Book Title: Veer Vikramaditya
Author(s): Mohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ राज्याभिषेक पूर्ण आडम्बर के साथ सम्पन्न हुआ। राजराजेश्वर मालवनाथ महाराज श्रीपति की जय-जयकार से सारी राजसभा गूंज उठी। मंत्रियों की सूचना के अनुसार याचकों को दान दिया गया। राजसभा के प्रांगण में सामूहिक भोज का समारंभ हुआ। रात्रि में नर्तकियों और गायिकाओं का कार्यक्रम हुआ। राजसभा में एकत्रित लोगों को मैरेय और वारुणि नहीं दी जाती थी, किन्तु श्रीपति के पिता शक्ति सम्प्रदाय के उपासक थे, अत: उन्होंने मैरेय देने के लिए दास-दासियों को आज्ञा दी। १. अग्निवैताल लगभग आधी रात बीत जाने पर महाराज श्रीपति अपने शयनकक्ष में गए। वे युवा थे। गांव के संस्कारों से सम्पन्न थे। मित्र भी वैसे ही मिले थे। शयनगृह में जाने के बाद उनके मन में किसी सुन्दर दासी के साथ प्रथम रात्रि बिताने की इच्छा हुई। किन्तु संकोचवश उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा और द्वार बन्द कर रत्नजटित स्वर्ण के पलंग पर बिछी हुई रेशमी शय्या पर सो गये। एक ओर तो आकण्ठ मदिरा का पान कर लिया था। उसी गुलाबी मादकता के साथ आज ही प्राप्त सत्ता की मादकता का मिलन हो गया। सत्ता प्राप्त होने पर जो व्यक्ति आम्रवृक्ष की भांति विनम्र नहीं होते, किन्तु ताड़वृक्ष की भांति अकड़ जाते हैं, उन मनुष्यों के जीवन में सत्ता की मादकता विषतुल्य हो जाती है। श्रीपति आज ही महाराज भर्तृहरि के उत्तराधिकारी बने थे और आज ही उनके मन में स्त्री-सहवास की भूख जाग गई थी। किन्तु राजभवन की परिचारिकाओं से नितान्त अपरिचित होने तथा यह बात बाहर प्रकट न हो, इस विचार ही विचार में वे अकेले शय्या पर सो गए और प्रात:काल की शरबती कल्पनाओं को संजोते हुए वे कुछ ही क्षणों में निद्राधीन हो गए। कुछ ही क्षणों के पश्चात् अकस्मात् ही वह बंद द्वार खुल गया। श्रीपति उस विशाल पलंग पर सीधा सो रहा था। द्वार पुन: बंद हो गया और स्वत: ही उसमें सांकल अटक गई। वहां किसी मनुष्य की परछाई भी नहीं दीख रही थी। तो फिर द्वार अपने आप कैसे खुला और कैसे बन्द हो गया? दीपमालाओं का प्रकाश शयनकक्ष में व्याप्त था। अचानक एक विशाल आकृति दिखाई देने लगी। उसके केश खुले थे। उसकी आंखें लाल थीं। ऐसा लग रहा था कि उसके मुंह पर दो धधकते अंगारे रखे हुए हों। उसका वर्ण अत्यन्त श्याम था। उसकी भुजाएं प्रचण्ड थीं। उसके शरीर पर लाल रेशम की धोती शोभित वीर विक्रमादित्य ३

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