Book Title: Tilakmanjari Me Kavya Saundarya
Author(s): Vijay Garg
Publisher: Bharatiya Vidya Prakashan2017

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Page 256
________________ 232 तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य उपसंहार धनपाल की तिलकमञ्जरी गद्य साहित्य की अमुल्य निधि है। इसकी भाषा, भाव एवं शैली अतुलनीय है, जो धनपाल की कीर्ति को सर्वत्र प्रसारित करती है। अपनी भाषा, भाव, रमणीयता व तत्कालीन समाज का दर्पण होने के कारण ही तिलकमञ्जरी विद्वानों के मध्य प्रशंसित रही है। सोमेश्वर कवि ने कीर्तिकौमुदी में धनपाल की प्रशंसा करते हुए कहा है वचनं धनपालस्य चन्दनं मलयस्य च । सरसं हृदि विन्यस्य कोऽभून्नाम निवृत्तः ॥ कीर्तिकौमुदी 1/16 इस शोध-प्रबन्ध में काव्य सौन्दर्यात्मक तत्त्वों की दृष्टि से तिलकमञ्जरी की समीक्षा की गई है। यहाँ पूर्व विवेचित अध्यायों के सार को निष्कर्ष रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रथम अध्याय में काव्य सौन्दर्य की विवेचना की गई है। कवि का कर्म ही काव्य है। सरस काव्य सहृदय को रसानन्द प्रदान करने के साथ-साथ मधुरता से यह उपदेश भी देता है कि राम के समान आचरण करना चाहिए, न कि रावण के समान। सौन्दर्य के विषय में अनेक पाश्चात्य व भारतीय विद्वानों ने चिन्तन किया है। पाश्चात्य विद्वानों में महान् ग्रीक दार्शनिक प्लेटो से लेकर आधुनिक काल के सौन्दर्य शास्त्री क्रोचे ने सौन्दर्य पर अपने-अपने मतों व अवधारणाओं को प्रकट किया है। इनके विद्वानों से कुछ की सौन्दर्य दृष्टि व्यक्तिपरक, कुछ की वस्तुपरक तथा कुछ की आत्मपरक है। इसी कारण वे सौन्दर्य के किसी सर्वमान्य सिद्धान्त को निर्धारित नहीं कर पाए हैं। पाश्चात्य विद्वान् यह मानकर अभिभूत होते रहते हैं कि उनका सौन्दर्य विषयक चिन्तन सर्वाधिक प्राचीन है तथा कुछ भारतीय विद्वानों का भी यही मानना है। किन्तु यदि पूर्वाग्रह त्याग कर चिन्तन किया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि भारत में वैदिक काल से ही सौन्दर्य परक चिन्तन होता रहा है। वैदिक ऋषि सौन्दर्य के विषय में अत्यन्त सूक्ष्म चिन्तन किया करते थे। सौन्दर्य का क्षेत्र अधिक विस्तृत है। पाश्चात्य दार्शनिक हीगल ने सौन्दर्य को कलाओं का दर्शन कहा है। ये कलाएँ पाँच हैं-वास्तु, मूर्ति, चित्र, संगीत और काव्य। ये सभी कलाएँ सौन्दर्य की विभिन्न माध्यमों से की गई अभिव्यक्ति होती

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