि ऐसा क्यों हुआ? राजपुरोहित ने ग्रहशान्ति का उपक्रम किया। किसी छोटे देवता की यह करतूत हो तो उसकी तृप्ति के लिए यज्ञ किया गया। बाकले फेंके गए। अनेक मंत्रविदों को निमंत्रित किया गया। और जब पांचवें नवयुवक को राजसिंहासन पर बिठाया और उसकी भी वही दशा हुई तब बिजली के गिरने से जैसे धरती कांप उठती है, वैसे ही समस्त अवंती कांप उठी। अधीनस्थ राजाओं ने भी इस राजगद्दी की लालसा सदा के लिए छोड़ दी। अब क्या किया जाए? मंत्रविदों के प्रयत्न निष्फल हुए, साधकों ने हाथ खींच लिये । अग्निवैताल की इस क्रिया को कोई नहीं पकड़ सका। इसी प्रकार छह महीने और बीत गए । महाराज भर्तृहरि को एक वन में खोज लिया, किन्तु उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। थके हुए मंत्रियों ने युवराज विक्रमादित्य को ढूंढने का बहुत प्रयास किया, किन्तु उनके कोई समाचार प्राप्त नहीं हुए और इधर अवधूत के वेश में विक्रमादित्य एक वर्ष तक उस आश्रम में संगीत की साधना कर पुन: यात्रा के लिए निकल पड़े। मालव देश की परिस्थिति से वे सर्वथा अनजान थे। उन्होंने कुछ भी नहीं सुना था। उनका चित्त यात्रा के लिए प्रस्तुत था और वे अनेक यात्रा-स्थानों में अपनी संगीत-साधना को सार्थक करने की बात सोच रहे थे। अकेले ही विक्रमादित्य उत्तरापथ की यात्रा के निमित्त नर्मदा नदी को पार कर आगे बढ़ते गए। वीर विक्रमादित्य ५

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