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और वेद शब्द यहां प्रयुक्त हुए हैं । स्मृति वेद के उतनी समीप नहीं जितने कि ब्राह्मण उपनिषद् आदि । वेदव्याख्यान होने से, ये वेद के बहुत समीप हैं । इसी लिये इन्हें वेद वा श्रुति कहा गया है। फिर भी उपनिषद् को उतना ऊँचा पद नहीं दिया | स्पष्ट मनु कह रहा है कि "औपनिषदीः श्रुती : " । श्रुति शब्द का सर्वत्र वेदार्थ है भी नहीं । महाभारत आदि ग्रन्थों में लौकिक ऐतिह्य को भी श्रुति कहा है। देखोयत्र तेपे तपस्तीव्रं दाल्भ्यां बक इति श्रुतिः ॥
शल्यपर्व ४१ | ३२ ॥
इसी प्रकार उपनिषद् में होने वाली परम्परा से सुनी हुई सच्चाई को "आँप - निषदी श्रुती: कहा है । जो ऐसा न मानोगे, तो मनु में परस्पर विरोध आने से मनु का ही प्रमाण न रहेगा । और मनु ६ । ९४ ॥ में जो " वेदान्त" शब्द आया है, तो वहां “अन्त” का अर्थ समीप ही है । अतएव हमारे सिद्धान्त में कोई आपत्ति नहीं आती । (ग) महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि भी कहते हैं
सप्तद्वीपा वसुमती । त्रयो लोकाः । चत्वारो वेदाः । साङ्गाः सरहस्याः । १ । १ । १ ।
(कीलहान सं० पु० )
यहां पर पतञ्जलि भी रहस्य अर्थात् उपनिषद् को वेदों से पृथक मानता है। जब उपनिषत् आदि ब्राह्मण भाग वेदों से पृथक् हैं और वेद नहीं हैं, तो ब्राह्मण ग्रन्थों को वेद मानना अज्ञान ही है ।
प्रश्न - महाभाग्य में तो
वेदे खल्वपि - " पयोव्रतो ब्राह्मणो यवागूवतो राजन्य
आमिक्षावतो वैश्यः" इत्युच्यते । १ । १ । १ ॥
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(कील० सं० पु० ८ )
पुनः
वेदशब्दा अप्येवमभिवदन्तियोऽग्निष्टोमेन यजते य उ चैनमेवं वेद । योऽग्निं नाचिकेतं चिनुते य उ चैनमेवं वेद
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( कील० सं० पृ० १० )
* तैत्तिरीय बा० ३ | १४ | ८ | ५ || इत्यादि ।
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