Book Title: Veer Vikramaditya Author(s): Mohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 8
________________ महाराजा भर्तहरि का पत्नी के प्रति अगाध प्रेम था। उसी अगाध प्रेम से उनका मन विरक्त हुआ और वे त्याग के मार्ग पर चल पड़े। अनंगसेना ने आत्महत्या कर ली। राजभवन सूना हो गया। अधेड़ उम्र का मंत्री बुद्धिसागर, राज्य के अन्यान्य मंत्री तथा नगरसेठ आदि विशिष्ट व्यक्तियों ने मंत्रणा कर युवराज विक्रमादित्य की खोज करने के लिए चारों दिशाओं में आदमी भेज दिए। किन्तु खोज के तीन महीने बीत जाने पर भी युवराज का कहीं अता-पता नहीं मिला। अता-पता भी कैसे लगता! उत्तरप्रदेश की यात्रा के लिए प्रस्थित अवधूत नर्मदा नदी के किनारे जंगलों में रुक गया था। वहां एक संगीताचार्य से परिचय हुआ और वहां उसके आश्रम में संगीत और नृत्य की शिक्षा ग्रहण करने के लिए रुक गया। विक्रमादित्य जब बालक था, तब वह अपने बड़े भाई के साथ संगीत का अभ्यास करता था और प्रारंभिक ज्ञान प्राप्त कर लिया था। परन्तु संगीत तो एक अथाह सागर है। उसका पार कोई मर्त्य पा नहीं सकता। किन्तु इस जंगल में वयोवृद्ध संगीताचार्य का अनायास ही योग मिला और उसका निराश मन पुन: आशाओं से भर गया और वह इसीलिए उस रमणीय वन-प्रदेश में स्थिर हो गया। युवराज का वृत्तान्त न मिलने के कारण अवंती राज्य का मंत्रिवर्ग बहुत चिन्तित हो गया। राज्य का कारोबार व्यवस्थित चल रहा था, पर राजा के बिना राजसिंहासन की रक्षा कैसे की जा सकती है? यदि कोई बलशाली राजा आक्रमण कर दे या कोई पारिवारिक बन्धु राज्य हड़पने के लिए सिर उठाए तो क्या किया जाए? इतना होने पर भी युवराज की टोह में गुप्तचरों की अनेक टोलियां भारत की चारों दिशाओं में भेजी जा चुकी थीं। दो महीने और बीत गए। युवराज का कोई वृत्तान्त नहीं मिला। अन्त में महामंत्री तथा अन्य मंत्रियों ने यह निर्णय लिया कि इस गद्दी पर जिसका हक पहला हो, उसे राजगद्दी पर बिठा दिया जाए। सभी मंत्री, पारिवारिक जन, सेनानायक तथा सरदार एकत्रित हुए। वे कुछ निर्णय करें, उससे पूर्व ही अवंती के सूने राजसिंहासन पर व्यंतर जाति के देव अग्निवैताल की नजर पड़ी और उसके मन में राजसुख भोगने की प्रबल लालसा जागृत हो गई। अब वह अदृश्य रूप से राजभवन में आता और सिंहासन पर अपने अधिकार को मान लेता।Page Navigation
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