Book Title: Tilakmanjari Me Kavya Saundarya
Author(s): Vijay Garg
Publisher: Bharatiya Vidya Prakashan2017

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Page 224
________________ 200 तिलकमञ्जरी में वक्रोक्ति के द्वारा कामदेव को पुनर्जीवन मिलने से रति पुनः जीवनोत्साह से युक्त हो गई थी। हरिवाहन मलयसुन्दरी को समरकेतु की कुशलता के विषय में आश्वस्त करता है, तो मलयसुन्दरी अत्यधिक प्रसन्न होकर उपर्युक्त वाक्य कहती है। यहां शिवजी को नेत्राग्नि से भस्म कामदेव को, रति की प्रार्थना से पुनर्जीवन देने का वर्णन किया गया है। हजारों वर्ष पूर्व घटित इस घटना ने औचित्य का अत्यन्त अन्तरङ्ग होने के कारण रमणीयता को प्राप्त कर लिया है अत: कालवैचित्र्यवक्रता कारकवक्रता : जहाँ प्रधान की गौणता का प्रतिपादन करने से एवं गौण में मुख्यता का आरोप करने से किसी (अपूर्व) भङ्गिमा के द्वारा कथन की रमणीयता को पुष्ट करने के लिए कारक सामान्य का प्रधान रूप से प्रयोग किया जाता है, इस प्रकार के कारकों के परिवर्तन से युक्त उसे कारकवक्रता कहते हैं। कारकों के इस परिवर्तन से काव्य में अपूर्व रमणीयता की सृष्टि होती है। इस प्रकार चेतन में संभव होने वाली स्वतन्त्रता को अचेतन में भी प्रतिपादित करने से अथवा गौण करणादि से कर्तृता का आरोप करने से जहां कारकों को परिवर्तन चमत्कार को उत्पन्न करने वाला होता है, वहां कारक-वक्रता होती है। तिलकमञ्जरी में कारक-वक्रता के अनेक रमणीय उदाहरण प्राप्त होते हैं - केवलोऽपि स्फुरन् बाणः करोति विमदान् कवीन्।” धनुषारोपित चेष्टायुक्त बाण भी (अवलोकन मात्र से) जल के पक्षियों को हर्षादि से रहित कर देता है। मृग्या व्याध का कार्य है बाण स्वयं कुछ कुछ नहीं कर सकता। बाण व्याध की मृग्या साधन है। यहां कारण कारक के कर्ता रूप में विपर्यास से रमणीयता आ गई है। 65. यत्र कारकसामान्यं प्राधान्येन निबध्यते। तत्त्वाध्यारोपणान्मुख्यगुणभावाभिधानतः।। परिपोषयितुं काञ्चिद्भङ्गीभणिरम्यताम्। कारकाणां विपर्यासः सोक्ता कारकवक्रता। व. जी., 2/27, 28 66. तदेवमचेतनस्यापि चेतनसंभविस्वातन्त्र्यसमर्पणादमुख्यस्य करणादेर्वा कर्तृत्वाध्यारोपणाद्यत्र कारकविपर्यासश्चमत्कारकारी संपद्यते। वही, पृ. 258 67. ति. म., पद्य 26

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