Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 5
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 6
________________ विषय-सूची) १७३ १८० अनन्त चतुष्टय प्रगट करने में ज्ञानोपयोग की मुख्यता १५७ आत्मा की ज्ञान पर्याय का स्वरूप १५९ सिद्ध भगवान से विपरीत संसारी जीव का ज्ञानोपयोग अनन्त सुख की विपरीतता १६१ अनन्त वीर्य की विपरीतता १६४ भगवान सिद्ध की ज्ञान पर्याय स्वपरप्रकाशक एवं अनेकांत स्वभावी है १६५ वस्तु मात्र का सामान्य स्वभाव अनेकांत आत्मवस्तु अनेकांत स्वभावी १६७ अनेकांत स्वभावी ज्ञान की ज्ञेयों को जानने की स्थिति १७१ अनेकांत ज्ञान में ज्ञेयों की स्थिति ज्ञेयों को जानने में अनेकांत की स्थिति १७७ भगवान सिद्ध की पर्याय अनेकांत स्वभावी कैसे ? १७८ अनेकांत और नय अनेकांत स्वभावी ज्ञान मानने का फल सम्यक् एकान्त की उपलब्धि १८१ __यथार्थ समझ से ही आत्मोपलब्धि योग्य रुचि की उत्पत्ति यथार्थ समझ से रुचि परिवर्तन अवश्यंभावी यथार्थ समझ की पहिचान क्या १८७ मात्र वीतरागता को ही यथार्थ मोक्षमार्ग क्यों माना जावे? वीतरागता की पहिचान क्या ?... १९४ अनन्तानुबंधी के अभावात्मक वीतरागता की पहिचान क्या? १९७ जिनवाणी के अध्ययन से मार्ग खोज निकालना असम्भव जैसा लगता है ? २०० जिनवाणी में समझने योग्य विषय तो अनेक हैं हम किसे पहिचानें ? । २०१ द्रव्यों व तत्वों को स्व-पर के रूप में पहिचानें जीवादि द्रव्यों व तत्त्वों को स्व-पर के रूप में पहिचानना २०३ नवतत्त्वों को स्व एवं पर के रूप में पहिचानना २०४ जीवद्रव्य एवं जीवतत्त्व का अन्तर । २०४ जीवतत्त्व की स्व के रूप में पहिचान करना २०६ जीवतत्त्व का स्वरूप २०७ तत्त्वों का स्वरूप पहिचानना आवश्यक क्यों? आस्रवादि तत्त्वों की उत्पत्ति कैसे होती है? आत्मा के तत्त्वों को संयोगी भाव कैसे कहा गया है ? १८४ १९० २०९ २११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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