Book Title: Tilakmanjari Me Kavya Saundarya
Author(s): Vijay Garg
Publisher: Bharatiya Vidya Prakashan2017

View full book text
Previous | Next

Page 215
________________ 191 तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य रूढ़िवैचित्र्य वक्रता : रूढ़ शब्द के वैचित्र्य का वक्रभाव रूढ़िवैचित्र्यवक्रता कहलाता है। कुन्तक के अनुसार जहाँ वाच्यार्थ के लोकोत्तर तिरस्कार या प्रशंस्य उत्कर्ष का अभिधान करने की इच्छा से रूढ़ि के द्वारा असंभवनीय धर्मसमर्पक अथवा विद्यमान धर्म के अतिशय समर्पक अभिप्राय की प्रतीति होती है। वह कोई अपूर्व ही सौन्दर्य विधायक रूढ़िवैचित्र्यवक्रता कही जाती है।' इमामेव प्रकृतिसौम्यां सततसंनिहितामुपास्सव सकलक्षितिपालकुलदेवतां राजलक्ष्मीम्। इयं हीक्ष्वाकुकुलभरतमगीथदिभूपालपराक्रमक्रीता, .... अभिमतार्थविषयं च वरमचिरेण।-पृ. 30 प्रकृत उदाहरण में महाकवि धनपाल ने 'राजलक्ष्मी' शब्द का प्रयोग कर रूढ़िवैचित्र्यवक्रता का सुन्दर निदर्शन किया है। 'राजलक्ष्मी' का सामान्य अर्थ राजाओं के धन की देवी है। यहाँ पर राजलक्ष्मी शब्द से उसके प्रशंसनीय उत्कर्ष का बोध होता है। यह राजलक्ष्मी धन की देवी मात्र नहीं है अपितु मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली तथा दु:खों को दूर करने वाली राजाओं की आराध्य देवी भी है। इसी कारणवश विद्याधर मुनि भी सम्राट मेघवाहन को पुत्रवर-प्राप्ति हेतु इसी राजलक्ष्मी की आराधना करने का उपदेश देते हैं। अस्ति रम्यतानिरस्तसकलसुरलोका ...सर्वाश्चर्यनिधानमुत्तरकौशलेष्वयोध्येति यथार्थाभिधाना नगरी। - पृ. 11 यहाँ 'अयोध्या', नगरी वाचक संज्ञा पद मात्र नहीं है। धनपाल को 'अयोध्या' शब्द से एक चमत्कारी अर्थ विवक्षित है। इसीलिए उन्होंने 'यथार्थाभिधाना अयोध्या' कहा है। अयोध्या - योद्धं शक्या योध्या, न योध्या अयोध्या अर्थात् जिससे युद्ध न किया जा सके अथवा जिसे जीता न जा सके। इससे अयोध्या की साधन-सम्पन्नता, वीर जन सम्पन्नता तथा समस्त युद्धोपकरण सुसज्जिता का बोध होता है। 53. यत्र रूढ़ेरसम्भाव्यधर्माध्यारोपगर्भता। सद्धर्मातिशयारोपगर्भत्वं वा प्रतीयते।। लोकोत्तरतिरस्कारश्लाध्योत्कर्षाभिधित्सया। वाच्यस्य सोच्यते कापि रूढ़िवैचित्र्यवक्रता।। व. जी., 2/8, 9

Loading...

Page Navigation
1 ... 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272