Book Title: Tulsi Prajna 1998 01 Author(s): Parmeshwar Solanki Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 5
________________ शलाका-परीक्षा के उपरांत आचार्य श्री ने स्वयं माना और सार्वजनिक तौर पर विज्ञप्त किया कि पर्याप्त श्रम किया गया है किन्तु यह उपक्रम अजस्र और अविच्छिन्न रहना चाहिए। उन्होंने 'प्रमाण-मीमांसा के बाद 'प्रमाणनय तत्त्वालोक' और उसकी टीका-'रत्नाकारावतारिका' पर अध्ययन-शोध का सुझाव दिया। आचार्य श्री ने प्रकट किया कि जैन शासन की अदभत प्रभावना है जिसे क्रमशः प्रवचन, धर्मकथा, वाद, निमित्त, तप, विद्या, सिद्धि, कवित्व इत्यादि अनेक रूपों में आचार्य उमास्वाति, सिद्धसेन दिवाकर, जिनभद्रगणि, आर्य रक्षित, पादलिप्तसूरि, हरिभद्रसूरि, मल्लवादी, सिद्धर्षि, अभयदेवसूरि, बप्पभट्ट, मानतुंग और हेमचंद्र, वादिदेव, यशोविजय आदि ने निरन्तर प्रभावमय बनाए रखा है। उनके श्रम को चिरस्थाई बनाये रखने का सतत उद्योग होते रहना चाहिए। जैन विश्व भारती संस्थान का यह उपक्रम बहुत उपयोगी व श्रेयस्कर होगा और जैन विद्या में पाण्डित्य को प्रबुद्ध करेगा-इसमें कोई वैमस्य नहीं हो सकता। किंतु इस उपक्रम को विश्वविद्यालयोय अध्ययन-शोध प्रवृत्ति से विधिवत जोड़ा जाना चाहिए और इससे परीक्षार्थी निरन्तर लाभान्वित होते रहें-ऐसा व्यवस्था होनी चाहिए । -परमेश्वर सोलंकी तुलसी प्रशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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