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तिलकमञ्जरी की भाषा शैली
धनपाल ने बाण की गद्य रचना विशेषता 'दीर्घ समास-प्रचुरता' तथा सुबन्धु की गद्य शैली 'प्रत्यक्षरश्लेषमयता' का परित्याग करते हुए तिलकमञ्जरी को सरस, सुबोध व प्रवाहमयी भाषा शैली से अलङ्कत किया है।
बाण ने अपने समय में प्रचलित चार शैलियों का वर्णन किया है। उनके अनुसार उत्तर भारत के कवि श्लेष को, पश्चिमी भारत के कवि अर्थ को, दक्षिण के कवि उत्प्रेक्षा को तथा गौड़ अर्थात् पूर्वी भारत के कवि शब्दाडम्बर को प्रधानता देते हैं। इस शैली में समास बाहुल्य होता है इसलिए इस शैली को गौड़ी कहा जाता है। आचार्य वामन ने काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति में तीन रीतियों का वर्णन किया है - वैदर्भी, पाञ्चाली और गौड़ी। गुण तथा गुणों की संख्या इन रीतियों के भेदक तत्त्व हैं। रीति, वृत्ति तथा शैली समानार्थक शब्द हैं।
प्रतिभाशाली कवि रूढ़िवादी नहीं होता और न ही वह किसी विशेष शैली के बन्धनों को स्वीकार करता है। वह अर्थानुरूप व भावानुरूप शैली का अवलम्बन करता है। धनपाल ने वैदर्भी शैली को श्रेष्ठ कहा है। तिलकमञ्जरी में विषयानुकूल तीनों शैलियों का प्रयोग किया गया है। धनपाल जिस कुशलता से वैदर्भी शैली में विषय की भावाभिव्यञ्जना करते हैं, उसी निपुणता से पाञ्चाली व गौड़ी शैली में अर्थाभिव्यक्ति करते हैं। ___आचार्य विश्वनाथ वैदर्भी रीति का लक्षण करते हुए कहते है - "माधुर्य व्यञ्जक वर्णों से युक्त समास रहित अथवा अल्पसमास युक्त मनोहर रचना वैदर्भी रीति कहलाती है। धनपाल ने वैदर्भी रीति का रमणीय प्रयोग किया है। तिलकमञ्जरी से वैदर्भी रीति के कुछ सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत है -
विश्वकर्मसहस्रेरिव निर्मितप्रासादा, लक्ष्मीसहनैरिव परिगृहीतगृहा, देवतासहस्तैरिवाधिष्ठितप्रदेशा, राजनीतिरिव सत्त्रिप्रतिपाद्यमाना वार्ताधिगतार्था, अर्हद्दर्शनस्थितिरिव नैगमव्यवहाराक्षिप्तलोका, रसातलविवक्षुरविरथचक्रभ्रान्तिरिव चीत्कारमुखरितमहाकूपारघट्टा, सर्वाश्चर्यनिधानमुत्तरकौशलेष्वयोध्येति
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श्लेषप्रायमुदीच्येषु प्रतीचेष्वर्थमात्रकम् । उत्प्रेक्षा दाक्षिणात्येषु गौडेष्वक्षरडम्बरम् ।। हर्ष., 1/7 वैदर्भीमिव रीतीनाम् । ति. म., पृ. 159 माधुर्यव्यञ्जकैर्वर्णं रचना ललितात्मिका ।। अवृत्तिरल्पवृत्तिर्वा वैदर्भी रीतिरिष्यते ।। सा. द., 9/2