Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 5
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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इसे अपशकुन समझकर तीर मारकर तुम्हें धराशायी कर दिया। वहाँ से मृत्यु होने पर तुम महेन्द्र कल्प में देव रूप में उत्पन्न हुए। वहाँ का आयुष्य पूर्ण होने पर तुमने लंकाधिपति के रूप में जन्म ग्रहण किया और वह मृत्यु के पश्चात् नरक गया। वहाँ की आयु पूर्ण होने पर बानर के रूप में जन्मा। यही तुम्हारे बैर का कारण
(श्लोक ५४-५७) उन असाधारण उपकारी मुनि को वन्दना कर और लंकाधिपति की आज्ञा लेकर वे देव स्वस्थान को लौट गए । तडित्केश ने भी अपना पूर्व भव ज्ञात हो जाने से अपने पुत्र सुकेश को राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली और तपश्चर्या द्वारा मोक्ष प्राप्त किया। राजा धनोदधि भी स्वपुत्र किष्किधी को किष्किन्धा का राज्य देकर दीक्षित हो गए और परमपद को प्राप्त किया : (श्लोक ५८-६०)
उस समय वैताढ्य पर्वत पर रथनुपुर नामक नगर में विद्याधर राज अशनिवेग राज्य करते थे। उनके दोनों भुजदण्ड-से उनके दो पुत्र थे विजयसिंह और विद्युद्वेग । उसी पर्वत पर आदित्यपुर में मन्दिरमाली नामक एक विद्याधर राजा राज्य कर रहे थे। उनकी कन्या का नाम श्रीमाला था। कन्या के स्वयंवर में मन्दिरमाली राजा ने सभी राजाओं को आमन्त्रित किया। ज्योतिष्क देवों की तरह विद्याधरगण आकाश-पथ से आए और स्वयंवर सभा के मण्डप में बैठ गए। श्रीमाला हाथ में वरमाला लेकर आई और जैसे-जैसे प्रतिहारी राजाओं का वर्णन करता, सुनती हुई वह अग्रसर होती गई। जैसे नाले का जल वृक्षों का स्पर्श करता हुआ बढ़ता जाता है उसी प्रकार दृष्टि द्वारा राजाओं का स्पर्श करती हुई वह आगे बढ़ती गई। क्रमशः अनेक विद्याधर राजाओं का अतिक्रमण कर श्रीमाला किष्किन्धी के पास आकर उसी प्रकार रुक गई जैसे गङ्गा समुद्र के पास जाकर रुक जाती है। भविष्य में अपनी भूजलताओं से जो उसका आलिङ्गन करेगा उसी का अङ्गीकार स्वरूप वरमाला उसके कण्ठ में पहना दी। यह देख कर सिंह-सा साहसी विजयसिंह भकुटि चढ़ाकर क्रोध से भयंकर बना बोल उठा-'तस्कर को जिस प्रकार राज्य से निकाल दिया जाता है उसी प्रकार दुष्कृत करने वाले इस वंश के विद्याधरों को हमारे पूर्वजों ने वैताढ्य पर्वत की राजधानी से निर्वासित कर दिया