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तिलकमञ्जरी में औचित्य
155 गाम्भीर्य को प्रकट नहीं कर सकता। अयोध्या नाम से जहाँ एक ओर प्रकृत नगरी की रक्षा के सभी प्रकार के उपकरणों से सम्पन्न होना द्योतित हो रहा है, वहीं दूसरी ओर इस नगरी को जीतने में शत्रुओं की असमर्थता भी प्रकट हो रही है। धनपाल ने अयोध्या की स्वर्ग के साथ उपमा देकर भी यही तथ्य प्रकट किया है, कि जिस प्रकार असुरों के द्वारा स्वर्ग को जय नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार शत्रुओं के द्वारा अयोध्या अविजित है। अतः अविजितार्थ व्यञ्जक होने के कारण अयोध्या नाम पूर्णतः औचित्यपूर्ण है।
विद्याधर मुनि मेघवाहन को 'अपराजिता' नामक विद्या देते है। इस विद्या का "अपराजिता' नाम विशेष औचित्य से युक्त है। अपराजिता- न पराजिता कदाचिदन्यविद्यया इति अपराजिता अर्थात जो विद्या किसी अन्य विद्या के द्वारा पराजित न की जा सके। सम्राट् मेघवाहन यौवन का अत्यधिक समय बीत जाने पर भी सन्तान प्राप्त न होने के कारण दुःख से संतप्त थे। विद्याधर मुनि अपने तपोबल से यह जान जाते हैं कि उसका समाप्त प्रायः अदृष्ट ही अपत्योत्पत्ति में बाधक है। इसलिए वे उसे अपराजिता विद्या का जप करने के लिए कहते हैं। यह विद्या अपने नाम अनुरूप ही सभी मनोरथों की शीघ्र पूरा करने में समर्थ है। अतः अपराजिता नाम सर्वथा औचित्यपूर्ण है। पदौचित्य पदौचित्य का अर्थ है - उचित पद का प्रयोग । भाव व विषय के अनुकूल पद के प्रयोग से वाक्य में चारुता आती है। आचार्य क्षेमेन्द्र के अनुसार औचित्यपूर्ण पद के प्रयोग से कवि सूक्ति उसी प्रकार से सुशोभित होती है जिस प्रकार गौरवदना नायिका के ललाट पर कस्तूरी का श्याम तिलक तथा श्यामवदना नायिका के मस्तक पर श्वेत तिलक उसके सौंदर्य को द्विगुणित कर देता है। आचार्य क्षेमेन्द्र ने महाकवि परिमल के प्रकृत पद्य में प्रयुक्त मुग्धा पद को उदाहरण स्वरूप दिया है। इस पद्य में 'मुग्धा' पद महारानी के सुलभ सरलता को अभिव्यञ्जित कर हृदयावर्जक चमत्कार का सम्पादन कर रहा है।
61. तिलकं बिभ्रति सूक्तिर्भात्येकमुचितं पदम्। चन्द्राननेव कस्तूरीकृतं श्यामेव चान्दनम् ।।
औ. वि. च., का. 11 मुग्धा गुर्जरभूमिपालमहिषी प्रत्याशया पाथसः। कान्तारे चकिता विमुञ्चति मुहुः पत्युः कृपाणे दृशौ ।। वही, पृ. 8
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