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पता नहीं चलता। वसुबन्धुकृत अभिधर्मकोश जैसे सुविख्यात ग्रंथका भी उसके तिब्बतीय अनुवाद परसे उद्धार करना पड़ा है । जैनधर्म के तीर्थकर
बौद्धधर्म से भी अति प्राचीन एक श्रमण सम्प्रदाय जैनधर्म है। जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ का उल्लेख वैदिक साहित्य में भी पाया जाता है । भागवत पुराण में तो उन्हें स्वयंभू मनु की सन्तान की पांचवीं पीढ़ी में उत्पन्न हुए माना गया है, और उनकी तपस्या तथा कैवल्य प्राप्ति का विस्तार से वर्णन किया गया है। जैन मान्यतानुसार ऋषभनाथ के पश्चात् तेईस तीर्थंकर और हुए जिन्होंने अपने अपने समय में जैनधर्म का उपदेश और प्रचार किया। बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ कृष्ण के चचेरे भाई थे। उन्होंने अपने विवाह के समय यादव वंशियों के भोजनार्थ संहार किये जानेवाले पशुसमूह को देखकर वैराग्य धारण किया और सुराष्ट्र देशके गिरनार पर्वतपर तपस्या की। यह पर्वत अभीतक उनके नाम से पूज्य माना जाता है। तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म बनारस के राजवंश में हुआ था। उन्होंने जैनधर्म को इतना सुसंघटित बनाया कि आजतक वह प्रायः उसी रूपमें पाया जाता है । अधिकांश जैन मन्दिरों में पाश्वनाथ को ही पूजा होती है और सामान्यतः जैनी पार्श्वनाथ के ही उपासक माने जाते हैं। पार्श्वनाथ स अढाई सौ वर्ष पश्चात् अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर हुए। इनका जन्म विहार प्रदेश के कुण्डनपुर के राजा सिद्धार्थ के यहां रानी त्रिशला की कुक्षि स चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन हुआ। यह दिन आज भी जैनियों द्वारा पवित्र माना जाता है, और उस दिन देशभर में ' महावीर जयन्ती मनाई जाती है। महावीर ने अपने कुमार काल के तीस वर्ष राजभवन में सुख से शौर्य और विद्याध्ययन में व्यतीत कर तपस्या धारण कर ली । बारह वर्ष के कठोर तपश्चरण और आत्मचिन्तन द्वारा उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया, और फिर तीस वर्ष तक देश के विभिन्न भागों में परिभ्रमण करते हुए धर्म का प्रचार किया। इस प्रकार बहत्तर वर्ष की आयु पूर्ण कर कार्तिक कृष्णा १४ के दिन उन्होंने निर्माण प्राप्त किया । इसी दिन निर्वाणोत्सव दीपावली के रूप में आजतक धूमधाम से मनाया जाता है । प्रचलित मान्यतानुसार भगवान महावीर का निर्वाण विक्रम संवा से ४५० वर्ष पूर्व शक संवत् से ६०५ वर्ष पूर्व, एवं ईस्वी संवत् से ५२७ वर्ष पूर्व हुआ। तदनुसार महावीर निर्वाण संवत् को स्थापना हुई जिसका इस समय २४७८ वां वर्ष प्रचलित है।
भगवान महावीर की माता त्रिशला की छोटी बहिन चलना का विवाह उस समय के चक्रवर्ती मगध-नरेश बिम्बसार उपनाम श्रेणिक से हुआ था। रानी चेलना के प्रयत्न से श्रेणिक महावीर के परम उपासक बन गये, और उन्हीके प्रश्नों के उत्तर में जैन शास्त्रों और पुराणों का बहभाग प्रतिपादन किया गया माना जाता है।
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