Book Title: Sthanakvasi Author(s): Aatmaramji Maharaj Publisher: Lala Valayati Ram Kasturi Lal Jain View full book textPage 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५ ) को कोई स्थान नहीं। पाठकों को यह तो भली भाँति विदित है कि शास्त्रों में साधु को अनगार कहा है। उसका अपना कोई घर नहीं होता, न वह अपने लिये कोई घर बनाता है और न उसके निमित्त से बने हुए किसी मकान में ठहरने की उसको शास्त्र में श्राज्ञा है। इसलिये श्रमण (साधु) और श्रमणोपासक (गृहस्थ) के लिये धर्मध्यानार्थ व्यवहार में आनेवाले उपाश्रय या स्थानक कैसे और किस प्रकार के होने चाहिये, इस बातका उल्लेख जैनागमों में बड़े स्पष्ट शब्दों में किया गया है। श्राचारांग नाम के प्रथम अंग का शय्या अध्ययन प्रायः इसी विषय के वर्णन से भरा पड़ा है और प्रश्नव्याकरणसूत्र के पाठवें अध्ययन का निम्नलिखित सूत्रपाठ उक्त विषय का इस प्रकार खुलासा करता है * "पढमं देवकुल-सभा-प्पवा-वसह-रुक्खमूल-पारामकंदरागर-गिरिगुहा-कम्मउज्जाण - जाणसाला-कुवितसाला. * प्रथा वस्तुविविक्तवासोनाम्नी भावनामाह-देवकुलं यक्षादिगृहं, सभा महाजनस्थानं, प्रपा पानीयशाला, आवसथं परिआजकस्थानं, वृक्षमूलं प्रतीतं, माधवीलतादियुक्तदंपतीरमणाश्रयो वनविशेषः आरामः, कंदरा दरी, आकरो लोहाद्युत्पत्तिस्थानं, गिरिगुफा प्रतीता, कर्म-लोहादि परिकर्म्यते क्रियते तत् परिकर्म, उद्यानं पुष्पादिमवृक्षसंकुलं उत्सवादी बहुजनभोग्यम् , यानशाला For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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